देशबंधु चित्तरंजन दास जयंतीः ब्रिटिश कपड़ों के बहिष्कार पर हुई थी जेल

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 05-11-2022
देशबंधु चित्तरंजन दास जयंतीः ब्रिटिश कपड़ों के बहिष्कार पर हुई थी जेल
देशबंधु चित्तरंजन दास जयंतीः ब्रिटिश कपड़ों के बहिष्कार पर हुई थी जेल

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

चित्तरंजन दास आजादी के उन लड़ाकों में शामिल थे, जिनका तन-मन देश को समर्पित था. इसीलिए उन्हें सहयोगीजन ‘देशबंधु’ के नाम से पुकारने लगे. पेशे के बैरिस्टर चित्तरंजन दास ने अदालतों में प्रैक्टिस से अपनी सक्रिय जीवन शुरू किया, लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हो गया कि जब तक मां भारती बेड़ियों में जकड़ी रहेगी, तब तक मुल्क के आम आदमी का जीवन पीड़ाओं से मुक्त नहीं हो पाएगा. अंग्रेजों के दमनचक्र में फंसा आम आदमी तब मर-मरकर जीने को मजबूर था. इसलिए वे पहले क्रांतिकारियों के वकील बने और फिर पूरी तरह स्वातंत्र्य आंदोलन में सक्रिय हो गए. इसके लिए वे अंग्रेजों के निशाने पर आ गए और उन्हें सपरिवार जेलों में दिन बिताने पड़े.

चित्तरंजन दास का जन्म 5 नवंबर 1870 को कलकत्ता उच्च न्यायालय के वकील भुबन मोहन दास के घर हुआ था. पिता चाहते थे कि उनका बेटा भी बड़ा होकर नामी वकील या आईसीएस बने. हालांकि उनका खानदान हकीमों के नाम से मशहूर था. चित्तरंजन दास 1890 में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की डिग्री लेकर इंग्लैंड चले गए, ताकि वह आईसीएस में कामयाब हो सकें. वहां अंग्रेजों के दबदबे से वे क्षुब्ध हो गए और उन्होंने फिर लंदन के द ऑनरेबल सोसाइटी ऑफ द इनर टेम्पल में बैरिस्टरी का अभ्यास किया. इस दौरान 1892 में वेस्टमिंस्टर से हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए जीतने वाले पहले एशियाई दादाभाई नौरोजी के लिए प्रचार भी किया. उनके इस अनुभव से उनके अंदर अपने देश के प्रति अनुराग प्रगाढ़ हुआ.

1894 में उन्होंने कलकत्ता लौटकर उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस शुरू कर दी. यहां वे जंगे-आजादी के दीवानों के लिए वकालत करने ले. उन्होंने क्रांतिकारियों को मुकदमे लड़कर और जीतर काफी ख्याति अर्जित की. उन्होंने राजद्रोह के आरोपी ब्रह्मबंधब उपाध्याय और भूपेंद्रनाथ दत्ता की ओर से मुकदमा लड़ा. 1908में अलीपुर बम कांड के मुख्य आरोपी अरबिंदो घोष को बरी करवाने में कायमयाबी हासिल की. इस विस्फोट में दो महिलाओं की मौत हो गई थी.

बिपिन चंद्र पाल से घनिष्ठता होने के कारण उन्होंने अंग्रेजी वीकली अखबार बंदे मातरम के प्रकाशन में सहयोग किया. उन्होंने 1917 में राजनीति में वे सक्रिय हुए. वे स्वदेशी के प्रखर समर्थक थे. कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने ग्राम विकास की नई योजना प्रस्तुत की, जिसमें स्थानीय स्वशासन, सहकारी साख समितियों की स्थापना तथा कुटीर उद्योग को फिर से शुरू करने जैसे कदम शामिल थे. देश में दोहरी सरकारी प्रणाली लागू करने वाले मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की उन्होंने निंदा की. इस बीच वे खादी आंदोलन से जुड़े और महात्मा गांधी के निकट आ गए. फिर उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया.

बंगाल में असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने ब्रिटिश कपड़ों के खिलाफ जोरदार अभियान छेड़ा और इन कपड़ों का बहिष्कार करने के लिए लोगों को लामबंद किया.  इससे अंग्रेज नाराज हो गए और 1921 में उन्हें, उनकी पत्नी और बेटे जेल में बंद कर दिया गया.

कांग्रेस के दिसंबर 1922 में हुए अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया. किंतु परिषदों के भीतर से असहयोग की उनकी परिकल्पना में सदस्यों का सहयोग नहीं मिला, तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. इसके बाद उन्होंने मोतीलाल नेहरू के साथ  स्वराज पार्टी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य केंद्रीय विधान सभा में जाकर अंग्रेजी राज की नीतियों की मुखालफत करना था. जीवन का यह  संघर्ष योद्धा 16 जून 1925 पंचतत्व में विलीन हो गया.  स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को चिरस्मरणीय बनाने के लिए 1950 में उनकी स्मृति में बंगाल के आसनसोल में चितरंजन लोकोमोटिव रेल कारखाना स्थापित किया, जो आज रेलवे की रीढ़ बन चुका है.