अफगानिस्ताननामा भाग-3
हरजिंदर
आज के अफगानिस्तान में अभी यघबू कबीले का राज चल ही रहा था कि पश्चिमी तुर्क के खलज कबीले की सेनाओं ने वहां अपनी पकड़ बनानी शुरू की. इस साम्राज्य को तुर्क शाही का नाम दिया गया. तुर्कशाही ने जल्द ही काबुल, गंधार, कपीसा, बामियान जैसे इलाकों में अपनी पकड़ बना ली.
यह मध्य एशिया का आखिरी बौद्ध साम्राज्य था. तुर्कशाही के दौरान बौद्ध परंपराओं को नया विस्तार देने की कोशिश हुई.यह वही दौर था जब एक नए मजहब इस्लाम ने अपना विस्तार शुरू कर दिया था. जल्द ही यह आस-पास के कई देशों की तरह ही तुखरिस्तान की भी मुख्यधारा बनने जा रहा था.
सबसे पहले यह वहां पहुंचा रशीदुन खिलाफत के साथ. यह खिलाफत सउदी अरब से निकल कर लेवांत, ट्रांसकाकसस, मिस्र, ट्यूनीशिया और ईरान वगैरह को जीतती हुई यहां पहुंची. ईरान के ससियन साम्राज्य को तो इसने हमेशा के लिए खत्म कर दिया. हालांकि इस खिलाफत का मुख्य फोकस तुखरिस्तान के बजाय अन्य देशों में ज्यादा रहा, लेकिन पहली बार वहां इस्लाम इसी दौर में पहुंचा.
आगे बढ़ने से पहले हमें उस दौर के उन इलाकों को समझना होगा जिन्हें हम आज अफगानिस्तान के रूप में जानते हैं. उस समय इस इलाके में दो धर्म मुख्य रूप से थे- बौद्ध और पारसी. दोनों में से किस धर्म के लोग ज्यादा थे यह बताना थोड़ा मुश्किल है, पर वहां की सत्ता में इन्हीं दोनों में से कोई धर्म छाया रहता था.
अगर ईरान से आया कोई शासक इस सरजमीं को जीत लेता तो सत्ता परंपराओं पर पारसी धर्म छाया रहता. चीन से आए शासकों या स्थानीय कबीलों की जीत के साथ ही बौद्ध धर्म वहां प्रमुख हो जाता. मगर उस अफगानिस्तान के सतरंगी आसमान में सिर्फ यही दो रंग नहीं थे.
इसके अलावा बड़ी संख्या में हिंदू भी वहां रहता थे,जिनकी आबादी मुख्य रूप से काबुल, जलालाबाद और गंधार के आस-पास थी. हालांकि बाकी हिस्सों में भी उनका प्रसार था. हिंदू यहां कब आए.इसे स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता.
इस धरती पर हिंदुओं की मौजूदगी का सबसे पुराना सबूत हिंदूकुश पर्वत है. इब्ने बतूता का कहना है कि इस पर्वत का नाम हिंदुकुश इसलिए पड़ा,क्योंकि यहां बड़ी संख्या में हिंदू दास बनाकर लाए गए थे. यहां पड़ने वाली सर्दी के कारण उनमें से कोई भी जीवित नहीं बचा.
उन्होंने हिंदू कुश का अनुवाद किया है- हिंदुओं को मारने वाला. दूसरी तरफ कई आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि कुश दरअसल पारसी शब्द कुह से आया है,जिसका अर्थ होता है पर्वत. वे मानते हैं कि हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला वह जगह थी,जहां पहुंचकर हिंदुस्तान की सीमा खत्म हो जाती थी. यह भी कहा जाता है कि वे चंद्रगुप्त मौर्य के समय से काफी पहले ही यहां रह रहे थे. मौर्य साम्राज्य का विस्तार भी यहां तक पहुंचा था.
इसके अलावा नूरिस्तानी और पशाई जैसी बहुत सी धर्म परंपराएं भी थीं. कुछ लोग यह मानते हैं कि इन दोनों जनजातियों के लोग दरअसल,सिकंदर की फौज में शामिल थे. बाद में वे यहीं रह गए. उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली. यह बात एशिया की कई जनजातियों के बारे में कही जाती है. जैसे भारत में कुल्लू जिले के मलाणा गांव में रहने वाली जनजाति को भी सिंकदर से जोड़कर देखा जाता है.
पहले बात नूरिस्तानियों की. नूरिस्तानी नाम उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के बाद मिला. उसके पहले उनका नाम क्या था हम ठीक से नहीं जानते. कुछ लेखकों ने वहां के लोगों को काफिर और उनके इलाके को कुफरिस्तान कहा है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं कि वे खुद अपने लिए भी यही शब्द इस्तेमाल करते थे या नहीं.
ये लोग प्रकृति पूजक थे. उनकी बहुत सी परंपराएं वैदिक धर्म जैसी थी. विस्तृत परिभाषा में उन्हें हम हिंदू भी कह सकते हैं,लेकिन अपनी परंपराओं में वे मुख्यधारा के हिंदू धर्म के मुकाबले कलश जनजाति के ज्यादा करीब थे. पाकिस्तान में रहने वाली कलश जनजाति आज भी अपनी उन परंपराओं को बरकरार रखे हुए है जिन्हें वैदिक धर्म के नजदीक माना जाता है.
नूरिस्तानी जैसी स्थिति ही पशाई धर्म की भी थी. इसे भी वैदिक धर्म ही माना जाता है. बाद में पशाई लोगों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया. हालांकि,इस्लाम स्वीकारने के बावजूद इन लोगों ने अपनी जनजाति पहचान को बनाए रखा, जो आज भी वैसे ही है. फिर वहां विभिन्न आक्रमणकारियों के साथ आए कुछ ग्रीक धर्म को मानने वाले भी थे,लेकिन उनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी.
इन धर्मों के अलावा वहां एक और चीज थी जो अक्सर धर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण होती थी. वह थी कबीलाई संस्कृति.हर कबीले की अपनी एक संस्कृति थी. अपना एक गौरव बोध था. इन दोनों के लिए वे किसी भी हद तक जाने और मरने मारने पर उतारू हो सकते थे.
लेकिन जब हम कबीलाई संस्कृति की बात करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे आदिवासी जीवन जीने वाले लोग थे. वे उतने ही आधुनिक और समृद्ध थे जितने आस-पास के देशों के लोग. बस वे अपनी वंशानुगत पहचान और संस्कृति से काफी मजबूती से जुड़े हुए लोग थे.
हम ये देख भी चुके हैं कि इन्हीं में से कुछ कबीले जब अपनी फौजी ताकत को बढ़ाकर उठ खड़े होते थे तो वे बड़े-बड़े साम्राज्यों को मात देकर सत्ता पर काबिज हो जाते थे. यह भी कहा जाता है कि आज के अफगानिस्तान में भी कईं पुरानी कबीलाई प्रवृत्तियां जिंदा है.
रशीदुन खिलाफत के आते ही इस्लाम तुखरिस्तान के भीतर तक पहुंच गया. बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन का सिलसिला इसके साथ ही नहीं शुरू हुआ. इस काम में अभी तीन सदी से ज्यादा का समय और लगना था.
........जारी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )