The lion of Naushera who defeated Pakistan, the story of brave Brigadier Mohammad Usman
अर्सला खान/नई दिल्ली
'एक कहावत आपने जरूर सुनी होगी कि ईश्वर जिसे चाहता है उसे जल्दी अपने पास बुला लेता है. बहादुरों की आयु बहुत कम होती है. ब्रिगेडियर उस्मान के साथ भी ऐसा ही था....'
भारत के कई सैन्य इतिहासकारों की राय है कि अगर ब्रिगेडियर उस्मान की समय से पहले मौत न हो गई होती तो वो शायद भारत के पहले मुस्लिम थल सेनाध्यक्ष होते.
अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने वो सब हासिल कर लिया जिसको बहुत से लोग उनसे दोहरा जी कर भी नहीं पा पाते हैं. वो शायद अकेले भारतीय सैनिक थे, जिनके सिर पर पाकिस्तान ने 50,000 रुपए का ईनाम रखा था जो उस ज़माने में बहुत बड़ी रक़म हुआ करती थी. 1948 में नौशेरा का लड़ाई के बाद उन्हें 'नौशेरा का शेर' कहा जाने लगा था.
पुलिस बनने का सपना कब टूटा?
उस्मान का जन्म 15 जुलाई 1912 को मऊ ज़िले के बीबीपुर गांव में हुआ था. उनके पिता काज़ी मोहम्मद फ़ारूक़ बनारस शहर के कोतवाल थे. उन्हें अंग्रेज़ सरकार ने ख़ान बहादुर का ख़िताब दिया था.
जब वो 12 साल के थे तो वो एक कुएं के पास से गुज़र रहे थे. उसके चारों तरफ़ भीड़ जमा देखकर वो वहां रुक गए. पता चला कि एक बच्चा कुएं में गिर पड़ा है.12 साल के उस्मान ने आव देखा न ताव, उस बच्चे को बचाने के लिए कुएं में कूद पड़े.
उस्मान बचपन में हकलाया करते थे उनके पिता ने सोचा कि इस कमी के कारण वो शायद सिविल सेवा में न चुने जाएं. इसलिए उन्होंने उन्हें पुलिस में जाने के लिए प्रेरित किया. उन्हें अपने साथ अपने बॉस के पास ले गए.
इत्तेफ़ाक़ से वो भी हकलाया करते थे. उन्होंने उस्मान से कुछ सवाल पूछे और जब उन्होंने उनके जवाब दिए तो अंग्रेज़ अफ़सर ने समझा कि वो उनकी नकल उतार रहे हैं. वो बहुत नाराज़ हुआ और इस तरह उस्मान का पुलिस में जाने का सपना भी टूट गया. फिर उस्मान ने सेना में जाने का फ़ैसला किया.
पाकिस्तान जाने से किया इन्कार भारत से लगाव
उन्होंने सैंडहर्स्ट में चुने जाने के लिए आवेदन किया और उनको चुन लिया गया. 1 फ़रवरी 1934 को वो सैंडहर्स्ट से पास होकर निकले. वो इस कोर्स में चुने गए 10 भारतियों में से एक थे. सैम मानेकशॉ और मोहम्मद मूसा उनके बैचमेट थे, जो बाद में भारतीय और पाकिस्तानी सेना के चीफ़ बने.
साल 1947 तक वो ब्रिगेडियर बन चुके थे. वो एक वरिष्ठ मुस्लिम सैन्य अधिकारी थे, इसलिए हर कोई उम्मीद कर रहा था कि वो पाकिस्तान जाना पसंद करेंगे, लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का फ़ैसला किया.
ब्रिगेडियर उस्मान नौशेरा की वफादारी
अक्तूबर, 1947 में क़बाइलियों ने पाकिस्तानी सेना की मदद से कश्मीर पर हमला बोल दिया और 26 अक्तूबर तक वो श्रीनगर के बाहरी इलाक़ों तक बढ़ते चले आए. अगले दिन भारत ने उनको रोकने के लिए अपने सैनिक भेजने का फ़ैसला किया.
7 नवंबर को कबाइलियों ने राजौरी पर क़ब्ज़ा कर लिया और बहुत बड़ी संख्या में वहां रहने वाले लोगों का क़त्लेआम हुआ. 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान नौशेरा में डटे तो हुए थे, लेकिन क़बाइलियों ने उसके आसपास के इलाक़ों ख़ासकर उत्तर में नियंत्रण बना रखा था.
उस्मान उनको वहां से हटाकर चिंगास तक का रास्ता साफ़ कर देना चाहते थे, लेकिन उनके पास पर्याप्त संख्या में सैनिक नहीं थे, इसलिए उन्हें सफलता नहीं मिल पाई. 24 दिसंबर को क़बाइलियों ने अचानक हमला कर झंगड़ पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसके बाद उनका अगला लक्ष्य नौशेरा था. उन्होंने इस शहर को चारों तरफ़ से घेरना शुरू कर दिया.
'नौशेरा' की सबसे बड़ी चुनौती
4 जनवरी, 1948 को उस्मान ने अपनी बटालियन को आदेश दिया कि वो झंगड़ रोड पर भजनोआ से क़बाइलियों को हटाना शुरू करें. ये हमला बग़ैर तोपखाने के किया गया. लेकिन ये असफल हो गया और क़बाइली अपनी जगह से टस से मस नहीं हुए. इस सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने उसी शाम नौशेरा पर हमला बोल दिया.
लेकिन भारतीय सैनिकों ने उस हमले को नाकाम कर दिया. दो दिन बाद उन्होंने उत्तर पश्चिम से दूसरा हमला बोला. ये भी नाकामयाब रहा. फिर उसी शाम क़बाइलियों ने 5000 लोगों और तोपखाने के साथ एक और हमला बोला.
ब्रिगेडियर उस्मान के सैनिकों ने अपना पूरा ज़ोर लगाकर तीसरी बार भी क़बाइलियों को नौशेरा पर कब्ज़ा नहीं करने दिया. इसके बाद भी कई हमले हुए, लेकिन उस्मान ने कभी हार नहीं मानी....
क़बाइलियों का नौशेरा पर हमला
6 फ़रवरी, 1948 को कश्मीर युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई. सुबह 6 बजे उस्मान कलाल पर हमला करने वाले थे लेकिन तभी उन्हें पता चला कि कबाइली उसी दिन नौशेरा पर हमला करने वाले हैं.
इस हमले में क़बाइलियों की तरफ़ से 11000 लोगों ने भाग लिया. 20 मिनट तक गोलाबारी के बाद क़रीब 3000 पठानों ने तेनधर पर हमला किया और लगभग इतने ही लोगों ने कोट पर हमला बोला. इसके अलावा लगभग 5000 लोगों ने आसपास के इलाके कंगोटा और रेदियां को अपना निशाना बनाया. जैसे ही पौ फटी हमलावरों की ने रक्षण कर रहे उस्मान के सैनिकों पर ज़ोरदार हमला बोल दिया.
1 राजपूत की पलटन नंबर 2 ने इस हमले के पूरे आवेग को झेला. 27 लोगों की पिकेट में 24 लोग या तो मारे गए या बुरी तरह से घायल हो गए. बचे हुए तीन सैनिकों ने तब तक लड़ना जारी रखा जब तक उनमें से दो सैनिक धराशाई नहीं हो गए. सिर्फ़ एक सैनिक बचा था.
तभी वहां कुमुक पहुंच गई और उसने स्थिति को बदल दिया. अगर उनके वहाँ पहुंचने में कुछ मिनटों की भी देरी हो जाती तो तेनधार भारतीय सैनिकों के हाथ से जाता रहता.
अभी तेनधार और कोट पर हमला जारी था कि 5000 पठानों के झुंड ने पश्चिम और दक्षिण पश्चिम की ओर से हमला किया. ये हमला नाकामयाब किया गया. इस असफलता के बाद पठान पीछे चले गए और लड़ाई का रुख़ बदल गया.
इस लड़ाई में सैनिकों के अलावा 1 राजपूत के एक सफ़ाई कर्मचारी ने भी असाधारण वीरता दिखाई. क़बाइलियों के ख़त्म न होने वाले जत्थों के हमले के दौरान जब भारतीय सैनिक धराशाई होने लगे तो उसने एक घायल सैनिक के हाथ से राइफ़ल लेकर क़बाइलियों पर गोली चलानी शुरू कर दी.
हमारे देशवासियों की उम्मीदें और आशाएं हमारे प्रयासों पर लगी हुई हैं. हमें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए. हम बिना डरे झंगड़ पर क़ब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ेंगे. भारत आपसे अपना कर्तव्य पूरा करने की उम्मीद करता है." इस अभियान को 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया था.
कैसे हुई ब्रिगेडियर उस्मान की मौत?
ब्रिगेडियर उस्मान 3 जुलाई 1948 को पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ते हुए मारे गए. उस समय बाद में भारत के उप-थलसेनाध्यक्ष बने जनरल एस के सिन्हा मौजूद थे. उन्होंने इसका विवरण देते हुए मुझे बताया था, "हर शाम साढ़े पाँच बजे ब्रिगेडियर उस्मान अपने मातहतों की बैठक लिया करते थे.
उस दिन बैठक आधे घंटे पहले बुलाई गई और जल्दी समाप्त हो गई." "5 बज कर 45 पर क़बाइलियों ने ब्रिगेड मुख्यालय पर गोले बरसाने शुरू कर दिए. चार गोले तंबू से क़रीब 500 मीटर उत्तर में गिरे. हर कोई आड़ लेने के लिए भागा. उस्मान ने सिग्नलर्स के बंकर को ऊपर एक चट्टान के पीछे आड़ ली. उनकी तोपों को चुप कराने के लिए हमने भी गोलाबारी शुरू कर दी."
"अचानक उस्मान ने मेजर भगवान सिंह को आदेश दिया कि वो तोप को पश्चिम की तरफ़ घुमाएं और प्वाएंट 3150 पर निशाना लें. भगवान ये आदेश सुन कर थोड़ा चकित हुए, क्योंकि दुश्मन की तरफ़ से तो दक्षिण की तरफ़ से फ़ायर आ रहा था.
लेकिन उन्होंने उस्मान के आदेश का पालन करते हुए अपनी तोपों के मुँह उस तरफ़ कर दिए जहाँ उस्मान ने इशारा किया था. वहाँ पर कबाइलियों की 'आर्टलरी ऑब्ज़रवेशन पोस्ट' थी. इसका नतीजा ये हुआ कि वहां से फ़ायर आना बंद हो गया."
गैरिसन में छा गया था शोक
ब्रिगेडियर उस्मान के मरते ही पूरी गैरिसन में शोक छा गया. जब भारतीय सैनिकों ने सड़क पर खड़े हो कर अपने ब्रिगेडियर को अंतिम विदाई दी तो सब की आँखों में आँसू थे.
सारे सैनिक उस अफ़सर के लिए रो रहे थे जिसने बहुत कम समय में उन्हें अपना बना लिया था. पहले उनके पार्थिव शरीर को जम्मू लाया गया. वहाँ से उसे दिल्ली ले जाया गया.
देश के लिए अपनी ज़िंदगी देने वाले इस शख़्स के सम्मान में दिल्ली हवाई अड्डे पर बहुत बड़ी भीड़ जमा हो गई थी. सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंतयेष्ठि की.उनके जनाज़े को जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में दफ़नाया गया जिसमें भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ मौजूद थे.
इसके तुरंत बाद ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को मरणोपराँत महावीर चक्र देने की घोषणा कर दी गई.उस समय ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी ज़िदगी के 36 साल भी पूरे नहीं किए थे. अगर वो जीवित रहते तो निश्चित रूप से वो अपने पेशे के सर्वोच्च पद पर पहुंचते. झंगड़ के भारतीय सेना के हाथ से निकल जाने के बाद बहुत से आम नागरिकों ने नौशेरा में शरण ली थी. उस समय वहां खाने की कमी थी.
ता उम्र नहीं की शादी
उस्मान ने अपने सैनिकों को मंगलवार को व्रत रखने का आदेश दिया ताकि उस दिन का बचा हुआ राशन आम लोगों को दिया जा सके. ब्रिगेडियर उस्मान ने ताउम्र शराब नहीं पी. डोगरों के साथ काम करते हुए वो शाकाहारी भी हो गए थे.
वो पूरी उम्र अविवाहित रहे और उनके वेतन का बहुत बड़ा हिस्सा ग़रीब बच्चों की मदद के लिए जाता रहा.उनके जीवनीकार जनरल वी के सिंह एक क़िस्सा सुनाते हैं, "नौशेरा पर हमले के दौरान उन्हें बताया गया कि कुछ क़बाइली एक मस्जिद के पीछे छिपे हुए हैं और भारतीय सैनिक पूजास्थल पर फ़ायरिंग करने से झिझक रहे हैं.
उस्मान ने कहा कि अगर मस्जिद का इस्तेमाल दुश्मन को शरण देने के लिए किया जाता है तो वो पवित्र नहीं है. उन्होंने उस मस्जिद को ध्वस्त करने के आदेश दे दिए."भारत के सैनिक इतिहास में अब तक ब्रिगेडियर उस्मान वीर गति को प्राप्त होने वाले सबसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी हैं. झंगड़ मे उसी चट्टान पर उनका स्मारक बना हुआ है जहां गिरे तोप के एक गोले ने उनकी जान ले ली थी.