राजीव नारायण
भारत में अक्टूबर और नवंबर के आते ही देशभर में एक विशेष हलचल देखने को मिलती है.सड़कों पर रोशनी बिखर जाती है, घरों में रंग-रोगन होता है, बाजारों में भीड़ उमड़ पड़ती है और पूरी अर्थव्यवस्था जैसे एक नई जान से भर उठती है. यह सब सिर्फ एक त्योहार, दिवाली—यानि रोशनी के पर्व के असर से होता है. लेकिन दिवाली अब केवल एक सांस्कृतिक उत्सव नहीं रह गया है. यह आर्थिक गतिविधियों का एक प्रमुख इंजन बन चुका है.
हर साल दिवाली से पहले के कुछ सप्ताह खुदरा बिक्री में भारी उछाल लाते हैं, जो देश की वार्षिक उपभोग का लगभग एक-चौथाई हो सकता है. 2025 में त्योहारी खर्च का अनुमान करीब 3.5 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच रहा है, जो पिछले साल की तुलना में 20% अधिक है.
चूंकि भारत की जीडीपी का 60% हिस्सा घरेलू खपत से आता है, इसलिए यह खर्च देश की आर्थिक सेहत का संकेतक बन गया है. भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) ने इसे अर्थव्यवस्था का "नाड़ी बिंदु" कहा है, जो खुदरा विस्तार, MSMEs की वृद्धि और निवेशकों के विश्वास को प्रेरित करता है.
दिवाली के इस आर्थिक प्रभाव में सोना और चांदी की चमक सबसे पहले दिखाई देती है. इस साल चांदी की कीमत ₹2 लाख प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई है, फिर भी मांग में कोई कमी नहीं आई है. सोने की बिक्री भी धनतेरस से पहले 15-25% तक बढ़ी है.
यह खरीद केवल परंपरा नहीं, बल्कि भावनात्मक और रणनीतिक निवेश का मिलाजुला रूप है, जिसे प्रवासी भारतीयों की ओर से भी प्रोत्साहन मिला है. इससे जुड़े कारीगर, लॉजिस्टिक्स, बैंक और हॉलमार्किंग केंद्र इन दिनों सबसे अधिक व्यस्त रहते हैं.
इसके बाद बारी आती है ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे व्हाइट गुड्स की. सितंबर में ही यात्री वाहनों की बिक्री 4 लाख यूनिट के पार पहुंच गई थी, और त्योहारी सीज़न में यह रिकॉर्ड पार करने की ओर है.
खासकर ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में दोपहिया वाहनों की खरीद बढ़ रही है. सरकार की कम GST दरें, आसान लोन और ऑटो कंपनियों की छूट योजनाएं इस मांग को और तेज कर रही हैं. इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में भी 40% की सालाना बढ़त दर्ज की गई है, जो एक स्पष्ट संकेत है कि ये अब मुख्यधारा में आ रहे हैं.
इसके साथ ही, मिठाई, कपड़े, घर की सजावट और डिजिटल शॉपिंग का क्षेत्र भी इस त्योहारी उत्साह में पीछे नहीं है. भारत का मिठाई उद्योग दिवाली पर ही साल की 30% से ज्यादा बिक्री करता है.
कपड़ों की बिक्री में 25% की वृद्धि देखी गई है. लोग घरों की दीवारें पेंट करवा रहे हैं, नया फर्नीचर खरीद रहे हैं और एलईडी व सोलर लाइट्स से सजावट कर रहे हैं. वहीं डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बिक्री ₹90,000 करोड़ पार करने की ओर है, जो यह दिखाता है कि दिवाली अब केवल एक पारंपरिक त्योहार नहीं बल्कि डिजिटल युग का राष्ट्रीय बाजार बन चुकी है.
दिवाली सिर्फ वस्तुओं की खरीद नहीं है, यह आर्थिक आत्मविश्वास का उत्सव है. यह पर्व उन विकसित देशों से भिन्न है, जहां उपभोग में अभी भी सतर्कता बरती जा रही है. भारत में यह त्योहार शहरी मॉल्स से लेकर गांव की गलियों तक समान रूप से आर्थिक हलचल लाता है. कुम्हार, हलवाई, जौहरी, डिलीवरी बॉय—हर कोई इस ऊर्जा में भागीदार होता है. अनौपचारिक क्षेत्र, जो अक्सर जीडीपी आंकड़ों से गायब रहता है, दिवाली में आर्थिक शक्ति प्राप्त करता है.
जैसे ही पटाखों की आवाज़ धीमी पड़ती है और दीयों की लौ बुझती है, दिवाली का प्रभाव खत्म नहीं होता. सरकार की नीतियाँ—जैसे GST सुधार, डिजिटल भुगतान को बढ़ावा और MSME क्रेडिट स्कीम्स—इस मौसमी उछाल को दीर्घकालिक मजबूती में बदलने में मदद कर रही हैं. उपभोक्ता भी अधिक डिजिटल, पर्यावरण-सचेत और मूल्य-संवेदनशील हो गए हैं। आज की दिवाली परंपरा से जुड़ी है लेकिन भविष्य की ओर अग्रसर भी है.
दरअसल, दीयों की उस पंक्ति के पीछे एक मजबूत संदेश छिपा है,भारत का अपने आर्थिक भविष्य में विश्वास। यही है असली "दिवाली लाभांश", जो सिर्फ रोशनी नहीं, बल्कि आर्थिक समृद्धि और सामाजिक एकता का प्रकाश फैलाता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं संचार विशेषज्ञ हैं)