रूबीना राशिद : बदली तक़दीर

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  [email protected] | Date 30-05-2025
Rubina Rashid Ali: Flower and leaf embroidery changed the fate of women
Rubina Rashid Ali: Flower and leaf embroidery changed the fate of women

 

amuलीगढ़ की एक पुरानी और शांत गली.दोपहर की धूप जब पीली पड़ चुकी दीवारों पर उतरती है, तो वहां की छाया तक सुनहरी हो उठती है.उसी धूप में एक घर है, जहाँ सुई और धागे की आवाज़ें किसी लोकगीत-सी गूंजती हैं.यह सिर्फ एक घर नहीं, बल्कि एक जीती-जागती विरासत है — जहां हर दिन एक पारंपरिक कला सांस लेती है, जिसे अब एक नया चेहरा मिल रहा है.यही है रूबीना राशिद अली की दुनिया — एक ऐसी स्त्री की, जिसने न केवल खुद के लिए, बल्कि सैकड़ों महिलाओं के लिए फूल-पत्ती की कढ़ाई को आत्मनिर्भरता का माध्यम बना दिया.

‘फूल-पत्ती’ नाम जितना कोमल, इसका काम उतना ही बारीक। एप्लिक वर्क की यह परंपरा, अलीगढ़ की महिलाओं की पहचान बन चुकी है.ऐसी महिलाएँ, जिनकी उंगलियाँ अब केवल धागों से कढ़ाई नहीं करतीं, बल्कि अपने सपनों को आकार देती हैं.

लेकिन इस कला की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो हाथ इसे गढ़ते हैं, उन्हें आज भी उसका समुचित मूल्य नहीं मिल पाता.

रूबीना कहती हैं, "मैंने देखा कि कैसे बिचौलियों ने इस पूरी प्रणाली को जकड़ रखा है.असली कलाकार, यानी महिलाएँ, बस निर्माण तक सीमित रह गईं.अब मैं इन खामियों को खत्म करने की दिशा में काम कर रही हूं."

रूबीना राशिद अली का जन्म लखनऊ में हुआ.उनके पिता अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बायोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर थे और माँ एक सादगी भरी घरेलू महिला.

2019 में उनके पिता का देहांत हो गया.2010 में रूबीना की शादी अलीगढ़ के व्यवसायी उरफी फारूकी से हुई.

उनके तीन बेटे हैं — बड़ा बेटा दिल्ली में नौकरी करता है, जबकि दो छोटे बेटे उनके साथ रहते हैं.

रूबीना बचपन से ही रचनात्मकता की ओर आकर्षित थीं.पड़ोस की महिलाओं को कढ़ाई करते देखना, रिश्तेदारों के शादी के जोड़े निहारना — ये दृश्य उनके मन में धीरे-धीरे एक चुपचाप, पर गहरा प्रभाव छोड़ते रहे.

2003 में, जब वह किशोरावस्था में थीं, उन्होंने इस पारंपरिक कढ़ाई की ओर अपने झुकाव को समझा और आगे नई दिल्ली से विज्ञापन एवं संचार प्रबंधन में स्नातकोत्तर किया.फिर शादी हुई, बच्चे हुए, नौकरी मिली — पर सुई और धागा उनके जीवन का हिस्सा बना रहा.

2019 में रूबीना ने तय किया कि अब यह कला केवल उनके मन की बात नहीं, बल्कि समाज के लिए समाधान बनेगी.उन्होंने अपने प्रयासों को संगठित रूप दिया.

amu

वह आज एएमयू के वाणिज्य विभाग में अनुभाग अधिकारी हैं और अलीगढ़ कैंपस में अपने परिवार के साथ रहती हैं.नौकरी, घर और बच्चों के साथ-साथ उन्होंने फूल-पत्ती कढ़ाई को व्यवसायिक पहचान दिलाई.

amu

सोशल मीडिया के माध्यम से उन्होंने ब्रांडिंग शुरू की.इंस्टाग्राम पर ऑर्डर लेने लगीं और इस पूरे मॉडल को अन्य महिलाओं को भी सिखाया.आज अलीगढ़ की करीब 100 महिलाएँ उनके साथ जुड़ी हैं.

रूबीना उन्हें न केवल फूल-पत्ती की बारीकियाँ सिखाती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि अपने उत्पाद को उचित मूल्य पर कैसे बेचा जाए.

उन्होंने काम को कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर बांटा है, जिससे हर महिला को नियमित आय मिलती है.

ऑनलाइन ऑर्डर भी अब केवल व्यापार नहीं, बल्कि जीविका का साधन बन चुके हैं.फूल-पत्ती की कढ़ाई केवल सजावट नहीं, एक शिल्प है.

इसमें कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़ों को काटकर, सिलकर, मोड़कर फूलों और पत्तियों का रूप दिया जाता है, फिर उन पर महीन कढ़ाई की जाती है. इसका सौंदर्य इसकी सादगी में है.

रूबीना इस परंपरा को आधुनिक प्रयोगों के साथ जोड़ रही हैं.क्रोशिया, टाई-एंड-डाई, चिकनकारी, गोटा पट्टी जैसी शैलियाँ जब चंदेरी सिल्क और कोटा कॉटन पर उतरती हैं, तो यह कढ़ाई केवल पहनावे तक सीमित नहीं रहती — यह होम डेकोर, गिफ्टिंग, और लाइफस्टाइल ब्रांडिंग का हिस्सा बन जाती है.

दिल्ली हाट, कोलकाता, बेंगलुरु, राजस्थान और कोटा जैसे शहरों में उनके ब्रांड की प्रदर्शनी लग चुकी है.

हर जगह लोगों ने उनके डिज़ाइनों की सराहना की है.उनके साथ काम करने वाली एक महिला कहती हैं — “पहले हम किसी और के लिए कढ़ते थे, अब हमारा काम हमारी पहचान है.”

amu

रूबीना का यह प्रयास केवल व्यावसायिक नहीं है.यह एक सांस्कृतिक पुनरुत्थान है.

उन्होंने फूल-पत्ती की कढ़ाई को एक सामाजिक आंदोलन में बदल दिया है — जहाँ महिलाएँ केवल कामगार नहीं, एक कलाकार के रूप में खुद को पहचानने लगी हैं.

उनका सपना है कि इस कला को स्कूलों, फैशन स्कूलों और डिज़ाइन संस्थानों में पढ़ाया जाए ताकि यह परंपरा अगली पीढ़ियों तक जीवित रहे.

जब आज की फैशन दुनिया मशीनों से निकले वस्त्रों से भरी पड़ी है, तब फूल-पत्ती की यह बुनावट एक नर्म, पर दृढ़ स्पर्श देती है.

रूबीना कहती हैं — “शिल्प को केवल पारंपरिक या सीमित नहीं रहना चाहिए। यह समय है कि हम इसे वैश्विक मंच तक ले जाएँ — बिना इसकी आत्मा खोए.”

amu

और शायद यही कारण है कि अलीगढ़ की गलियों से उठी यह कला अब सीमाओं को पार कर रही है — हर टांका, हर धागा, एक स्त्री की आवाज़ है, जो कहती है:"हमारी कला हमारे नाम से जानी जाए — और हमारे नाम से हमारे समाज की कहानी बदले."

प्रस्तुति:ओनिका माहेश्वरी