भालू-बंदरों को नचा कर परिवार पालने वाले कलंदर समुदाय के 90 फीसदी लोग कूड़ा-कबाड़ बीनने को मजबूर

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 22-05-2023
भालू-बंदरों को नचा कर परिवार पालने वाले कलंदर समुदाय के 90 फीसदी लोग कूड़ा-कबाड़ बीनने को मजबूर
भालू-बंदरों को नचा कर परिवार पालने वाले कलंदर समुदाय के 90 फीसदी लोग कूड़ा-कबाड़ बीनने को मजबूर

 

अर्चना/ फरीदाबाद
 
तीन दशक पहले भालू बंदरों को गांव गांव घूमाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलंदर मुस्लिम समुदाय के 90 फीसदी लोग आज कूड़ा कबाड़ बीनने को मजबूर हैं. इन्हें अपने परिवार को पालने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है. ऐसा इसलिए हुआ कि सरकार ने जंगली पशुओं को पालने पर प्रतिबंध लगा दिया.

 
पूर्वजों की कमाई का जरिया हाथ से निकला तो अनपढ़ होने के कारण उनके पास कूड़ा कबाड़ बीनने के सिवाए कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा. इस समुदाय के पास न तो अपनी कोई जमीन है और न ही कोई निजी मकान. कुछ ने कब्रिस्तान की जमीन पर झुग्गी बना रखी है तो कईयों ने निजी जमीन पर. यह कहानी है देश की राजधानी से महज 30 किलोमीटर दूर बल्लभगढ़ में बसे कलंदर समुदाय की.
 
खास बात यह है कि अशिक्षित होने के कारण अधिकांश को न तो सरकारी योजनाओं की सही जानकारी मिल पाती है और न ही उसका लाभ. इस समुदाय की इच्छा है कि सरकार इनके बच्चों के लिए स्कूल और रहने के लिए प्रॉपर स्थान की व्यवस्था करे ताकि वह भी समाज की मुख्य धारा से जुड़कर अपना विकास कर सकें.
 
 
सरकारी प्रतिबंध के कारण छोड़ना पड़ा पुश्तैनी काम
 
बल्लभगढ़ की कलंदर कॉलोनी निवासी अकील खान बताते हैं कि तीन चार दशक पहले उनके पूर्वज भालू पालते थे और उसे गांव गांव में घुमाकर लोगों का मनोरंजन करते थे. सरकार ने जब प्रतिबंध लगा दिया तो कुछ लेागों ने बंदरों को सिखाकर उससे लोगों का मनोरंजन करना शुरू किया. सरकार ने उसे भी रोक दिया.
 
अब न तो बंदर उनके पास रहे और न ही भालू फिर परिवार पालने का संकट पैदा हो गया. अनपढ़ हाेने के कारण कोई नौकरी भी नहीं मिलती. ऐसे में अब राशि के अनुसार बच्चों के लिए ताबीज जंतर आदि बनाकर उसे फेरी लगाकर बेच कर किसी तरह परिवार का खर्च चलाते हैं.
 
 
परिवार चलाने के लिए महिला पुरुष दोनों को करना पड़ रहा काम
 
कॉलोनी निवासी ताहिर हुसैन कहते हैं कि महंगाई के दौर में परिवार चलाने के लिए महिला और पुरुष दोनों को काम करना पड़ रहा है. कई युवा तो छोटे छोटे वर्कशॉप में बेलदारी कर रहे हैं. जबकि अधिकांश रिक्शा लेकर गांव शहर में घूम घूम कर कूड़ा कबाड़ बिनकर जीवन काट रहे हैं.
 
तारिक कहते हैं कि उनके पूर्वज जब भालू बंदर नचाते थे ताे उन्हें राशन के साथ साथ कुछ पैसे भी मिलते थे. महंगाई कम होने के कारण परिवार पल जाता था. अपना कोई स्थायी मकान न होने के कारण यह समुदाय घूम घूम कर कमाते खाते थे. पूर्वजों को देखकर बच्चे भी उन्हीं कामों को किया करते थे. लेकिन जंगली जानवारों के पालने पर प्रतिबंध के बाद इस घुमंतू समुदाय के सामने जीवन पालने का संकट पैदा हो गया.
 

शिक्षा की नहीं है कोई व्यवस्था
 
राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलवे स्टेशन के बीच बल्लभगढ़ अनाजमंडी के ठीक सामने बसी कलंदर कॉलोनी में रहने वाले करीब 250 परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है. हालांकि एक सरकारी स्कूल बल्लभगढ़ रेलवे स्टेशन के ठीक पीछे रनहेड़ा गांव में है लेकिन आने जाने का कोई सीधा रास्ता न होने के कारण बच्चे नहीं जा पाते.
 
दूसरी ओर कॉलोनी से करीब दो किलोमीटर दूर बल्लभढ़ में सरकारी स्कूल है. उसके लिए भी हाईवे पार करना पड़ता है. एक्सीडेंट हाेने के डर से लोग बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते. लोगों की मांग है कि सरकार कॉलोनी के पास ही कोई ऐसी व्यवस्था करे ताकि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिल सके.
 
पार्षद से लेकर सांसद तक के चुनाव में देते हैं वोट, सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं
 
कॉलोनी के मौलवी मोहम्मद मुस्तफा बताते हैं कि उनकी कलंदर कॉलोनी में करीब ढाई सौ लेागों का परिवार रहता है. सभी के वोटर कार्ड और आधार कार्ड बने हैं. यहां के लोग हर बार चुनाव में पार्षद से लेकर विधायक सांसद तक के चुनाव में प्रत्याशी को वोट देते हैं.
 
चुनाव के दौरान प्रत्याशी आते हैं और वायदे भी करके जाते हैं लेकिन चुनाव जीतने के बाद कोई झांकने तक नहीं आता। कॉलोनी में कोई गली तक नहीं बनी है. मौलवी ने बताया कि कॉलोनी में एक छोटी मस्जिद बनाई गई है. यहां एक हैंडपंप लगा है जहां से कुछ परिवारों को पानी मिल जाता है.
 
 
अधिकांश को प्राइवेट टैंकरों से पानी खरीदकर काम चलाना पड़ता है. मौलवी ने बताया कि उनकी कॉलोनी में रहने वाले 90 फीसदी कलंदर मुस्लिम समुदाय के लोग आज कूड़ा कबाड़ा बिनकर किसी तरह परिवार पालने को मजबूर हैं. 10-12 परिवार ऐसे हैं जिन्होंने चोरी छिपे लंगूर बंदर पाल रखा है और बड़ी कंपनियों में बंदरों को भगाने का काम करते हैं. इसके बदले उन्हें 8-10 हजार रुपए मिल जाते हैं.
 
40-45 साल पुरानी है कलंदर कॉलोनी
 
मौलवी बताते हैं कि कलंदर कॉलोनी करीब 40-45 साल पुरानी है. पहले यहां जंगल हुआ करता था. रनहेड़ा गांव में पहले भेड़ियां आदि जंगली जानवर आते थे और लोगों की बकरियों को उठा ले जाते थे.
 
गांव के लोगों ने ही यहां इस घुमंतू जाित के एक दो परिवार को बसाया था। बाद में यह जमीन नगर निगम में शामिल हो गई. नगर निगम ने इस जमीन को मुस्लिम समुदाय के कब्रिस्तान के लिए अलॉट कर दिया. यह करीब चार एकड़ जमीन है जहां कलंदर समुदाय के लोग छोटे छोटे घर बनाकर जीवन काट रहे हैं.
 
 
परिवार बढ़ने और जगह कम होने के कारण कुछ लोग अन्य स्थानों पर भी पलायन कर चुके हैं. कॉलोनी में महज 22-25 परिवारों के पास ही बीपीएल कार्ड है. जिनसे राशन सरकार द्वारा राशन मिलता है. आयुष्मान कार्ड पात्रों की संख्या भी महज 10-12 हैं. अशिक्षित होने के कारण इस समुदाय को सरकारी योजनाओं और सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता है.
 
बंदर-भालू का करतब दिखाना गैर कानूनी है
 
फरीदाबाद बार एसोसिएशन के पूर्व प्रधान एवं सेक्टर 12 के वरिष्ठ एडवोकेट एलएन पाराशर कहते हैं कि 1960 में पशुओं की रक्षा के लिए बना प्रिवेंशन ऑफ क्रुएलिटी ऑफ एनिमल एक्ट ऐसा करने से रोकता है.
 
अगर इसका कोई दोषी पाया जाता है तो उसे सजा और जुर्माना दोनों हो सकता है. उनका कहना है कि वाइल्ड लाइफ एक्ट के तहत बंदरों को कानूनी सुरक्षा दी गई है. कानून कहता है कि बंदरों से नुमाइश करवाकर लोगों का मनोरंजन करना या उन्हें कैद में रखना गैर कानूनी है.
 
 
वाइल्ड लाइफ एक्ट 1972 की धारा 51 के अनुसार आदमी के मनोरंजन के लिए किसी पशु-पक्षी या जानवर की जिंदगी को आप खिलवाड़ नहीं कर सकते. भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजन के लिए ट्रेंड करना और उनका इस्तेमाल करना गैर कानूनी है.
 
इसके साथ ही किसी भी जंगली जानवर को पकड़ना, फंसाना, लालच देना दंडनीय अपराध है. इसके दोषी को सात साल की सजा या 25 हजार रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
 
आखिर कौन हैं कलंदर और मदारी समुदाय
 
जानकारों का कहना है कि देश में कई ऐसे घुमंतू समुदाय हैं जो मंनोरजन के काम से जुड़े थे. कलंदर भालू का खेल दिखाते थे और मदारी बंदर का. इनके अलावा बाजीगर समुदाय के लोग अपने हाथ की सफाई के जरिए मनोरंजन करते थे. नट रस्सी और लकड़ी के सहारे अपनी कलाबाजियां दिखलाकर अपनी जीविका चलाते हैं.
 
ये समुदाय निरंतर घूम-घूम कर, सड़क किनारे मजमा लगाकर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे.
 
 
लेकिन अब सरकार ने भीड़ लगाने पर रोक लगा दी. भारत सरकार भालू और बंदर के खेल-तमाशे पर पहले ही रोक लगा चुकी है. इन खेलों पर रोक के बाद इस समाज के बहुत से लोग जड़ी-बूटियों से इत्र, मंजन, मल्हम और तेल बनाकर बेचने लगे. कुछ लोग नगीने और मनके पिरोने का काम करने लगे. मनके और नगीने एक तरह के तराशे हुए पत्थर होते हैं जिन्हें नाम और राशि के आधार पर माला में या अंगूठी में पिरोया जाता है.
 
ये काम कलंदर, बाजीगर और मदारी समुदाय के लोग करते हैं. कलन्दर घुमन्तू समुदाय से सम्बंधित लोग हैं. जो डमरू बजाकर, मजमा लगाकर, भालुओं का खेल-तमाशा किया करते थे. इनके साथ ही मदारी भी डमरू बजाकर बंदरों का खेल दिखाते और बाजीगर अपनी हाथ की सफाई से लोगों का मनोरंजन करके अपनी आजीविका चलाते थे.
 
 
कुल आबादी का 10 फीसदी हिस्सा घुमंतू समुदायों का
 
वर्ष 2005 में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने बाल कृष्ण रैनके की अध्यक्षता में घुमंतू समुदाय की स्थिति के अध्ययन के लिए एक कमेटी गठित की थी जिसका काम उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में बताना तथा समुदायों के उत्थान हेतु जरूरी उपाय सुझाना था.
 
 
रैनके आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2008 में केंद्र सरकार को सौंपी थी. उस रिपोर्ट के अनुसार हिंदुस्तान की कुल आबादी का 10 फीसदी हिस्सा घुमंतू समुदायों का हैं. इसमें 94 फीसदी घुमंतू लोग बीपीएल श्रेणी से बाहर हैं. 72 फीसदी लोगों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज नहीं हैं. 98 फीसदी लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है. 57 फीसदी तंबू में रहते हैं.