भारतीय मुस्लिम सैनिकों की देशभक्ति: पाकिस्तान के खिलाफ हर जंग में लड़े वीर

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 30-04-2025
Patriotism of Indian Muslim soldiers: Brave soldiers fought in every war against Pakistan
Patriotism of Indian Muslim soldiers: Brave soldiers fought in every war against Pakistan

 

ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली 
 
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के उधमपुर में आतंकवाद विरोधी अभियान में हवलदार झांटू अली शेख शहीद हो गए थे. जब शहीद सैनिक का शव उनके घर ले जाने की बारी आई तो भारतीय सेना में तैनात उनके भाई रफीकुल शेख ने यह कहते हुए इससे इनकार कर दिया कि वह सीमा पर ही रहेंगे और दुश्मनों का मुकाबला करेंगे.

यह कोई पहली घटना नहीं है. भारतीय सेना के सामने जब भी दुश्मन देश से मुकाबला करने की नौबत आई, अन्य सैनिकों के साथ सेना में शामिल मुस्लिमों ने भी न केवल इसमें बढ़ चढ़कर भाग लिया. इनमें से कई नाम दुश्मन के छक्के छुड़ाने के लिए आज भी याद किए जाते हैं. कई मुसलमान  तो सेना में उच्च पदों पर भी रह चुके हैं.
 
आज इम इस विशेष पर बात करेंगे कि भारतीय सेना में शामिल मुसलमनों एक सैनिक की हैसियत से क्या-क्या उपलब्धियां रही हैं.

 

पहला भारत-पाक युद्ध: (Pahla Bharat-Pak Yuddh): 1947-1948 
 
दूसरा भारत-पाक युद्ध: (Dusra Bharat-Pak Yuddh): 1965 
 
1971 का भारत-पाक युद्ध: (1971 Ka Bharat-Pak Yuddh): 1971 (also known as Bangladesh Liberation War) 
 
कारगिल युद्ध: (Kargil Yuddh): 1999
 
नौशेरा का शेर: ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान

ब्रिगेडियर उस्मान का जन्म 15 जुलाई को 1912 को उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के बीबीपुर गांव में हुआ था. 6 फरवरी 1948 को पाकिस्तान ने नौशेरा पर बहुत बड़ा हमला कर दिया. ब्रिगेडियर उस्मान का नेतृत्व ऐसा था कुछ ही समय में भारतीय सेना ने जीत हासिल कर ली थी. तभी से उन्हें 'नौशेरा का शेर' कहा जाने लगा था.  
 
 
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान, एक मुस्लिम अधिकारी, 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान कार्रवाई में मारे गए सबसे उच्च रैंकिंग वाले अधिकारी थे.
 
उन्होंने, कई अन्य मुस्लिम अधिकारियों के साथ, विभाजन के बाद भारतीय सेना में बने रहने का विकल्प चुना, कश्मीर की स्थिति के कारण पाकिस्तानी सेना में शामिल होने से इनकार कर दिया. उनकी बहादुरी और बलिदान ने उन्हें भारत की समावेशी धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक के रूप में स्थापित किया.
 
ब्रिगेडियर उस्मान 1948 की जंग में शहीद होने वाले सबसे बड़े भारतीय सैनिक अधिकारी थे. उनकी शहादत को 74 वर्ष पूरे हो गए हैं. भारत माता का यह सपूत 3 जुलाई 1948 को पाकिस्तानी सेना से लड़ते हुए शहीद हो गया था.   
 
वीरों में सबसे वीर थे उस्मान 

मुसलमान होने की दुहाई देकर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान चुनने का दबाव भी बनाया गया था. लेकिन उस्मान नहीं मानें वो बार- बार एक ही बात कहते रहे कि उनका मजहब जो भी हो पर उनका देश हिंदुस्तान है. तब जिन्ना ने ऐसा प्रस्ताव दिया जिसे ठुकरा पाना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होता. 
 
 
महावीर चक्र विजेता ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की दिल्ली के जामिया इलाके में स्थित स्मारक 

ऐसा दावा किया जाता है कि उस्मान को पाकिस्तान सेना का अध्यक्ष बनने का भी ऑफर दिया गया था. ये तो उस्मान थे कि उन्होंने इस ऑफर को भी ठुकरा दिया.
 
वो अकेले ऐसे भारतीय सैनिक थे, जिनके सिर पर पाकिस्तान ने 50 हजार रुपये का इनाम रखा था, जो सन 1947 में बहुत बड़ी रकम होती थी.
 
राष्ट्र को यह तथ्य याद रखना चाहिए

कारगिल युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते हुए भारतीय सेना के 40 मुस्लिम अधिकारियों और सेना के जवानों ने अपनी जान कुर्बान कर दी. एक विश्लेषण के अनुसार, भारतीय सेना में 2-3% मुसलमान हैं, लेकिन कारगिल युद्ध में शहीद हुए भारतीय मुस्लिम सेना के जवानों का अनुपात 10% से भी ज़्यादा था.
 
यह सबसे बड़ा बलिदान और सबूत है कि भारतीय मुसलमान भी महान देशभक्त हैं और अगर समय आता है तो वे भी पाकिस्तान के खिलाफ़ बड़ी हिम्मत से लड़ते हैं.
जी हाँ, भारतीय मुस्लिम सैनिकों ने पाकिस्तान के खिलाफ कारगिल युद्ध में लड़ाई लड़ी थी.
 
कारगिल युद्ध 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच एक संघर्ष था, जो मुख्य रूप से जम्मू और कश्मीर के विवादित क्षेत्र को लेकर था. भारतीय सेना, जिसमें मुस्लिम सैनिकों सहित विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि के सैनिक शामिल थे, ने भारतीय क्षेत्र की रक्षा करने और पाकिस्तानी सेना को खदेड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
 
जिला कांगड़ा वेबसाइट के अनुसार, कैप्टन विक्रम बत्रा जैसे सैनिक, जिन्हें परमवीर चक्र मिला था, कारगिल में लड़ने वाली भारतीय सेना का हिस्सा थे.कारगिल युद्ध के दौरान कई मुस्लिम सैनिकों को उनकी बहादुरी के लिए सम्मानित किया गया. एक उल्लेखनीय उदाहरण कैप्टन हनीफ उद्दीन हैं, जिनके पिता मुस्लिम और मां हिंदू थीं. उल्लेखित अन्य मुस्लिम सैनिकों ने भी संघर्ष के दौरान राष्ट्र की रक्षा में योगदान दिया.
 
 
मुख्य हस्तियाँ:

कैप्टन हनीफ उद्दीन: वे कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना का हिस्सा थे
 
शबाना पटेल और 8 अन्य: फेसबुक पोस्ट पर उल्लेखित मुस्लिम सैनिकों का एक समूह
 
मोहम्मद अमजद कादरी और 8 अन्य: फेसबुक पोस्ट पर उल्लेखित मुस्लिम सैनिकों का एक और समूह
 
मोहम्मद मारूफ अहमद लोसकोर और 32 अन्य: फेसबुक पोस्ट पर उल्लेखित मुस्लिम सैनिकों का एक समूह
 
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान: उन्होंने 1947-48 के युद्ध के दौरान नौशेरा और झांगर की सफल रक्षा का नेतृत्व किया, जिसने उन क्षेत्रों के भारत के एकीकरण में योगदान दिया
 
कैप्टन करनाल शेर खान: जिन्हें "शेर-ए-कारगिल" के नाम से भी जाना जाता है, उन्होंने कारगिल युद्ध में भाग लिया था और 27वीं सिंध रेजिमेंट और 12वीं उत्तरी लाइट इन्फैंट्री का हिस्सा थे.
 
हालांकि कई मुस्लिम सैनिकों के बारे में विशिष्ट जानकारी आधिकारिक रिकॉर्ड में व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं हो सकती है, लेकिन कारगिल युद्ध और सामान्य रूप से भारत की रक्षा में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता है. 
 
भारतीय सेना में कुल कितने मुसलमान हैं, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है. हालांकि, 2014 में 'द डिप्लोमैट' पत्रिका ने एक रिपोर्ट के हवाले से बताया था कि भारतीय सेना में 3 फ़ीसदी मुसलमान हैं और उसमें भी जम्मू-कश्मीर एंड लाइट इन्फ़ेंट्री में 50 फ़ीसदी मुसलमान हैं.
 
भारतीय राष्ट्रीय सेना के मुस्लिम नायक
 
इस दिन, 80 साल पहले, 1942 में, रास बिहारी बोस ने भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) की स्थापना की, जिसे आज़ाद हिंद फ़ौज के नाम से भी जाना जाता है, जिसे उन्होंने बाद में सुभाष चंद्र बोस को सौंप दिया. रास बिहारी बोस सुभाष चंद्र बोस के अधीन INA के सर्वोच्च सलाहकार के रूप में काम करते रहे.

भारत के मुसलमानों, विशेष रूप से रंगून और आसपास के इलाकों में बसे लोगों ने भारत की आज़ादी के लिए INA को अपना जीवन और संपत्ति दी. मुस्लिम सैनिकों और व्यापारिक समुदाय के प्रयासों ने कई बार सुभाष चंद्र बोस को अभूतपूर्व शब्दों में उनकी प्रशंसा करने पर मजबूर कर दिया.

यह एक अच्छी तरह से प्रलेखित तथ्य है कि कई मुस्लिम सैनिकों और अधिकारियों को नेताजी से तमगा-ए-सरदार-ए-जंग, तमगा-ए-वीर-ए-हिंद, तमगा-ए-बहादुरी, तमगा-ए-शत्रु नैश, सेनाद-ए-बहादुरी और अन्य सम्मान प्राप्त हुए हैं. निम्नलिखित ऐसे 12 लोगों की सूची है जो INA में अपने योगदान और संघर्ष के कारण महापुरुष बन गए.

कैप्टन अब्बास अली

स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन अब्बास अली का जन्म 3जनवरी, 1920 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में हुआ था. अब्बास ने भारतीय राष्ट्रीय सेना में एक कप्तान के रूप में हमारे देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी.

कैप्टन अब्बास 1943में सुभाष चंद्र बोस के भाषण से प्रेरित हुए और उन्होंने हमारे देश की आज़ादी के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया. अब्बास को ब्रिटिश सेना ने हिरासत में लिया और आजीवन कारावास की सजा दी. लेकिन भारत के स्वतंत्र होने के बाद, मृत्युदंड को रद्द कर दिया गया. कैप्टन अब्बास अली ने 11अक्टूबर 2014को अलीगढ़ में अंतिम सांस ली.

अब्दुल हबीब यूसुफ़ मार्फ़ानी

मेमन अब्दुल हबीब यूसुफ़ मार्फ़ानी गुजरात के सौराष्ट्र के धोराजी शहर के एक स्वतंत्रता सेनानी और व्यवसायी थे. 9 जुलाई 1944 को जब सुभाष चंद्र बोस ने रंगून में आई.एन.ए. की स्थापना की, तो मारफानी आज़ाद हिंद बैंक में वित्तीय योगदान देने वाले पहले व्यक्ति थे.

जल्द ही, रंगून और सिंगापुर में रहने वाले भारतीय प्रवासियों के योगदान से बैंक की झोली भर गई. यूसुफ़ मारफानी नेताजी के इतने करीब थे कि उन्होंने 1944 में 1 करोड़ रुपये नकद और 3 लाख रुपये के आभूषण दिए, जिनकी कीमत आज लगभग 800 करोड़ रुपये होगी.

आबिद हसन सफ़रानी

ज़ैन अल-अबदीन हसन का जन्म 11अप्रैल 1911को हैदराबाद में एक उपनिवेशवाद-विरोधी परिवार में हुआ था. वे सुभाष चंद्र बोस से तब परिचित हुए जब वे जर्मनी में भारतीय युद्धबंदियों की एक बैठक को संबोधित कर रहे थे. आबिद बोस के करीबी सहयोगी बन गए और उन्हें INA में मेजर की उपाधि दी गई.

आबिद के सुझाव पर, INA ने "जय हिंद" को अपना नारा बनाया. स्वतंत्रता के बाद, वे 1948में सिविल सेवा में शामिल हुए और 1969में डेनमार्क में राजदूत के रूप में सेवानिवृत्त हुए. 73वर्ष की आयु में, 1984में अपने गृहनगर में उनका निधन हो गया.

एम.के.एम. अमीर हमज़ा

एम.के.एम. अमीर हमज़ा जिन्हें हमज़ा "भाई" के नाम से भी जाना जाता है, का जन्म 22जनवरी 1918को तमिलनाडु के रामनाथपुरम में हुआ था. अमीर हमज़ा सुभाष चंद्र बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना के सदस्य और तमिलनाडु के एक मुक्ति सेनानी थे.

किशोरावस्था में, वे व्यापार के लिए बर्मा गए और वहाँ उन्होंने INA को लाखों रुपए का समर्थन और दान दिया. नेताजी की सेना का समर्थन करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें हिरासत में लिया और उनसे पूछताछ की. अपने अंतिम वर्षों में, वे गरीबी से जूझते रहे और संघर्ष करते रहे. 1जनवरी, 2016को, अमीर हमजा का निधन हो गया.

जनरल शाह नवाज खान

आजाद हिंद फौज के अधिकारी शाह नवाज खान का जन्म ब्रिटिश भारत के रावलपिंडी में हुआ था. वे दक्षिण-पूर्व एशिया में सुभाष चंद्र बोस के आगमन के बाद INA में शामिल हो गए. शाह नवाज ने INA सैनिकों का नेतृत्व उत्तर-पूर्वी भारत में किया, कोहिमा और इंफाल पर कब्जा किया, जो उसके बाद जापानी अधिकार के तहत INA के कब्जे में थे.

उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का झंडा उतारने के बाद लाल किले पर तिरंगा फहराने वाले पहले भारतीय बनकर भी इतिहास रचा. स्वतंत्रता के बाद शाह नवाज राजनीति में सक्रिय रहे, मेरठ से चार बार लोकसभा के लिए चुने गए.

मेजर जनरल मोहम्मद ज़मान कियानी

मेजर जनरल मोहम्मद ज़मान कियानी ने सुभाष चंद्र बोस की कमान में भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) में स्थानांतरित होने से पहले ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा की, जहाँ उन्होंने प्रथम डिवीजन की देखरेख की. भारतीय सैन्य अकादमी से स्वॉर्ड ऑफ़ ऑनर के साथ स्नातक होने के बाद, वे पंजाब रेजिमेंट में भर्ती हुए.

आज़ाद हिंद के लिए उनके प्रयासों को अंततः मान्यता मिली, और भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत नेताजी पदक दिया. 4जून 1981को उनकी मृत्यु हो गई.

कर्नल निजामुद्दीन

निजामुद्दीन, जिनका जन्म का नाम सैफुद्दीन था, का जन्म 1901में ढकवान (वर्तमान उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में) गांव में हुआ था. सैफुद्दीन ने 20की उम्र में अपना घर छोड़ दिया और ब्रिटिश सेना में शामिल होने के लिए कलकत्ता से महानगर की ओर रवाना हुए.

जब ​​वे औपनिवेशिक सेना में सेवारत थे, तब उन्होंने एक ब्रिटिश सेना के जनरल को श्वेत सैनिकों से आग्रह करते हुए सुना कि वे भारतीय सिपाहियों को मरने दें लेकिन बाकी बल के लिए भोजन ले जाने के लिए गधों को बचा लें. उन्होंने टिप्पणी की निर्दयता और अन्याय पर क्रोध में आकर अधिकारी को गोली मार दी और फिर सिंगापुर भाग गए.

निजामुद्दीन को सुभाष बोस के ड्राइवर के रूप में नियुक्त किया गया था, जो नेता को हर जगह ले जाते थे. उन्होंने 1943और 1944के बीच बर्मा के जंगलों में ब्रिटिश सेना (अब म्यांमार) के खिलाफ नेताजी के साथ लड़ाई भी लड़ी. 1943में उनके (नेताजी) सामने कूदने और उनकी जान बचाने के बाद उन्हें तीन बार गोली मारी गई. उन्हें नेताजी ने उन्हें प्यार से "कर्नल" का उपनाम दिया था.

कर्नल हबीब उर रहमान

कर्नल हबीब उर रहमान, जिन्होंने जनरल मोहन सिंह के साथ मिलकर आज़ाद हिंद फ़ौज की स्थापना की थी, को संगठन के मुख्यालय में प्रशासन शाखा की कमान सौंपी गई थी. उन्होंने बर्मा में एक मिशन की देखरेख की. आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान संभालने के बाद नेताजी को प्रशिक्षण विद्यालय के प्रभारी अधिकारी का पद दिया गया.

उन्होंने 21अक्टूबर, 1943को मंत्री के रूप में शपथ भी ली, जिस दिन आज़ाद हिंद सरकार की स्थापना हुई थी. बाद में, उन्हें सेना का उप-प्रमुख भी नियुक्त किया गया और 18अगस्त, 1945 को वे नेताजी के साथ उनकी अंतिम ज्ञात यात्रा पर गए.

कर्नल इनायतुल्लाह हसन

जनरल मोहन सिंह ने इनायतुल्लाह हसन को आज़ाद हिंद रेडियो का निदेशक नियुक्त किया. उन्होंने प्रसिद्ध राष्ट्रवादी रेडियो नाटक बनाए, जिसने ऑल इंडिया रेडियो को भारत में एक प्रतिस्पर्धी कहानी प्रसारित करने के लिए मजबूर किया.

बाद में, नेताजी ने उन्हें प्रशिक्षण प्रभाग का प्रमुख नियुक्त किया, जहाँ उन्होंने महिलाओं और बच्चों सहित नागरिकों को हथियारों के इस्तेमाल का प्रशिक्षण दिया.

कर्नल शौकत अली मलिक

स्वतंत्र भारतीय भूमि पर फहराया जाने वाला पहला राष्ट्रीय ध्वज कर्नल शौकत अली मलिक द्वारा फहराया गया था. 14अप्रैल, 1944को मणिपुर के मोइरांग में, आज़ाद हिंद फ़ौज के बहादुर समूह के कमांडर मलिक ने झंडा फहराया. मोइरांग भारत का पहला क्षेत्र था. जिसे INA ने अपने कब्ज़े में लिया और भारतीय उपमहाद्वीप पर पहला स्थान था जिसे आज़ाद हिंद सरकार ने नियंत्रित किया.

मलिक को इस कब्जे में अपने सैनिकों का नेतृत्व करने के लिए सरदार-ए-जंग मिला. नागरिक प्रशासन की स्थापना के बाद, दुश्मन के इलाके में खुफिया एजेंट भेजे गए. आज़ाद हिंद फ़ौज के सर्वोच्च सैन्य सम्मानों में से एक, तमगा-ए-सरदार-ए-जंग, उन्हें नेताजी द्वारा प्रदान किया गया था.

कर्नल महबूब अहमद

आज़ाद हिंद सरकार और आज़ाद हिंद फ़ौज के बीच संबंध कर्नल महबूब अहमद थे. उन्होंने अराकान और इंफाल में पूरे अभियान के दौरान मेजर जनरल शाहनवाज खान के सलाहकार के रूप में काम किया.

करीम गनी

नेताजी के जर्मनी से आने से पहले, बर्मा में रहने वाले तमिल पत्रकार करीम गनी ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के नेता के रूप में काम किया. जब आज़ाद हिंद सरकार की स्थापना हुई तो उन्होंने छह सलाहकारों में से एक के रूप में सेवा करने की शपथ ली.

करीम गनी ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले बर्मा में डॉ. बा माव के संसदीय सचिव के रूप में काम किया. उन्होंने "द मुस्लिम पब्लिशिंग हाउस" के प्रबंधक, मलयालम दैनिक मलयन नानबन के संपादक और डॉन के मलय संस्करण के संपादक के रूप में काम किया, जिसे सिनारन नाम से जाना जाता है.

ऑल मलाया मुस्लिम मिशनरी सोसाइटी (AMMMS) के अध्यक्ष और कई अन्य संगठनों में प्रतिनिधि के रूप में, गनी मुस्लिम लीग में भी सक्रिय थे.

सेना में कभी भी मुस्लिम रेजिमेंट नाम की कोई रेजिमेंट थी ही नहीं 

एक पुराने साक्षात्कार में मेजर जनरल (रिटायर्ड) शशि अस्थाना मुस्लिम रेजिमेंट के दावे को ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि सेना में कभी भी मुस्लिम रेजिमेंट नाम की कोई रेजिमेंट थी ही नहीं.
 
वो कहते हैं, "भारत की स्वतंत्रता के बाद इन रेजिमेंट को उन्हीं नामों से ही बरक़रार रखा गया. इसका मतलब यह नहीं है कि सेना जातिवाद या सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना चाहती है बल्कि यह इतिहास को संजोकर रखा गया है."
 
भारतीय सेना की धर्मनिरपेक्षता और समावेशिता के प्रति प्रतिबद्धता इसकी विविध संरचना में परिलक्षित होती है, जिसमें सभी धार्मिक पृष्ठभूमि के सैनिक राष्ट्रीय रक्षा में योगदान देते हैं.
 
बंटवारे के बाद भारत और पाकिस्तान को कितने-कितने सैनिक मिले?
 
ब्रिटिश इंडियन आर्मी में आज़ादी से पहले 30-36% मुस्लिम सैनिक थे. बंटवारे के बाद:
 
2.6 लाख सैनिक भारत को मिले
 
1.31 लाख सैनिक पाकिस्तान को मिले
 
सेना में मुस्लिमों का प्रतिशत 2% रह गया — हालांकि, जो भारतीय सेना में रहे, उन्होंने देश की रक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी
 
 मज़हब से ऊपर वतन

चाहे वह ब्रिगेडियर उस्मान हों, कारगिल में लड़ते हवलदार शेख हों या INA में जान कुर्बान करने वाले नायक — भारतीय मुस्लिम सैनिकों ने हर दौर में यह साबित किया है कि उनके लिए मज़हब नहीं, बल्कि वतन पहले है. भारत को इन सपूतों की वीरता पर गर्व होना चाहिए, और हमें भी उनकी कहानियों को याद रखने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए.