शगुफ्ता नेमत
हर वर्ष 15 अगस्त आने पर हमारे रगों में ठंडा पड़ा खून फिर से जोश खाने लगता है.हम आजादी के दिवानो की दिवानगी की गाथा को दोहराने को मजबूर हो जाते हैं.मगर सच पूछा जाए तो वे दीवाने हमारी प्रशंसा के मोहताज नहीं. आज जो हम खुली हवाओं में सांस ले पा रहे हैं,यह उनकी ही कुर्बानियां का नतीजा है.
बात अलग है कि हमने अनेकता में एकता वाले अपने भारत देश की छवि बिगाड़ दी है.दिवाने अपने अंत की चिंता नहीं करते और न ही किसी मोह – माया में फंसकर कुर्बानियां देते हैं.जिन्हें अपने देश से दिवानगी की हद तक प्रेम था, वे सब कुछ कर गुज़र गए.
आज इतिहास के पन्नों पर इनमें से कई के नाम नहीं मिलते,मगर सैय्यद शाहनवाज अहमद क़ादरी और कृष्ण कल्कि जैसे लेखकों ने “लोहू बोलता है” जैसी पुस्तकें लिखकर सचमुच यह साबित कर दिया कि लाख प्रयत्न करने पर भी बलिदानों के यादों की बलि नहीं दी जा सकती.
अपनी पुस्तक में उन्होंने देश के लिए शहीद होने वालों, फांसी पर चढ़ने वालों, कालापानी की सजा काटने वालों तथा गिरफ्तार होने वालों अनेक मुस्लिम क्रांतिकारियों का उल्लेख किया है.जिसे पढ़कर हमें प्रतीत होता है कि हम सब के रगों में बहने वाला खून भारतीय है. इसमें किसी धर्म विशेष की मिलावट नहीं है.
इस पुस्तक में मुस्लिम लीग के निर्माण की ऐतिहासिक परिस्थितियों का भी वर्णन है.जहाँ तक 1857 की क्रांति की बात की जाए, यह लड़ाई हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी.इसमें लाखों की संख्या में मुस्लिम भी मारे गए थे.
कानपुर से फर्रुखाबाद के बीच सड़कों के किनारे लगे पेड़ों पर मौलानाओं को फांसी पर लटका दिया गया था.14हज़ार से अधिक उलेमाओं को मौत की सजा सुनाई गई थी.जामा मस्जिद से लाल किले के बीच मैदान तक उलेमाओं को नंगा कर जिंदा जला दिया गया था.
क़ादरी साहब ने अपनी पुस्तक 'लहू बोलता है ‘ में इस बात की पुष्टि की है कि फांसी पर चढ़ने वाले और कालापानी की सजा पाने वालों में 75प्रतिशत मुसलमान थे, जिनकी बलिदानों को भूलकर आज उन्हें देशद्रोही कहा जा रहा है.
पहला स्वतंत्रता संग्राम 1780 में हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान द्वारा शुरू किया गया था.बेगम हज़रत महल भी स्वतंत्रता के पहले युद्ध की एक गुमनाम नायिका थीं, जिनके कारण 1857में हुई चिनहट की निर्णायक लड़ाई में अंग्रेजी सेना को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था.
अशफ़ाक़ उल्लाह खान को भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ युद्ध करने के लिए फांसी की सजा दी गई थी.उस समय उनकी आयु मात्र 27वर्ष थीं.मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक प्रमुख धार्मिक विद्वान और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ मुस्लिम नेता थे.
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बहादुर शाह ज़फ़र को स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभिक बिन्दु माना है. अमीर हमज़ा ने आज़ाद हिन्द फौज को लाखों रुपए का दान दिया था.अब इनका परिवार बहुत ही गरीबी में जीवन बसर कर रहा है.
मेमन अब्दुल हमीद युसुफ मारफानी ने आज़ाद हिन्द फौज को अपनी एक करोड़ रुपये की संपत्ति दान कर दी थी .बी अम्मां नाम की एक मुस्लिम महिला ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए 30लाख से अधिक रुपये दान दिए थे.
इन सभी ने कुर्बानियां इसलिए नहीं दी थीं कि इतिहास के पन्नों पर इनका नाम दर्ज होगा, बल्कि यह अपने देश से दिवानगी की हद तक प्रेम रखते थे और उसके लिए मर- मिटने को तैयार रहते थे.
आज हम धर्म जाति के नाम पर बंटकर अपने देश का भी खंडन कर रहे हैं. फिर भला हमारा देश कैसे विकासशील राष्ट्र की श्रेणी में अपना नाम अंकित कर पाएगा. एक भारतीय होने के नाते इस प्रश्न का उत्तर हमें ही ढूँढना होगा.
(लेखिका शिक्षण कार्य से जुड़ी हैं.)