अफगानिस्ताननामा 33
हरजिंदर
महमूद शाह दुर्रानी के पास 1809 में जब काबुल की सत्ता दूसरी बार आई तो उसने विस्तार की बात सोची. वह एक बार फिर अपने दादा की तरह अपनी सत्ता को पूरे अफगानिस्तान में फैलाना चाहता था.
उसने अपने सबसे जांबाज सिपहसालार वजीर फतेह खान बरक्जई को हेरात पर हमला बोलने का आदेश दिया। फतेह खान ने हेरात को आसानी से जीत लिया.
महमूद शाह ने हेरात की सत्ता अपने बेटे शहजादा कामरान के हवाले कर दी. उसे लगा कि कामरान शासन के कामकाज में ज्यादा अनुभवी नहीं है इसलिए उसकी मदद के लिए उसके साथ वजीर फतेह खान को लगा दिया. जिससे यह धारणा बन गई कि शहजादे के नाम पर वजीर फतेह खान ही सत्ता चला रहा है.
शाहजादे को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने अपने रास्ते के इस रोड़े को खत्म करने की ठानी. इसके बाद 1818 में उसने फतेह खान की हत्या कर दी. लेकिन तब तक वजीर फतेह खान ऐसी फौज तैयार कर चुका था जो उनके नाम पर कुछ भी करने को तैयार रहती थी.
वजीर की हत्या के बाद ये सैनिक उबल पड़े और हेरात ही नहीं पूरे अफगानिस्तान में गृहयुद्ध शुरू हो गया. इस गृहयुद्ध में विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे वजीर कर्जई के बेटे जिन्हें बरक्जई बंधुओं के नाम से भी जाना जाता है.
उस समय तक महाराजा रणजीत सिंह अटक पर काबिज हो चुके थे. एक तरह से यह भारत की सीमा थी जिसके आगे अफगानिस्तान शुरू हो जाता था.
महाराजा ने जब अटक को जीता तो उन्होंने अटक का किला जादाद खान के हवाले करके उसे वहां की सूबेदारी सौंप दी थी. अफगानिस्तान गृहयुद्ध में उलझा तो महाराजा और जहांदाद खान दोनों को ही लगा कि यह एक अच्छा मौका है.
1819 की सर्दियां शुरू होते ही उनकी फौज पेशावर की ओर बढ़ गई. अपनी समस्याओं में फंसे काबुल को इसकी खबर भी नहीं लगी. थोड़ी बहुत लड़ाई के बाद ही पेशावर काफी आसानी से जीत लिया गया.
पेशावर के सूबेदार यार मोहम्मद अपनी तोपें और ढेर सारा जंगी जखीरा छोड़कर भाग निकले.यही वह मौका था जब महाराज रणजीत ंिसंह की सवारी पेशावर की सड़कों पर निकली. महाराज ने जहां दाद खान को ही पेशावर का सूबेदार बनाना बेहतर समझा.
कहा जाता है इसी के साथ ही उन्हें यह निर्देश भी दिया गया कि आम लोगों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. इसके तुरंत बाद महाराजा लाहौर लौट गए.
महाराज के लौटते ही बरक्जई बंधुओं में सबसे बड़े दोस्त मुहम्मद ने हमला बोला और जहांदाद खान को मार भगाया. लेकिन दोस्त मुहम्मद यह भी जानते थे कि अगर पजांब की सेना फिर लौटी तो पेशावर बचाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.
डर यह भी था कि अगर इस बार हमला हुआ तो यह फौज पेशावर से आगे काबुल की ओर भी बढ़ सकती है. इससे बचने का एक ही तरीका था कि महाराजा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया जाए.
दोस्त मुहम्मद ने लाहौर दरबार को यह संदेश भेजा कि वे हर साल एक लाख रुपये की मालगुजारी देने के लिए भी तैयार हैं और पेशावर पर महाराजा की सर्व सत्ता को स्वीकार भी करेंगे. दरबार ने उनकी यह पेशकश स्वीकार कर ली.
इन घटनाओं का नतीजा यह हुआ कि अभी तक पंजाब की जो सरहद अटक तक थी वह पेशावर तक पहुंच गई और पेशावर अफगानिस्तान के हाथ से निकल गया. एक ऐसी नई सरहद बन गई जिसके इस तरफ भी पश्तो बोलने वाले पख्तून थे और उस तरफ भी.
इसके बाद इस सरहद पर अगली मुहर लगी 1838 में जब एक त्रिपक्षीय संधि हुई. ब्रिटिश सरकार को लगा कि यह काबुल में हस्तक्षेप का सही मौका है, इसके लिए लुधियाना में रह रहे शाह शुजा को लाकर वहां का शाह बनाया गया और उसके बाद संधि की जमीन तैयार हो गई.
यह संधि महाराजा रणजीत सिंह के शासन वाले पंजाब, अफगानिस्तान और ब्रिटिश शासन के बीच हुई थी। इस पर दस्तखत करने वालों में थे महाराजा रणजीत सिंह, शाह शुजा और ब्रिटिश गवर्नर लार्ड आॅकलैंड.
इस संधि में कई शर्तें थी. जिनमें पहली यही थी शाह शुजा और उनके उत्तराधिकारी पेशावर वाले इलाके पर अपना दावा पेश नहीं करेंगे. इसके अलावा एक-दूसरे के क्षेत्र पर किसी भी तरह की डकैती और लूटपाट की वारदात को रोका जाएगा.
अफगानिस्तान से पेशावर के इलाके में प्रवेश के लिए महाराजा की सरकार का अधिकृत पासपोर्ट जरूरी होगा.इस संधि को पख्तूनों ने कभी स्वीकार नहीं किया और शाह शुजा को अंग्रेजों का एजेंट कहा जाने लगा.
उनके खिलाफ बगावत शुरू हो गई और अंग्रेजों ने जब इस बगावत को दबाने की कोशिश की तो अफगानिस्तान का इतिहास एक नए मोड़ पर पहंुच गया.
इसके बहुत बाद 1893 में जब मार्टीमर डूरंड ने नक्शे पर भारत और अफगानिस्तान की सीमा रेखा खींची तो उन्होंने उस सारे इलाके को भारत में रखा जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने जीता था और जो 1838 की संधि का आधार भी था.
इसी सीमा रेखा को डूरंड लाइन के नाम से जाना जाता है. अब डूरंड लाईन के एक तरफ पाकिस्तान है और दूसरी तरफ अफगानिस्तान.लेकिन अफगान लोगों और खासकर पख्तूनों ने डूरंड लाइन को कभी स्वीकार नहीं किया.
नोट: यह लेखक केअपने विचार हैं ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )