अफगानिस्ताननामा : अफगान सत्ता को महाराज की चुनौती

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 23-12-2021
अफगानिस्ताननामा
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अफगानिस्ताननामा 31

हरजिंदर

19 वीं सदी शुरू होते होते यूरोप ही नहीं हिंदुस्तान की तस्वीर भी काफी बदल चुकी थी.आपस में लड़ते अब्दाली वंश के वारिसों को शायद इस बदलाव का अंदाजा भी नहीं हो सका था.या फिर वे आपसी लड़ाई में इस कदर उलझे थे कि उनके पास हालात का आकलन करने की फुरसत ही नहीं थी.

एक एक करके के रियासतदार बगावत करके खुद को आजाद घोषित कर रहे थे.कश्मीर से लेकरे अटक तक का एक बड़ा हिस्सा अब्दाली वंश के हाथ से निकल चुका था.इस वंश के वारिस फिर से पूरे भारत पर कब्जा करने और वहां अपना शासन फैलाने की बातें तो जरूर करते थे लेकिन हालात उनके बस में नहीं थे.

 लाहौर पर महाराज रणजीत सिंह का कब्जा हो चुका था और उनकी फौज धीरे-धीरे आस-पास के सभी इलाकों की जीतती जा रही थी.जबकि सतलज नदी के उस पार ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पांव जमा लिए थे, कंपनी की सेना उस समय एशिया की एक बहुत बड़ी ताकत बनने जा रही थी.

इसी दौर में एक दूसरी घटना हुई जिसका प्रतीकात्मक महत्व काफी बड़ा था.शाह शुजा को जब दूसरी बार काबुल की सत्ता छोड़नी पड़ी तो वह जान बचाने के लिए अपने साजो-सामान के साथ भारत की ओर भागा.रणजीत सिंह की फौज ने जब उसे गिरफ्तार किया तो उसके पास दो अनमोल चीजें थीं.

 इनमें से एक तो था विश्व प्रसिद्ध कोहेनूर और एक दूसरा बेशकीमती हीर जिसका नाम था दरिया-ए-नूर. इनमें से कोहेनूर सबसे महत्वपूर्ण था.पिछली तकरीबन एक सदी में कोहेनूर ताकत का प्रतीक बन चुका था.यह एशिया के सबसे ताकतवर राजा की शोभा बढ़ाता था.कोहेनूर को अपने कब्जे में लेकर महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी ताकत का डंका पीट दिया था.

शाह शुजा की सारी संपत्ति छीनने के बाद महाराजा ने उन्हें लाहौर की मुबारक हवेली में कैद कर दिया.लेकिन शाह शुजा इस जेल में ज्यादा दिन तक रहे नहीं, पहला मौका मिलते ही वहंा से भाग निकले और लुधियाना पहंुच गए.

लुधियाना उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में था.ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें वहीं शरण दी और उनके नाम पेंशन भी बांध दी.कंपनी को उम्मीद थी की आगे चलकर शाह शुजा उनके लिए काम के हो सकते थे। और बाद में मौका पड़ने पर उनका इस्तेमाल भी किया गया.

लुधियाना सतलुज नदी के उस पार था. तब कर ईस्ट इंडिया कंपनी और महाराज के बीच समझौता हो चुका था कि इस नदी के उत्तर की ओर रणजीत सिंह का साम्राज्य रहेगा और नदी पार का इलाका ईस्ट इंडिया कंपनी का रहेगा.इस समझौते की वजह से महाराजा रणजीत सिंह के पास अपने राज का विस्तार का विकल्प उन इलाकों में ही रह गया था जो इसके पहले तक अब्दाली साम्राज्य का हिस्सा थे.

उनकी फौज ने सबसे पहला हमला कसूर पर किया और वहां अफगान सिपहसालार कुतुब उद्दीन को परास्त किया.इसके बाद उनका अगला निशाना मुल्तान था.साल 1818में मुल्तान पर कब्जे के बाद बड़ी दोआब का पूरा इलाका महाराजा की सल्तनत में शामिल हो चुका था और इसके साथ ही महाराजा की सेना अफगानिस्तान की सीमा पर पहंुच चुकी थी.

महाराजा का अगला निशान थी भारत की सबसे बड़ी अफगान रियासत- कश्मीर.कश्मीर पर हमले की जिम्मेदारी सौंपी गई डोगरा सिपहसालार जोरावर सिंह को.लेकिन जोरावर सिंह सिर्फ श्रीनगर पर कब्जे के साथ ही नहीं रुके। उन्होंने लद्दाख को भी कब्जे में ले लिया और गिलगिट, बल्टिस्तान, स्कार्दू को भी। अब इसके आगे तिब्बत था.

 जोरावर सिंह की सेना जिस तरह से आगे बढ़ रही थी उसे लेकर चीन केा चिंता हुई.इसके बाद चीनी सेना सक्रिय हुई.सीधे टक्कर लेने के बजाए चीन की सेना ने जोरावर सिंह को एक ऐसी घाटी में फंसा दिया जहां भारी हिमपात हो रहा था.

जोरावर सिंह इस घाटी में फंसे तो यहां से कभी नहीं निकल सके.लेकिन इस बीच महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य तिब्बत की सीमा तक पंहुच चुका था और इससे भी बड़ी बात यह हुई कि कश्मीर पर अफगानिस्तान का शासन हमेशा के लिए खत्म हो चुका था.हालांकि अफगानों ने कश्मीर पर कब्जे की एक बार फिर कोशिश की लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके.

महाराजा का अगला निशाना अब खुद अफगानिस्तान ही था.महाराजा की सेना अटक की तरफ से आगे बढ़ना चाहती थी.अटक और उसके आगे पेशावर तक उस समय अफगान सिपहसालार दोस्त मुहम्मद खान का शासन था, जो यह काम अब्दाली वंश के प्रतिनिधि के तौर पर कर रहे थे.

अटक पर हमले की जिम्मदारी दीवान मोहकम चंद को दी गई.मोहकम चंद की सेना ने दोस्त मुहम्मद को अटक से बाहर खदेड़ दिया.अटक पर कब्जा करने के बाद अटक की सूबेदारी जहांदाद खान को सौंप दी गई.

यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे ज्यादातर युद्धों में सेना का नेतृत्व खुद महाराजा रणजीत सिंह ने नहीं उनके सिपहसालारों ने किया था.दरअसल उन्हें यह श्रेय है कि उन्होंने उत्तर भारत को पहली पेशेवर सेना दी.एक ऐसी सेना जिसमें सैनिकों को एक तयशुदा वर्दी पहननी होती थी.सेना के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने कईं यूरोपीय प्रशिक्षक भी भर्ती किए थे.

यही सेना अब पेशावर पर हमले के लिए तैयार थी और अफगानिस्तान का नक्शा हमेशा के लिए बदल जाने वाला था.

नोट: यह लेखक केअपने विचार हैं ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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