ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
इस वर्ष 25 मार्च 2024 को होली है. उर्दू शायरी में होली पर लिखी नज्में इस बात का प्रतीक हैं कि रंग और उल्लास का यह त्यौहार होली हिंदू-मुस्लिम दोनों ही संप्रदाय के बीच मेल मिलाप का अवसर है. होली पर भी बाबा बुल्ले शाह ने अपनी कलाम से कई शायरियां लिखीं, जिसमें सबसे खास और चर्चित है-‘होली खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह’. कृष्ण भगवान को होली अति प्रिय थी और रसखान उनके बड़े भक्त थे. रसखान ने राधा कृष्ण की होली का सरस चित्रण अपने पदों में किया है.
‘मोहन हो ही होरी
काल्ह हमारे आंगन गारो दै आयो सो कौ है री
अब क्यों बैठे जसोदा ढिग निकसो कुंजबिहारी
होली की गीतों को फाग कहा जाता है क्योंकि होली का त्यौहार वसंत ऋतु यानी फागन में मनाया जाता है. बहादुर शाह जफर ने होली पर पारम्परिक रागों में फागे लिखी है. उनकी होली विषयक नज्म में ब्रज और बुंदेलखंड के गांवों की होली का चित्रण साफ है.
क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी
देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी
भाग सकूं मैं कैसे मो सों भाग नहीं जात
ढाढ़ी अब देखूं और को सन्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने दूं
आज फगवा तोसो का पीठ पकड़ कर लूं
अकबर के नवरत्न में से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ मियां तानसेन होली के पर्व पर जनसामान्य के साथ होली समारोहों में सम्मिलित होते और होली के पद गाते थे-
‘लंगर बंटवार खेले होरी
बाट घाट कोउ निकसि न पावै पिचकारिन रंग बोरी
मै जु गई जमुना जल भरन, गहि तुम भीजी रोरी
तानसेन प्रभु नंद को ढोरा बरज्योंन मानत मोरी
ख्वाजा हैदर अली ‘आतिश’ लखनऊ के मशहूर शायर थे. उनके जीवन में भी होली पर शेर मिलते है.
खाके शहीदे नाज से भी होली खेलिये,
रंग इसमे हैं गुलाब का बूं है अबीर की
नजीर अकबरावादी (1735-1830 ई.) लोक प्रिय शायर ने होली पर सबसे अधिक नज्में लिखीं, नजीर का मानना था कि होली सिर्फ हिंदुओं का त्यौहार नहीं बल्कि सांझा त्यौहार है.
नजीर होली का मौसम जो जग में आता है,
वह ऐसा कौन है होली नहीं मनाता है
कोई तो रंग छिड़कता है कोई तो गाता है
जो खाली रहता है वो देखने आता है
होली के रंगों में सरोबोर नजीर अपनी होली की शायरी में होली के दृश्य चित्रित करते हुए.
गुलजार खिले हो परियो के औ मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हो औ हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगियां पर तक कर मारो हो
फायज देहलवी अठारवीं सदी के आरंभ के एक मशहूर शायर थे वे औरंगजेब के अंतिम दौर से मुहम्मद शाह के युग (1719-1748 ई.) तक जीवित रहे. उनकी रचना ‘तारीफे होली’ में दिल्ली में होली खेलने का विशेष वर्णन मिलता है.
‘ले अबीर और अरगजा भर कर रुमाल
छिड़कते है और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यू झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती है नारियां बिजली की सार
मीर (1772-1810 ई.) ने होली पर दो मस्नवियां और एक गजल लिखी है.
होली खेला आसुफद्दौला वजीर
रंग सुहबत से अजब है खुर्दो पीर
बीजापुर और गोलकुण्डा के जिन शायरों ने होली पर नज्में लिखी हैं उनमें कुली कुतुबशाह का नाम सर्वोपरि है.
बसंत खेले इश्क की आ पियारा
तुम्हीं मैं चांद में हूं जू सितारा
जोबन के हौजखाने में रंग मदन भर
सू रोमा रोम चर्किया लाए धारा
नबी सदके बसंत खेल्या कुतुबशाह
रंगीला हो रहिया तिरलोक सारा
हातिम भी इसी दौर के एक बड़े शायर थे उनकी नज्में भी होली पर मिलती हैं. उन्होंने अपने शेरों में स्त्रियों और पुरुषों के आपस में होली खेलने के दृश्य का संजीव चित्रण किया है.
मुहैया सब है अब असबाबे होली
उठो यारो भरो रंगों से झोली
इधर यार उधर खूबां सफआरा
तमाशा है तमाश है तमाश
शाह आलम सानी अपनी शायरी में होली की होरिहारिन का सरस वर्णन करते हुए लिखते हैं.
‘रंग भरी पिचकारी लिये अब आंगन में सखि आइ खरी है
चतुर नार खिलार बड़ो अति रूप तिया गुन की अगरि है
गावत फाग सुहाग भरी अरु अंगन में सब रंग भरी है
वरु हाथ सुगंध गुलाल लिये कहां फूलन बौछार करी है