कला संरक्षण एक ऐसा क्षेत्र है जो न केवल इतिहास को संजोता है, बल्कि पीढ़ियों को हमारी विरासत से भी जोड़ता है. मैमुना इस क्षेत्र में एक अनूठा नाम हैं, जिन्होंने पहली मुस्लिम महिला कला संरक्षक बनकर अपनी एक अनूठी पहचान बनाई है. उनकी कहानी सिर्फ़ पेशेवर सफलता की नहीं, बल्कि जुनून, संघर्ष और दृढ़ संकल्प की है, जिसने इतिहास के टूटे हुए टुकड़ों को फिर से ज़िंदा किया. बचपन से ही उन्हें कला का शौक था, जो बाद में उनका एकमात्र रास्ता बन गया. जयपुर से आवाज द वाॅयस के प्रतिनिधि फरहान इज़राइली ने द चेंज मेकर्स सीरिज के लिए मैमुना पर यह विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है.
स्कूली शिक्षा के बाद, जब उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) से ललित कला की पढ़ाई शुरू की, तो उनके अंदर का कलाकार निखर कर सामने आया. लेकिन एमएफए में दाखिला मुश्किल था, इसलिए उन्होंने संग्रहालय विज्ञान में एक वर्षीय डिप्लोमा चुना - जो उनके जीवन का एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ.
इस कोर्स के दौरान उन्हें दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में दाखिला मिला, जहाँ उन्हें तीन महीने तक प्रशिक्षण लेने का मौका मिला. मैमुना कहती हैं कि यह अनुभव उनके लिए एक नई दुनिया में प्रवेश करने जैसा था - उन्हें किताबों से परे इतिहास को छूने का मौका मिला. 2002 में, उन्होंने जयपुर के ऐतिहासिक जयगढ़ किले में क्यूरेटर के रूप में काम करना शुरू किया और वहीं से कला संरक्षण का उनका सफ़र शुरू हुआ.
यह राह आसान नहीं थी. जब वह संग्रहालय विज्ञान और संरक्षण की पढ़ाई करने दिल्ली गईं, तो लोगों ने उन पर ताना मारा, "हर कोई एएमयू आने का सपना देखता है, और तुम वहाँ से दिल्ली जा रही हो?" संग्रहालय विज्ञान और कला संरक्षण जैसे विषय अभी भी समाज के लिए अनजान थे, लेकिन उनके माता-पिता को अपनी बेटी के सपनों पर पूरा भरोसा था और उस पर पूरा भरोसा था. जब वह परीक्षा देने जा रही थीं, तो उनकी माँ उनके साथ दिल्ली भी गईं.
आगे का रास्ता चुनौतियों से भरा था. क्योंकि वह हिजाब पहनती थीं, इसलिए ग्राहकों को उनकी क्षमताओं पर यकीन नहीं था. प्रोजेक्ट और बजट की स्वीकृति दिखाने के बाद भी, एक ग्राहक ने सिर्फ़ इसलिए उनसे संपर्क करना बंद कर दिया क्योंकि उन्होंने हिजाब पहना था.
कई बार, उन्हें फ्रीलांस प्रोजेक्ट्स में पैसे भी नहीं मिलते थे. जब परिवार ने उन्हें इसकी शिकायत करने की सलाह दी, तो उन्होंने कहा, "यह मेरे लिए एक सबक है, नुकसान नहीं." मैमुना नरगिस का असली जादू उनके प्रोजेक्ट्स में सबसे ज़्यादा दिखाई देता है.
जैसलमेर के लुदरवा जैन मंदिर का 400 साल पुराना लकड़ी का रथ दीमक के कारण कीचड़ से विकृत हो गया था, जिसे उन्होंने बिना किसी बढ़ई की मदद के उसी पारंपरिक सामग्री से फिर से बनवाया और वह रथ अब उपयोग में है.
अजमेर के अकबर किले में छठी से तेरहवीं शताब्दी की टूटी हुई मूर्तियों को उन्होंने इस तरह जोड़ा कि जोड़ दिखाई न दें. उन्होंने कोटा संग्रहालय में सोने और स्याही से लिखी 400 साल पुरानी संस्कृत पांडुलिपि के छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर उसे जीवंत किया.
उनका सबसे कठिन काम झालावाड़ के गढ़ महल के 11 कमरों की छतों पर लगे रंगीन चित्रों को पुनर्स्थापित करना था.
उन्होंने तीन कमरों की छतों का एक भी टुकड़ा हटाए बिना और बिना कोई नुकसान पहुँचाए उन्हें बचा लिया. जयपुर और बॉम्बे हवाई अड्डों पर उनके काम ने भी सभी का ध्यान खींचा.
बॉम्बे हवाई अड्डे पर, उन्होंने मराठा इतिहास पर 5000 वर्ग फुट के कैनवास चित्र में सिलवटों और बुलबुले को हटा दिया ताकि वह आज भी वैसा ही दिखे.
राष्ट्रपति भवन में अपनी इंटर्नशिप के दौरान, उन्होंने लकड़ी के दरवाजों पर ऐतिहासिक चित्रों को सहेजा. राष्ट्रीय संग्रहालय में, उन्होंने बाबरनामा, अकबरनामा, शाहजहाँनामा और जहाँगीरनामा जैसी ऐतिहासिक पुस्तकों का जीर्णोद्धार किया.
उन्होंने अल्बर्ट हॉल में राजाओं-महाराजाओं के वस्त्रों और एक क्षतिग्रस्त पिछवाई पेंटिंग को भी नया जीवन दिया. इतिहास के साथ-साथ, मैमुना पर्यावरण के प्रति भी संवेदनशील हैं.
उनका कहना है कि सीमेंट की उम्र सिर्फ़ 30 साल होती है, जबकि सुर्खी और चूने से बना पारंपरिक भारतीय प्लास्टर हज़ारों साल तक चलता है. यह पर्यावरण के अनुकूल, सस्ता और टिकाऊ होता है. देहरादून में, उन्होंने 400 साल पुरानी एक हवेली के ब्लूप्रिंट पर आधारित एक इमारत और गुरुग्राम में एक आधुनिक फार्महाउस का निर्माण किया, दोनों ही पारंपरिक सामग्रियों का उपयोग करके.
सम्मानों और पुरस्कारों की बात करें तो, मैमुना को तीन राष्ट्रीय और 28 राज्य स्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं. उन्हें हरियाणा के कुरुक्षेत्र, जम्मू विश्वविद्यालय और जम्मू फिक्की जैसे संस्थानों से सम्मान प्राप्त हो चुके हैं.
उनका सपना मध्य प्रदेश में मिट्टी और पारंपरिक शैली से बना एक हेरिटेज रिसॉर्ट बनाना और मथुरा में 500 साल पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार करना है.
वह चाहती हैं कि भारत अपनी सांस्कृतिक जड़ों, पारंपरिक निर्माण सामग्री और कला को फिर से अपनाए. उन्होंने अपनी यात्रा को एक किताब में दर्ज करने का फैसला किया है ताकि आने वाली पीढ़ी जान सके कि जुनून, कड़ी मेहनत और लगन से क्या हासिल किया जा सकता है.
मैमुना नरगिस आज भी खेतों में मजदूरों के साथ खड़ी रहती हैं, खुद चूना मिलाती हैं, दीवारों पर प्लास्टर करती हैं. उनका व्यावहारिक रवैया ही उनकी असली ताकत है. वह गर्व से कहती हैं, "मैं भारत की एकमात्र शिया मुस्लिम महिला कला संरक्षक हूँ, और यही मेरी पहचान है." उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के एक छोटे से कस्बे बहजोई में जन्मी मैमुना का पालन-पोषण साधारण रहा, लेकिन उनके सपने बड़े थे. उनके पिता उत्तर प्रदेश पुलिस में थे और उनके परिवार ने हमेशा उन्हें प्रोत्साहित और प्रोत्साहित किया. अब वह जयपुर में बस गई हैं.
उनकी कहानी हमें बताती है कि एक महिला, चाहे उसकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो; अगर उसमें जुनून, साहस और प्रतिभा हो, तो वह इतिहास रच सकती है और समाज को एक नई दिशा दे सकती है. मैमुना नरगिस सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि संस्कृति, समर्पण और सशक्तिकरण का प्रतीक बन गई हैं.