क्रिकेट ने सिखाया जाति-धर्म से परे हिंदुस्तानियत का सबक

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 21-12-2025
Cricket taught the lesson of Indian identity that transcends caste and religion.
Cricket taught the lesson of Indian identity that transcends caste and religion.

 

 
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मंजीत ठाकुर की कलम से

क्रिकेट देश में ऐसा खेल है जो हर चौक-चौराहे पर, बातचीत की लगभग हर बैठक में एक बार डिस्कस जरूर की जाती है. पर मेरे लिए क्रिकेट बचपन (और जवानी) के खेल के साथ-साथ जीवन में सामुदायिकता और सांप्रदायिक सद्भाव का बीज डालने वाला साबित हुआ है. साथ ही, जीवन में क्रिकेट से जुड़े एक अभियान ने धर्म और जाति के भेद से परे खेल भावना (और राष्ट्र के भविष्य) को सामने रखने का बीज भी बोया.
 
बात तब की है, जब मैं बारहवीं की फाइनल परीक्षा देकर अपने गृहनगर मधुपुर लौटा था. मधुपुर झारखंड का एक अलसाया हुआ-सा कस्बा है. मालगुडी शहर जैसा मेरा मधुपुर अपने तेवर और रवैए में अलसाया तो है पर यहां सांस्कृतिक सरगर्मियां तेज रहती हैं और खेल में क्रिकेट और फुटबॉल बेहद लोकप्रिय रहा है. खासकर, बंगाल से नजदीकी की वजह से फुटबॉल तो इस कदर लोकप्रिय रहा है कि लोगबाग स्थानीय क्लबों के मैच भी टिकट लेकर देखते थे.
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बहरहाल, मेरे बड़े भाई साहब मंगल ठाकुर सरकारी नौकरी में आने से पहले तक जिला स्तर तक की बढ़िया क्रिकेट खेलते थे और मंझले भाई रतन ठाकुर भी उच्च शिक्षा के लिए शहर छोड़ने से पहले तक क्लब स्तर की क्रिकेट खेलते थे और बाद में वह अपनी यूनिवर्सिटी की टीम में थे. तो क्रिकेट का यह गुण मुझे घलुए में मिला था और थोड़ी-बहुत क्रिकेट मैं भी खेला करता था. बारहवीं की परीक्षा के बाद में खाली था और सुबह दोपहर शाम क्रिकेट खेलता था. 
 
उन दिनों मधुपुर में एक अच्छा क्रिकेट क्लब था (नाम बताकर रुसवा नहीं करेंगे), उस क्लब में मधुपुर के सारे दिग्गज क्रिकेटर जुड़े थे. मधुपुर में मेरा जो मोहल्ला है, उससे सटे हुए आधे इलाके में अनुसूचित जाति और दलितों की बस्ती थी, और एकाध फर्लांग के बाद मुसलमानों की बस्ती थी, जिसमें से ज्यादातर आबादी पसमांदा मुसलमानों की थी. अधिकतर कपड़ों के कारोबारी या जुलाहे, जिन्होंने हथकरघा खत्म के बाद दर्जी का काम शुरू कर दिया था और रेडिमेड के कपड़े कोलकाता के व्यापारियों के लिए थोक में सिलते थे. 
 
तो मुहल्ले के हम जैसे दो-चार उत्साही क्रिकेटरों ने उस नामी क्लब में खेलने की इच्छा जताई थी और उनके मैदान गए भी. मेरे साथ गए क्रिकेटर साथियों में तीन तो शायद दलित थे और चार या पांच मुसलमान.बहरहाल, क्लब में अधिकतर लोग बंगलाभाषी थे पर बड़ी संख्या में उच्चजातीय हिंदू और अशराफ मुसलमान थे. उन्होंने मुझे तो खेलने की इजाजत दी लेकिन मेरे साथियों को दुत्कारते हुए हिकारत से कहा, इन चेथरी लोगों को नहीं खिलाएंगे. ये हमारे साथ खेलेंगे भला !
 
उस वक्त मुझे समझ नहीं आया कि अगर मैं खेल सकता हूं तो मेरे साथी क्यों नहीं खेल सकते, जिनके साथ मैं होली और ईद मनाता आया हूं. बहरहाल, साथी नहीं खेलेंगे तो मैं अकेला वहां अनजान भैया लोगों के साथ क्या ही खेलता. हम मुंह लटकाकर वापस आ गए.
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शाम पांच बजे के आसपास जब बड़े भाई साहब दफ्तर से लौटकर आए, तो उन्होंने सड़क पर हमें ऐसे खड़े होकर बातें करता देखकर पूछा कि आज खेलने-वेलने क्यों नहीं गए. हमने पूरा वाकिया सुनाया. तो उनके चेहरे पर शिकन पड़ गई, तुम लोगों को चेथरी कहा?अब यहां बताना आवश्यक है कि मधुपुर में स्थानीय रूप से हरिजनों-दलितों और पसमांदा मुसलमानों को चेथरी (यानी फटे-चिटे लोग) कहा जाता था.
उसी शाम भैया ने फैसला लिया कि इन बच्चों की एक नई क्रिकेट टीम बनेगी. संसाधन नहीं थे.
 
हमारे मुहल्ले में लड़कियों का एक स्कूल है जिसके पीछे का परिसर काफी बड़ा है. सात-आठ हेक्टेयर से कम तो क्या ही होगा. अंचीदेवी बालिका उच्च विद्यालय के उसी पिछवाड़े में जिसमें पर्याप्त संख्या में बेल, शीशम, सागवान, आम, कटहल. चंपा और बेर के पेड़ थे हम सभी लोगों ने पहले तो पिच तैयार की. वहां खेलने की परमिशन हमारे मुहल्ले में ही रहने वाली गर्ल्स स्कूल की हेडमिस्ट्रेस हाशी राशि बोस से भैया ही ले आए थे.
साथ में एक अनोखा फैसला भी लिया गया.
उस टीम का नाम शुरू में चेथरी क्लब ही रखा गया. हालांकि, बाद में उसका नाम नेशलन राइजिंग क्लब कर दिया गया लेकिन प्रसिद्ध वह चेथरी क्लब के नाम से ही हुआ.दूसरा महत्वपूर्ण फैसला और सबक यह था कि हम सभी ने मैदान के साथ सामाजिक जीवन में एकता बनाए रखने की शपथ ली थी. 
 
हमारे टीम में एक महत्वपूर्ण बल्लेबाज, गेंदो की पिटाई के लिए मशहूर था, हमने उसका नाम जयसूरिया रखा था. टीम का विकेट कीपर पाकिस्तानी क्रिकेटर मोईन खान के नाम पर मोईन कहा जाता था. बाएं हाथ के बल्लेबाज को सईद अनवर, तेज गेंदबाजों को श्रीनाथ, परसाद (वेंकटेश प्रसाद के नाम पर). एक अन्य स्पिनर को हम राजू (वेंकटपति राजू के नाम पर) कहते थे क्योंकि प्रैक्टिस के दौरान हम उसकी खूब धुनाई करते थे और उसकी गेंदे बेहद धीमी टप्पा खाती थीं.
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इसी तरह हमारी टीम में गांगुली, तेंडुलकर के साथ-साथ कई सारे पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नाम भी थे. खासियत यह थी कि जितने मुस्लिम खिलाड़ियों के नाम थे वह क्लब के हिंदू खिलाड़ियों को दिए गए थे और अधिकतर मुस्लिम खिलाड़ी हिंदू क्रिकेटरों के नाम से पुकारे जाते थे. 
 
इस क्लब ने हमें न सिर्फ क्रिकेट मनोरंजन के लिए दिया, बल्कि जिंदगी का सबक भी दिया कि खेल जाति-पांति, और संप्रदाय को अलग करने के लिए नहीं, उन्हें एक करने के लिए है. हमारी टीम के एक मुस्लिम खिलाड़ी, जो तेज गेंदबाज था और संयोग से अच्छा बल्लेबाज भी, और हमारी टीम से बॉलिंग और बैटिंग दोनों में ओपनिंग करता था उसको हम इमरान कहते थे.
 
 
बस वही एक अपवाद था. लेकिन ईद में उसके घर जाकर सेवइयां खाना हमारे लिए नियमित था. ईद-उल-जुहा में हम उसके यहां बिरयानी खाते थे और जीवन पहली दफा बिरयानी का स्वाद मैंने उसी के घर लिया था. होली में सबका ठिकाना मेरा घर था जहां मेरी माता जी के हाथों बनी इमली की मीठी चटनी और मालपुए को साथ कच्चे कटहल की सब्जी के लिए पूरी टीम पागल रहती थी.
 
यह बताना तो जरूरी ही है कि उस टीम में मेरी भूमिका क्या थी. मैं भी तेज गेंदबाज था और मैच में दूसरा ओवर करता था. (पहला तो इमरान खान करता था न)
 
बस यह मत पूछिएगा कि टीम में मुझे किस नाम से पुकारते थे. 
 
लेखक आवाद द वाॅयस में एवी एडिटर हैं
 
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