Hindustan Meri Jaan : भीकाजी कामा , जिन्होंने की थी तिरंगे की शुरुआत

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] • 1 Years ago
हिंदुस्तान मेरी जान: भीकाजी कामा , जिन्होंने की थी तिरंगे की शुरुआत
हिंदुस्तान मेरी जान: भीकाजी कामा , जिन्होंने की थी तिरंगे की शुरुआत

 

स्वतंत्रता की अनकही कहानी-1

हरजिंदर
 
आज जब आजादी की 75वीं सालगिरह पर हर घर में तिरंगा फहराने का अभियान चल रहा है, तो उस शख्सियत को याद करना भी जरूरी है जहां से तिरंगे की शुरुआत हुई. भीकाजी कामा ने यूरोप में रहकर राष्ट्रवादी मुहिम चलाने और सभी तरह के क्रांतिकारियों को एक झंडे तले लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
 
मुंबई के संपन्न पारसी परिवार में जन्मी भीकाजी पटेल जब बड़ी हुईं तो परिवार उनके क्रांतिकारी विचारों से चिंतित हो उठा. वे न सिर्फ राष्ट्रवादी लेख लिखती थीं ,क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगी थीं.
 
परिवार में फैसला हुआ कि उनकी शादी कर दी जाए. जल्द ही विवाह कर दिया गया.वे शहर के मशहूर वकील रुस्तम केआर कामा के साथ डोली में विदा हो गईं. लेकिन वैवाहिक जीवन के शरूआती कुछ साल बीतने के बाद समस्याएं खड़ी होनी लगीं.
 
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वे क्रांतिकारी राष्ट्रवादी विचारों की थीं . उनके पति ब्रिटिश शासन के पक्के समर्थक. भीकाजी को समझ आ गया कि मामला ज्यादा चलने वाला नहीं है। उनकी जीवनी लिखने वालों ने यह भी बताया है कि उस दौरान पति-पत्नि दोनों में बातचीत तक बंद हो गई थी.
 
हालांकि उन्होंने कोई बड़ा फैसले लेने के बजाए खुद को सामाजिक कार्यों में लगा दिया. इसी बीच मुंबई में प्लेग की महामारी फैल गई. भीकाजी मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज पहुंचे.
 
अपना नाम स्वयं सेवकों की सूची में दर्ज कर दिया. अगले ही दिन से उन्होंने वार्ड में ड्यूटी देने से लेकर गंदी बस्तियों के सफाई अभियान में जाने का काम शुरू कर दिया.
 
यह ऐसा काम था जो न उनके मायके वालों को पसंद आया और न ससुराल वालों को. इसका जो जोखिम था वो अलग. नगर के लोग ही नहीं अस्तालों में काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मी भी बड़े पैमाने पर प्लेग का शिकार बन रहे थे.
 
यह जोखिम इसलिए भी बड़ा था कि शुरुआत में इस महामारी के शिकार लोगों में मृत्यु दर 82 फीसदी थी. यानी औसतन सिर्फ सौ में 18 लोगों की ही जान बच पाती थी.
 
बाद में जब हाफकिन की वैक्सीन और लस्टिग का सीरम उपलब्ध हुआ तो यह मृत्यु दर 50 फीसदी तक आ गई, लेकिन खतरा तब भी छोटा नहीं था.भीकाजी ने लगातार कई साल तक प्लेग के मरीजों की सेवा की.

जब बीसवीं सदी का पहला साल शुरू हुआ तो प्लेग के संक्रमण ने उन्हें भी डस लिया. लेकिन कईं दिनों के संघर्ष के बाद अंततः वे बच गईं. उन्होंने प्लेग को खुद मात दी या वैक्सीन, सीरम वगैरह से उनका इलाज हुआ, उसका ब्यौरा उपलब्ध नहीं है. 
 
डॉक्टरों ने जब उन्हें प्लेग से बच निकलने की खबर दी,तभी उन्हें एक दूसरी खबर भी मिली. उनके पति रूस्तम कामा ने उन्हें तलाक दे दिया. प्लेग को तो उन्होंने हरा दिया,लेकिन शारीरिक रूप से वे काफी कमजोर हो गईं थीं.
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उनके परिवार ने तय किया कि स्वास्थ्य लाभ के लिए उन्हें ब्रिटेन भेज दिया जाए. एक बार जब वे यूरोप गईं तो जीवन के अंतिम वर्ष में ही लौटीं.लंदन में उनकी मुलाकात दादा भाई नौरोजी से हुई.
 
उसके बाद उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन के संगठित करने का बीड़ा उठा लिया. उस समय तक दादा भाई इंग्लैंड पंहुचने वाले भारतीयों के लिए एक बहुत बड़ा नाम थे.
 
वे हाउस आफ कामंस यानी ब्रिटिश संसद के लिए चुने जा चुके थे.इसके अलावा ब्रिटिश कमेटी आफ इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे. कुछ समय तक वे दादा भाई नौरोजी की सेक्रटरी रहीं.उसके बाद इंडियन होमरूल सोसायटी नाम के संगठन में सक्रिय हो गईं.
 
जब इस संगठन ने भारत में ब्रिटिश शासन का खुलकर विरोध शुरू किया तो सरकार के कान खड़े हुए. ब्रिटिश सरकार ने पाबंदियां लगानी शुरू कर दीं. भीकाजी कामा को बता दिया गया कि वे अब यहां नहीं रह सकतीं.
 
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अगर वे लिखित वादा करें कि राष्ट्रवादी गतिविधियों में शामिल नहीं होंगी तो उन्हें भारत जाने दिया जा सकता है. ऐसा कोई वादा करने के बजाए भीकाजी कामा पेरिस चली गईं. वहां जाकर क्रांतिकारियों को संगठित करने का काम किया.
 
भारत से भाग कर जाने वाले क्रांतिकारी उन दिनों सीधे भीकाजी के पास ही पहुंचते थे. वहां उन्होंने पेरिस इंडियन सोसायटी का गठन किया. वंदे मातरम अखबार की शुरुआत की.
 
क्रांतिकारी मदन लाल ढींगरा की शहादत के बाद उन्होंने एक और अखबार शुरू किया जिसका नाम था- मदन की तलवार. भारत में इन अखबारों पर पाबंदी थी. पेरिस से ये अखबार पांडिचेरी पहुंचते थे, जहां उन दिनों फ्रांस की सरकार का शासन था. पांडिचेरी से किसी तरह ये अखबार भारत आते थे.  

इसी दौरान उन्होंने भारत के तिरंगे का पहला प्रारूप तैयार किया. इसमें हरा, पीला और लाल रंग थे. सबसे ऊपर हरे रंग की पट्टी में आठ कमल के फूल बने थे जो भारत के आठ प्रांतों के प्रतीक थे.
 
बीच में पीली पट्टी पर देवनागरी में वंदेमातरम लिखा था. सबसे नीचे लाल पट्टी पर चांद और सूरज बने थे. इस तिरंगे को उन्होंने जर्मनी में हुई इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांफ्रेंस में जारी किया. लंबे समय तक यही तिरंगा भारत के राष्ट्रवादी फहराते रहे. हालांकि बाद में इसमें बदलाव किया गया. 
 
पेरिस में भीकाजी काम की गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार इतनी परेशान हुई कि उसने फ्रांस की सरकार से उनके प्रत्यर्पण के लिए कहा. फ्रेंच सरकार ने इससे साफ मना कर दिया. जब पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ तो वहां की सरकार को ऐसी गतिविधियों की इजाजत देना मुश्किल लगा.
 
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एक वजह यह भी थी कि उस लड़ाई में ब्रिटेन और फ्रांस एक ही पाले में थे. इस दौरान बहुत से क्रांतिकारियों को भारत भेज दिया गया. भीकाजी कामा को भारत भेजने के बजाए एक छोटे से कस्बे विंची में भेज दिया गया. 
 
विश्वयुद्ध जब खत्म हुआ तब वे पेरिस लौटीं. फिर से सक्रिय हो गईं. तब तक उनकी उम्र काफी हो चुकी थी. कुछ ही साल बाद उन्हें लकवा हो गया. उनकी तबीयत काफी बिगड़ी तो उन्हें भारत लाया गया. मुंबई में 13 अगस्त 1936 केा पारसी जनरल हास्पिटल में उनका निधन हो गया. तब वे 72 वर्ष की थीं.
 
जारी.....

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )