फरहान इसराइली
जयपुर: राजधानी जयपुर के रामगंज क्षेत्र में चार दरवाजे की ओर जाते समय बाएं हाथ पर एक गली में बाबा बहराम खां डागर मार्ग है. इस रास्ते पर सौ मीटर दूर दाएं हाथ पर दिखाई देता है बाबा बहराम खां डागर हाउस. इस हवेली की आबोहवा में घुला है ध्रुवपद के सुरों का 159साल पुराना इतिहास. इसे कलाकार बाबा बहराम खां की चौखट के नाम से भी पुकारते हैं. संगीत की कोई भी शैली का कलाकार हो, इस हवेली में अकीदत के फूल जरूर पेश करता है.
बहादुर शाह जफर से लेकर सवाई रामसिंह के दरबार में थे बहराम खां डागर
ध्रुवपद के डागर घराने के विकासक्रम का उल्लेख 18वीं शताब्दी के पांडेय ब्राह्मण बाबा गोपाल दास से शुरू होता है. गोपाल दास ने बाद में मुस्लिम धर्म अपना लिया और वो इमाम बख्श डागर के नाम से प्रसिद्ध हुए. बाबा बहराम खां डागर इन्हीं गोपाल दास अर्थात इमाम बख्श के पुत्र थे. इस घराने का असली अन्वेषक इन्हें ही माना जाता है. बहराम खां डागर अपने शुरुआती दौर में रणजीत सिंह और उसके बाद अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के पास रहे. बहादुर शाह जफर ने ही ने अल्लामा बाबा बहराम खान डागर का खिताब दिया था.
उसके बाद वे अलवर चले गए जहां से जयपुर के राजा सवाई रामसिंह के बुलावे पर वे जयपुर आए और यहां पर दरबारी गायक नियुक्त हो गए. इसके बाद इन्होंने इसी स्थान पर अपना संगीत आश्रम जिसे लोग बाबा का मठ भी कहते थे स्थापित किया. यही जगह आज बाबा की चौखट के नाम से पुकारी जाती है. यह चौखट अब दिल्ली के पद्मश्री उस्ताद वासिफुद्दीन डागर की पारिवारिक वसीयत है. डागर बताते हैं कि सवाई रामसिंह बाबा से ध्रुवपद की शिक्षा लेते थे. उनकी और बाबा की मृत्यु एक ही दिन हुई.
कलाकारों की तीर्थ स्थली है चौखट
यह स्थान संगीतकारों के लिए किसी तीर्थ स्थली से कम नहीं है. रविंद्र मंच स्थित डागर परिवार के म्यूजियम संचालन का जिम्मा संभाल रहे इमरान डागर बताते है कि इस म्यूजियम का संचालन पिछले 10से 12वर्षों से किया जा रहा है इसमें डकार करने से संबंधित सभी अवार्ड संगीत वाद्य उपकरण सहित उनके द्वारा पहने जाने वाली पगड़ियां सहित सैकड़ो ऐसी चीज हैं जो की नई युवा पीढ़ी को समय-समय पर दिखलाई जाती हैं. हम पिछले 20सालों से एक फेस्टिवल का आयोजन भी करते आ रहे हैं इसमें कई कलाकार अपनी परफॉर्मेंस देते हैं हम ध्रुवपद को आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं.
हमारे यहां मोहर्रम पर देश के अलग-अलग शहरों में रह रहे डागर घराने के लगभग 30 कलाकार और शिष्य एकत्रित होते हैं. यह परंपरा बाबा की मृत्यु के बाद से चली आ रही है. इस अवधि में ये कलाकार अपने देश-विदेश के दौरे भी स्थगित रखते हैं. यहां आकर वे 12दिन तक मोहर्रम की परंपराओं का पालन करते हैं और चादर चढ़ाते हैं.
ये सभी कलाकार मोहर्रम की बारहवीं तारीख को इसी चौखट से गाना-बजाना शुरू कर तेरहवें दिन अपने-अपने शहरों के लिए चले जाते हैं. अखिल भारतीय बाबा बहराम खां डागर ध्रुवपद समारोह की शुरुआत और समापन भी इसी चौखट से किए जाने की परंपरा रही है.
इमरान डागर ने बताया कि ध्रुपद शास्त्रीय संगीत की सबसे प्राचीन परंपराओं में शुमार है. स्वामी हरिदास से पहले की इस परम्परा का जिक्र तो 12वीं सदी के संगीत रत्नाकर में भी मिलता है.
छंद, प्रबंध, माटा का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि ध्रुवपद शब्द धु्रव और पद से मिलकर बना है. यह संगीत की सबसे प्राचीनतम शैली है. भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में रहकर उनके पूर्वजों ने इस विरासत को आगे बढ़ाने में योगदान दिया. ध्रुवपद घराने के उस्ताद बाबा बहराम खान का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि पहले के समय में यातायात के साधन नहीं होने की वजह से बैल गाडिय़ों में बैठकर उनके पूर्वजों ने इस परंपरा को आगे पहुंचाया. मध्य भारत से लेकर भारत भर में उनके पूर्वज भिन्न.भिन्न स्थानों पर रहे. इसके बावजूद ध्रुपद शैली के रागों के स्वरूप में कोई बदलाव नहीं आया.