बेगम अख़्तरः दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] • 2 Years ago
बेगम अख़्तर (फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया)
बेगम अख़्तर (फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया)

 

आवाज विशेष । बेखम अख़्तर का जन्मदिन    

-ज़ाहिद ख़ान

ग़ज़ल गायकी और बेगम अख़्तर एक—दूसरे के पर्याय हैं. एक दौर में जब महिलाएं साहित्य, संगीत और कला हर क्षेत्र में कम दिखलाई देती थीं, तब बेगम अख़्तर देश की उन चुनिंदा गायिकाओं सिद्धेश्वरी देवी, गौहरजान कर्नाटकी, गंगूबाई हंगल, अंजनीबाई मालपकर में से एक थीं, जिन्होंने सार्वजनिक कॉन्सर्ट दिए. और भारतीय समाज को बतलाया कि महिलाएं भी भारतीय शास्त्रीय संगीत, उप-शास्त्रीय संगीत के गायन में किसी से कम नहीं. इस बात में कोई दो राय नहीं कि बेगम अख़्तर ने अपने गायन से हिंदुस्तानी उप-शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाया. उसे आम जन तक पहुंचाया. ग़ज़ल के अलावा बेगम अख़्तर ने भारतीय उप शास्त्रीय गायन की सभी विधाओं मसलन ठुमरी, दादरा, कहरवा, ख्याल, चैती, कजरी, बारामासा, सादरा वगैरह में भी उसी महारथ के साथ गाया.  बेगम अख़्तर ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायकी का लोहा मनवाया.

अवध की राजधानी रही फ़ैज़ाबाद के भदरसा कस्बे में एक तवायफ़ मुश्तरीबाई के यहां जन्मी अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी उर्फ बिब्बी जब सिर्फ़ सात साल की थीं, तब उनकी मां ने उन्हें मौसिकी की तालीम देना शुरू कर दी थी. उस्ताद इमदाद खां, उस्ताद अब्दुल वहीद खां (किराना), उस्ताद रमज़ान खां, उस्ताद बरकत अली खां (पटियाला), उस्ताद गुलाम मोहम्मद खां (गया) और अता मोहम्मद खां (पटियाला) की शागिर्दी में बेगम अख़्तर ने संगीत और गायकी का ककहरा सीखा. महज तेरह साल की बाली उम्र में उन्होंने अपनी पहली पब्लिक परफार्मेंस दी. इसी उम्र में उनका पहला रिकॉर्ड, मेगाफोन रिकॉर्ड कंपनी से आया. साल 1930 में वे पारसी थियेटर से जुड़ गईं. कॉरिंथियन थियेटर कंपनी के लिए उन्होंने आगा मुंशी दिल लिखित, निर्देशित  कुछ नाटक ‘नई दुल्हन’, ‘रंगमहल’ ‘लैला मजनूं’, ‘हमारी भूल’ में अभिनय और गायन किया. बेगम अख़्तर ने कुछ साल फ़िल्मों में काम किया.

‘एक दिन का बादशाह’ ‘नल दमयंती’ (साल-1933),  ‘रूपकुमारी’ (साल-1934), ‘नसीब का चक्कर’ (साल-1935), ‘अनार बाला’ (साल-1940), ‘रोटी’ (साल-1942), ‘दानापानी’ (साल 1953), ‘एहसान’ (साल 1954) वे फ़िल्में हैं, जिनमें बेगम अख़्तर ने अदाकारी की. निर्देशक महबूब की फिल्म ‘रोटी’ में उन्होंने अदाकारी के साथ-साथ गाने भी गाए थे. बेगम अख़्तर ने फ़िल्में ज़रूर कीं, लेकिन उन्हें फ़िल्मी दुनिया ज़्यादा रास न आई. बाद में उन्होंने फ़िल्मों से हमेशा के लिए दूरी बना ली.

साल 1945 में लखनऊ के एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी, जिनका काकोरी के नवाब ख़ानदान से ताल्लुक था, के साथ उनका निकाह हुआ और अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी से वे बेगम अख़्तर बन गईं. अपने ख़ाविंद से उनका क़रार था, शादी के बाद वे गायकी छोड़ देंगी. बेगम अख़्तर ने इस कौल को पांच साल तक निभाया भी. लेकिन इसका असर उनकी सेहत पर पड़ा. वे बीमार रहने लगीं. ग़म-उदासी और डिप्रेशन उन पर हावी होने लगा. इश्तियाक अहमद अब्बासी से बेगम अख़्तर की यह हालत देखी नहीं गई, वे उन्हें लेकर डॉक्टर और हकीमों की तरफ दौड़े. डॉक्टर, उनका मर्ज़ फौरन पहचान गए. डॉक्टरों ने इस बीमारी का इलाज गाना बतलाया. खैर, उनके पति ने उन्हें आकाशवाणी में गाने की इजाज़त दे दी. साल 1949 में उन्होंने फ़िर गाना शुरू कर दिया. उनकी वापसी पहले से ज़्यादा शानदार रही. ऑल इंडिया रेडियो, आकाशवाणी और दूरदर्शन के अलावा वे निजी महफ़िलों में भी ग़ज़ल गायकी और उप-शास्त्रीय गायन के लिए जाने लगीं.

बेगम अख़्तर की ग़ज़ल के जानिब बड़ी दीवानगी थी. बेगम अख़्तर ने कई अज़ीम ग़ज़लकारों मिर्जा ग़ालिब, ज़ौक़, मिर्जा रफ़ी सौदा, मोमिन, मीर तकी मीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, कैफ़ी आज़मी, जां निसार अख़्तर, जिगर मुरादाबादी की रूमानी और दर्द भरी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी. ‘दिल की बात कही नहीं जाती (मीर तकी मीर), ‘वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद...’ (मोमिन खान ‘मोमिन’), ‘जिक्र उस परीवश का और फ़िर....’(मिर्जा ग़ालिब), ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, ‘मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा..’, (शकील बदायुनी),  ‘आये कुछ अब्र कुछ शराब आए...’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़), ‘कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन, लाख बलाएं...(जिगर मुरादाबादी), ‘इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े..’ (कैफ़ी आज़मी), ‘कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया’ (सुदर्शन फ़ाकिर), ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..’ (बहजाद लख़नवी) बेगम अख़्तर द्वारा गायी, वे ग़ज़लें हैं, जो उन्हीं के नाम और गायन से जानी जाती हैं. जिसमें भी उनकी ये ग़ज़ल ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, उस ज़माने में नेशनल ऐन्थम की तरह मशहूर हुई. वे जहां जातीं, सामयीन उनसे इस ग़ज़ल की फ़रमाइश ज़रूर करते. इस ग़ज़ल के बिना उनकी कोई भी महफ़िल अधूरी रहती. ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..’ भी बेगम अख़्तर की सिग्नेचर ग़ज़ल है.

बेगम अख़्तर की आवाज़ में पुरबिया, अवधी और भोजपुरी बोलियों की मिठास थी. उन्होंने ग़ज़ल के अलावा लोक संगीत को भी अपनी आवाज़ दी. उनकी गायी हुई ठुमरी, दादरा, कजरी और चैती का भी कोई जवाब नहीं. उन्होंने शास्त्रीय बन्दिशें भी ग़ज़ब की गाई हैं. मिसाल के तौर पर उनकी कुछ उप शास्त्रीय बंदिशें जो उस समय ख़ूब मशहूर हुईं, वे इस तरह से हैं-‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया..’, ‘कोयलिया मत कर पुकार करेजवा लागे..’, ‘लागी बेरिया पिया के आवन की’, ‘ज़रा धीरे-से बोलो कोई सुन लेगा’, ‘पपीहा धीरे-धीरे बोल’, ‘जब से श्याम सिधारे..’. बेगम अख़्तर ज़्यादातर ख़ुद ही अपनी ग़ज़लों और तमाम उप शास्त्रीय गायन की धुन तैयार करती थीं. यही नहीं गायन में वे कहन को ज़रूरी मानती थीं. उनका मानना था, जो भी गाओ खुलकर गाओ. बेगम अख़्तर की शख़्सियत और गायन में ग़ज़ब का जादू था.

एक ज़माने में उनकी गायकी पर लाख़ों लोग फ़िदा थे. आज भी बेगम अख़्तर के गायन के जानिब उनकी चाहतें कम नहीं हुई हैं. उन्होंने जिस तरह से अपनी ग़ज़लों में शायरों के जज़्बात, एहसास और उदासी को बयां किया, वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया. अपने एक इंटरव्यू में बेगम अख़्तर ने कहा था, ‘तासीर रचने के लिए सुर की सच्चाई सबसे ज़रूरी है.’’ यही नहीं उनका कहना था, ‘‘आवाज़ के साथ उसमें दर्द ज़रूरी है. यही दर्द, आवाज़ में रस पैदा करता है.’’ बेगम अख़्तर, अपनी ज़िंदगी में कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ी गईं. साल 1968 में उन्हें पद्म श्री, साल 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तो साल 1973 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला. उनके मरणोपरांत साल 1975 में भारत सरकार ने उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मानों से एक ‘पद्म भूषण’ से नवाज़ा. उनके ऊपर एक डाक टिकट भी निकला है. यही नहीं बेगम अख़्तर के ऊपर कई फिल्म और डॉक्यूमेंट्री भी बनी हैं. लेकिन इन सम्मानों और पुरस्कारों से सबसे बड़ा पुरस्कार है, देश-दुनिया के लाख़ों लोगों का प्यार. जो आज भी उनकी गायिकी के जानिब कम नहीं हुआ है.