मैं गंगा का बेटा, मुझसे ज्यादा हिंदुस्तान की संस्कृति को कौन जानता है- राही मासूम रज़ा

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 31-08-2021
राही मासूम रज़ा
राही मासूम रज़ा

 

आवाज- द वॉयस/राही मासूम रज़ा का जन्मदिन

ज़ाहिद ख़ान

 

‘‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझे कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंको

और उस जोगी से यह कह दो

महादेव अब इस गंगा को वापिस ले लो

यह जलील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बनकर दौड़ रही है.’’

(‘गंगा और महादेव’)

अपनी नज़्म-शायरी और बेश्तर लेखन से साम्प्रदायिकता और फ़िरकापरस्तों पर तंज़ वार करने वाले, राही मासूम रज़ा का जुदा अंदाज़ इस नज़्म की चंद लाइनें पढ़कर सहज ही लगाया जा सकता है. गाज़ीपुर के छोटे से गांव गंगोली में जन्मे राही को मुकद्दस दरिया गंगा और हिन्दुस्तानी तहज़ीब से बेपनाह मुहब्बत करने का सबक, उस आबो-हवा में मिला जिसमें उनको तालीम-ओ-तर्बीयत मिली.

फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुलंदियों को छू लेने के बावजूद, गंगा और गंगोली गांव से राही का यह जज़्बाती लगाव आखिर तक कायम रहा. राही मासूम रज़ा के अदबी सफ़र का आगाज़ शायरी से हुआ. मासूम रज़ा उनका असली नाम और ‘राही’ तख़ल्लुस है, जो आगे चलकर उनके नाम के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया.

साल 1966 तक आते-आते उनके सात ग़ज़ल-नज़्म संग्रह शाया हो चुके थे. ‘नया साल’, ‘मौज़े गुल मौज़े सबा’, ‘रक्से मय’, ‘अजनबी शहर अजनबी रास्ते’ आदि उनके ख़ास काव्य संग्रहों में शुमार किये जाते हैं. यही नहीं 1857 स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर साल 1957 में लिखा गया उनका एपिक ‘अठारह सौ सत्तावन’ उर्दू और हिन्दी दोनों ही ज़बानों में प्रकाशित हो, बेहद मकबूल हुआ. राही मासूम रज़ा की आवाज़ में जादू था और तिस पर तरन्नुम भी लाज़वाब. जब मुशायरे में नज़्म पढ़ते, तो एक समां सा बंध जाता.

बचपन में ‘तिलस्मे-होशरूबा’ के किस्सों से मुतासिर राही के गद्य लेखन का सिलसिला अलीगढ़ से एक बार जो शुरू हुआ, तो उसे उन्होंने हमेशा के लिए अपना लिया. पढ़ाई के दौरान ही वे अपनी रचनात्मकता और खाली वक्त का इस्तेमाल गद्य लेखन में करने लगे थे.

उस वक्त इलाहाबाद के मशहूर पब्लिशर अब्बास हुसैनी उर्दू में ‘निकहत’ नाम का महाना और ‘जासूसी दुनिया’, ‘रूमानी दुनिया’ जैसे रिसाले निकालते थे, जो आम-ओ-खास दोनों में ही मशहूर थे. राही, शाहिद अख़्तर के अलावा अलग-अलग नामों से इन रिसालों में लिखते थे और यहीं से उन्हें पाबन्दी से लिखने की आदत पड़ी. पाबंदी से लिखने की इस आदत का ही सबब था कि वे एक ही समय फिल्मों में पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक, अखबारों में नियमित कॉलम और नज़्म, ग़ज़ल, उपन्यास साथ-साथ लिख लिया करते थे.

हिन्दी अदबी हल्के में राही मासूम रज़ा का आगाज़ साल 1966 में उपन्यास ‘आधा गांव’ के ज़रिये हुआ. शुरुआत में ‘आधा गांव’ का स्वागत बड़े ठंडे स्वरों में हुआ. जैसा कि स्वयंसिद्ध है, ‘‘अच्छी रचना का ताप धीरे-धीरे महसूस होता है.’’ ‘आधा गांव’ की ख्याति और चर्चा हिन्दी-उर्दू दोनों ही ज़बानों में एक साथ हुई.

साल 1972 में डॉ. नामवर सिंह की अनुशंसा पर जोधपुर विश्वविद्यालय में एमए हिंदी के पाठ्यक्रम में उपन्यास ‘आधा गांव’ लगाने का फ़ैसला हुआ. उपन्यास लगते ही बवाल मच गया. नैतिकतावादियों, प्रतिक्रियावादियों ने एक सुर में डॉ. राही मासूम रज़ा और उनके इस उपन्यास की जमकर आलोचना की.

उपन्यास पर अश्लील और साम्प्रदायिक होने के इल्जाम लगे. इन आरोपों, आलोचनाओं से राही बिल्कुल नही डिगे, बल्कि फ़िरकापरस्त ताकतों से लड़ने का उनका इरादा और भी ज़्यादा मजबूत हो गया. जो आगे भी उनकी रचनाओं में बार-बार झलकता रहा.

अख़बारों में लिखे गये उनके कॉलम बेहद तीखे और सख़्त होते थे. जिसमें न ही वे किसी की परवाह करते थे और न ही किसी को बख़्शते थे. अपने एक लेख ‘भारतीय समाज किसी मज़हब की जागीर नहीं है !’ में वे लिखते हैं,‘‘सेक्यूलरिज्म कोई चिड़िया नहीं है कि कोई बहेलिया कंपे में लासा लगाके उसे फ़ंसा लेगा. सेक्यूलरिज्म सोचने का ढंग है, ज़ीने का तरीका है ! और जब तक देश के आर्थिक और राजनीतिक ढांचे में बुनियादी परिवर्तन नहीं करेंगे, तब तक साम्प्रदायिकता का भूत यूं ही हमारी बेज़ुबान और बेबस सड़कों पर नाचता रहेगा.’’

मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद और बंटवारे की आग में हिन्दुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिन्दुस्तान हिज़रत करते लाखों लोग राही ने अपनी आंखों से देखे थे, उनके रंजो-गम में वे ख़ुद शामिल रहे थे. लिहाजा साम्प्रदायिकता के घिनौने चेहरे से वे अच्छी तरह से वाकिफ़ थे. यही वजह है कि साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा की संकीर्णता पर उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए लगातार प्रहार किये.

राही का कहना था, ‘‘धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष सम्बंध नहीं है. पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी, वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा.’’

उन्होंने उपन्यास ‘आधा गांव’ में इस बात की ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक, एक नहीं रहेगा. बहरहाल भाषायी आधार पर साल 1971 में पाकिस्तान टूटा और बांग्लादेश बना. उनकी बात जस का तस सच साबित हुई. उपन्यास ‘आधा गांव’ विभाजन के पहले शिया मुसलमानों के दुख-दर्द और पाकिस्तान के वजूद को पूरी तरह नकारता है. ‘‘पाकिस्तान क्या है ? कौनो मस्ज़िद बस्ज़िद बाय का ?’’ आधा गांव में अपने किरदार के मार्फ़त बुलवाया गया, उनका यह संवाद हिंदुस्तान के दूरदराज के गांव में बसने वाली अवाम का भोला-भाला चेहरा दिखलाता है, जो ऊपरी सतह पर चलने वाली सियासत और जंग से पूरी तरह अंज़ान है और जिसके लिए अपनी जन्म-कर्मभूमि ही उसका मुल्क है.

गांव में बिना किसी विद्वेष, दुश्मनी के सदियों से संग रहने वाले बाशिंदों के दिलों के आपसी तआल्लुक, हुकूमतों द्वारा खींच दी गई सरहदों के बावजूद आज भी अटूट हैं.

‘टोपी शुक्ला’, ‘हिम्मत जौनपुरी’, ‘ओस की बूंद’, ‘दिल एक सादा कागज’, ‘सीन 75’, ‘कटरा बी आर्जू’, ‘असंतोष के दिन’ ‘नीम का पेड़’ आदि राही मासूम रज़ा के प्रमुख उपन्यास हैं. जिनमें ‘टोपी शुक्ला’ और ‘कटरा बी आर्जू’ अपने विषय, कथावस्तु, भाषा-शैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं.

साल 1969 में लिखे उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ में जहां राही अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के अन्दर चलने वाली वाम राजनीति और अन्य से अपने अन्तः सम्बन्धों की पड़ताल करते हैं, तो वहीं आपातकाल के बाद लिखा गया उनका उपन्यास ‘कटरा बी आर्जू’, आपातकाल की भयावहता पर आधारित है. राही ने उपन्यास और उस दौर में लिखे अपने नियमित कॉलम में जो ‘नवभारत टाइम्स’, ‘रविवार’ वगैरह में छपते थे, आपातकाल की ख़ुलकर मुखालिफ़त की.

राही साल 1967 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक रहे. पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों से तंग आकर, उन्होंने अलीगढ़ छोड़ा. अलीगढ़ से वे जब मुम्बई पहुंचे, तो वहां आर.चन्द्रा और एक्टर भारत भूषण ने उनकी काफी मदद की.

राही के दोस्त कृश्न चन्दर, साहिर लुधियानवी, राजिंदर सिंह बेदी और कैफी आज़मी ने उन्हें फिल्मों में संवाद और स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी. बहरहाल फिल्मों में उन्होंने जो एक बार रुख किया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. फिल्में उनकी रोजी-रोटी का ज़रिया थीं, तो साहित्यिक-रचनात्मक लेखन से उन्हें दिली ख़ुशी मिलती थी.

राही मासूम रज़ा ने अपने ढाई दशक के फिल्मी जीवन में तकरीबन 300 फिल्मों की पटकथा, संवाद लिखे. जिनमें उनकी कुछ कामयाब फिल्में हैं-‘बैराग’, ‘जुदाई’, ‘सगीना’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘अंधा कानून’, ‘सरगम’, ‘जूली’, ‘मिली’, ‘क़र्ज़’, ‘गोलमाल’, ‘हम पांच’, ‘तवायफ़’, ‘निकाह’. उन्हें संवाद और पटकथा के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला. हिंदी फिल्मों में अपने लेखन से वे किसी मुगालते में नहीं थे.

बड़े ही साफ़गोई से उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था,‘‘फिल्म में लेखन की कोई अहम भूमिका नहीं होती. फिर भी मैं अपनी बात कहने के लिए, फिल्म का कुछ हाशिया लेता हूं.’’

मुल्क के आम आदमियों में राही मासूम रज़ा की पहचान, दूरदर्शन के प्रसिद्ध धारावाहिक ‘महाभारत’ में लिखे गये उनके संवाद और पटकथा से हुई. सीरियल के डायलॉग ने उन्हें घर-घर में मशहूर कर दिया. महाभारत की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था.

इस धारावाहिक को लिखने के लिए उन्होंने काफी मेहनत कर तथ्य इकट्ठा किए थे. जिस ‘महाभारत’ ने राही मासूम रज़ा को देश-दुनिया में इतनी शोहरत दी, इस सीरियल की स्क्रिप्ट राईटिंग और डायलॉग लिखने के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है.

जब इस सीरियल को बनाने का ख्याल आया, तो डायरेक्टर बीआर चोपड़ा ने अपने पसंदीदा स्क्रिप्ट राईटर के सामने इसकी स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखने का प्रस्ताव रखा. राही मासूम रज़ा, उस वक्त फिल्मों में बहुत मशरूफ़ थे. लिहाज़ा उन्होंने यह पेशकश ठुकरा दी. बावजूद इसके बीआर चोपड़ा ने मीडिया में यह ज़ाहिर कर दिया कि सीरियल की स्क्रिप्ट और डायलॉग राही मासूम रज़ा लिखेंगे. मीडिया में जब यह बात आई, तो हंगामा मच गया. सीरियल के लिए चोपड़ा ने एक ‘मुस्लिम’ राही का चुनाव क्यों किया?

इस बात के ख़िलाफ़ उनके पास बहुत सारे ख़त आए. चोपड़ा ने यह ख़त राही के पास भेज दिए. इनको पढ़ने के बाद, राही ने बी. आर. चोपड़ा को तुरंत फोन लगाकर, अपने इस फ़ैसले की जानकारी दी,‘‘चोपड़ा साहब, ‘महाभारत’ अब मैं ही लिखूंगा. मैं गंगा का बेटा हूं, मुझसे ज्यादा हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है ?’’ इतिहास गवाह है, ‘महाभारत’ सीरियल जितना कामयाब हुआ, उसकी कामयाबी के पीछे स्क्रिप्ट और डायलॉग का भी बड़ा रोल था.