मौलाना हसरत मोहानीः दरवेशी ओ इन्क़िलाब है मसलक मेरा

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 14-10-2021
बी.आर. आंबेडकर के साथ मौलाना हसरत मोहानी
बी.आर. आंबेडकर के साथ मौलाना हसरत मोहानी

 

आवाज विशेष । मौलाना हसरत मोहानी

ज़ाहिद ख़ान

जंग-ए-आज़ादी में सबसे अव्वल ‘इन्क़लाब ज़िंदाबाद’ का जोशीला नारा बुलंद करना और हिंदुस्तान की मुकम्मल आज़ादी की मांग, महज़ ये दो बातें ही मौलाना हसरत मोहानी की बावकार हस्ती को बयां करने के लिए काफ़ी हैं. वरना उनकी शख़्सियत से जुड़े ऐसे अनेक किस्से और हैरतअंगेज़ कारनामे हैं, जो उन्हें जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदोस्तां में उन्हें अज़ीम बनाते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, ‘‘मुसलमान समाज के तीन रत्न हैं और मुझे लगता है कि इन तीनों में मोहानी साहब सबसे महान हैं.’’ वे एक ही वक्त में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सहाफ़ी, एडिटर, शायर, कांग्रेसी, मुस्लिमलीगी, कम्युनिस्ट थे. 14 अक्टूबर, 1878 को उन्नाव (उत्तर प्रदेश) के मोहान कस्बे में एक जागीरदार परिवार में जन्मे मौलाना हसरत मोहानी का हक़ीक़ी नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन था. मोहान कस्बे में पैदा होने की वजह से उनके नाम के पीछे मोहानी लग गया और बाद में ’हसरत मोहानी’ के नाम से ही मशहूर हो गए. उन्नाव की डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का उनके दिलो दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि वे छात्र जीवन से ही आज़ादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे.

  आला तालीम के लिए जब मौलाना हसरत मोहानी का दाख़िला अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुआ, तो एक नई ज़िंदगी उनका इंतज़ार कर रही थी. एक तरफ वतनपरस्तों की टोली थी, दूसरा ग्रुप ख़ुदी में मसरूफ़ था, देश-दुनिया के मसलों से उनका कोई साबका नहीं था. मोहानी अपनी फ़ितरत के मुताबिक वतनपरस्तों के ग्रुप में शामिल हो गए. सज्जाद हैदर यल्दरम, क़ाज़ी तलम्मुज़ हुसैन और अबु मुहम्मद जैसी बेमिसाल शख़्सियत उनके दोस्तों में शामिल थीं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उस वक्त आज़ादी के हीरो के तौर पर उभरे मौलाना अली जौहर और मौलाना शौकत अली से भी उनका वास्ता रहा. मौलाना हसरत मोहानी, पढ़ाई के साथ-साथ आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लेने लगे. जहां भी कोई आंदोलन होता, वे उसमें पेश-पेश रहते. अपनी इंक़लाबी विचारधारा और आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से कई बार वे कॉलेज से निष्कासित हुए, लेकिन आज़ादी के जानिब उनका जुनून और दीवानगी कम नहीं हुई. पढ़ाई पूरी करने के बाद, वे नौकरी चुनकर एक अच्छी ज़िंदगी बसर कर सकते थे, मगर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना. पत्रकारिता और क़लम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से ही एक सियासी-अदबी रिसाला ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला. जिसमें अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी. इस रिसाले में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी पसंदों के लेखों, इंक़लाबी शायरों की क्रांतिकारी ग़ज़लों-नज़्मों को तरजीह दी, जिसकी वजह से वे अंग्रेज सरकार की आंखों में ख़टकने लगे. साल 1907 में अपने एक मज़मून में मौलाना हसरत मोहानी ने सरकार की तीखी आलोचना कर दी. जिसके एवज में उन्हें जेल जाना पड़ा और सज़ा, दो साल क़ैद बामशक़्क़त ! जिसमें उनसे रोज़ाना एक मन गेहूँ पिसवाया जाता था. क़ैद के हालात में ही उन्होंने अपना यह मशहूर शे’र कहा था, ‘‘है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक़्क़त भी/इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी.’’

मौलाना हसरत मोहानी ने इस दरमियान साल 1904 के आसपास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मेंबरशिप ले ली. अब वे कांग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. वैचारिक स्तर पर वे कांग्रेस के ‘गर्म दल’ के ज़्यादा करीब थे. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से उनका लगाव था. कांग्रेस के ‘नर्म दल’ के लीडरों की पॉलिसियों से वे मुतमईन नहीं थे. वक्त पड़ने पर वे इन नीतियों की कांग्रेस के मंच और अपनी पत्रिका ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ में सख़्त नुक्ताचीनी भी करते. साल 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस से जुदा हुए, तो वे भी उनके साथ अलग हो गए. यह बात अलग है कि बाद में वे फिर कांग्रेस के साथ हो लिए. साल 1921 में मौलाना हसरत मोहानी ने ना सिर्फ ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ नारा दिया, बल्कि अहमदाबाद में हुए कांग्रेस सम्मलेन में ’आज़ादी ए कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा. कांग्रेस की उस ऐतिहासिक बैठक में क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला खां के साथ-साथ कई और क्रांतिकारी भी मौजूद थे. महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया. बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आख़िकार यह प्रस्ताव, साल 1929 में पारित भी हुआ. भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर मौलाना हसरत मोहानी के नारे ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में मक़बूल हो गया. एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की ज़बान पर यह नारा था. अपनी क्रांतिकारी और साहसिक सरगर्मियों के लिए मौलाना हसरत मोहानी दो बार साल 1914 और 1922 में भी ज़ेल गए. लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया. वे जेल से वापिस आते और फिर उसी जोश और जज़्बे से अपने काम में लग जाते. अंग्रेज हुकूमत का कोई जोर-जुल्म उन पर असर नहीं डाल पाता था.

साल 1925 में मौलाना हसरत मोहानी का झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ़ हो गया. यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पहले सम्मेलन की नींव उन्होंने ही रखी. साल 1926 में कानपुर में हुई पहली कम्युनिस्ट कॉफ्रेंस में मौलाना हसरत मोहानी ने ही स्वागत भाषण पढ़ा. जिसमें उन्होंने पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक काश्तकारों और मज़दूरों के कल्याण और भलाई पर ज़ोर दिया. हसरत मोहानी के नाम के आगे भले ही मौलाना लगा रहा, लेकिन उनका मसलक क्या था ? यह उन्होंने ख़ुद अपने एक मशहूर शे’र में बतलाया है,‘‘दरवेशी ओ इन्क़िलाब है मसलक मेरा/सूफ़ी मोमिन हूँ, इश्तराकी मुस्लिम.’’ बावजूद इसके मौलाना हसरत मोहानी के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास थे. एक तरफ वे मुल्क में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ की क़ायमगी में पेश-पेश रहे, तो दूसरी ओर ‘आल इंडिया मुस्लिम लीग’ और ‘जमीयत उलेमा ए हिंद’ के भी संस्थापक सदस्य रहे. ‘मुस्लिम लीग’ के द्विराष्ट्रीय सिद्धांत का विरोध किया. यहां तक कि पाकिस्तान बनने के विरोध में खड़े हो गए. मुल्क का जब बंटवारा हुआ, तो पाकिस्तान जाने से साफ़ मना कर दिया. पांचों वक्त के नमाजी और परहेज़गार थे, मगर भगवान कृष्ण के भी मुरीद थे. कृष्ण की तारीफ़ में उन्होंने अपनी नज़्म में लिख़ा,‘‘मथुरा कि नगर है आशिक़ी का/दम भरती है आरज़ू इसी का/पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था/हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का/वो नूर-ए-सियाह या कि हसरत/सर-चश्मा फ़रोग़-ए-आगही का.’’ मौलाना हसरत मोहानी, क़ौमी एकता के सच्चे सिपाही थे. उन्होंने हमेशा अपने अदब और मज़ामीन में हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद की बात की.

मौलाना हसरत मोहानी को बचपन से ही शायरी का शौक था. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में तालीम के दौरान ही वे ‘शे’र-ओ-सुख़न’ की महफ़िलों में हिस्सा लेने लगे थे. स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी और पत्रकारिता की वजह से अदब के लिए उन्हें बेहद कम समय मिलता था. लेकिन जो भी वक्त मिलता, वे अदब की तख़्लीक करते. मौलाना हसरत मोहानी, फ़ारसी और अरबी ज़बान के बड़े विद्वान थे. हसरत मोहानी के कलाम में अपना ही एक रंग है, जो सबसे जुदा है. हुस्न-ओ-इश्क में डूबी उनकी ग़ज़़लें, हमें एक अलग हसरत मोहानी से तआरुफ़ कराती हैं. मिसाल के तौर पर उनकी ग़ज़लों के कुछ अश्आर देखिए, ‘‘न सूरत कहीं शादमानी की देखी/बहुत सैर दुनिया-ए-फ़ानी की देखी.’’, ‘‘क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके/उन से हम आँख भी मिला न सके.’’, ‘‘दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया/साग़र को रंग-ए-बादा ने पुर-नूर कर दिया.’’ मौलाना हसरत मोहानी की ऐसी और भी कई ग़ज़लें हैं, जो आज भी बेहद मक़बूल हैं. खास तौर पर ग़ज़ल,‘‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है’’ तो जैसे उनकी पहचान है. 

मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी ज़िंदगानी में 13 दीवान संकलित किए और हर दीवान पर ख़ुद ही प्रस्तावना लिखी. उनके अशआर की तादाद भी तक़रीबन सात हज़ार है. जिनमें से आधे से ज़्यादा उन्होंने ज़ेल की क़ैद में लिखे हैं. उनकी लिखी कुछ ख़ास किताबें ’कुलियात-ए-हसरत’, ’शरहे कलामे ग़ालिब’, ’नुकाते सुख़न’, ’मसुशाहदाते ज़िन्दां’ हैं. वहीं ’कुल्लियात-ए-हसरत’ में उनकी ग़ज़ल, नज़्म, मसनवी आदि सभी रचनाएं शामिल हैं. मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी के बाद भी लगातार मुल्क की ख़िदमत करते रहे. संविधान बनाने वाली कमेटी में मौलाना हसरत मोहानी शामिल थे. संविधान सभा के मेंबर और संसद सदस्य रहते, उन्होंने कभी वीआईपी सहूलियतें नहीं लीं. यहां तक कि वे संसद से तनख़्वाह या कोई भी सरकारी सहूलियत नहीं लेते थे. सादगी इस कदर कि ट्रेन के थर्ड क्लास और शहर के अंदर तांगे पर सफ़र करते थे. छोटा सा मकान उनका आशियाना था. दिल्ली में जब भी संविधान सभा की बैठक में आते, तो एक मस्ज़िद में उनका क़याम होता. मौलाना हसरत मोहानी की ज़िंदगानी से जुड़ा यह एक ऐसा वाकिया है, जो उनके उसूलपसंद होने को दर्शाता है. मौलाना हसरत मोहानी, संविधान सभा के एक अदद ऐसे मेम्बर थे, जिन्होंने संविधान पर अपने दस्तख़त इसलिए नहीं किये, क्योंकि उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मज़दूरों और किसानों की हुक़ूमत आने का कोई ठोस सबूत नहीं है. 13 मई, 1951 को मुल्क के इस जांबाज सिपाही, आज़ादी के मतवाले मौलाना हसरत मोहानी ने दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.