वक्फ संशोधन विधेयक 2024:सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निगाहें

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 15-09-2025
Prayers, strategy and politics: Waqf decision raises new questions
Prayers, strategy and politics: Waqf decision raises new questions

 

मलिक असगर हाशमी

भारतीय मुसलमानों के लिए सोमवार का दिन एक ऐतिहासिक दिन होने की संभावना रखता है, क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत वक्फ संपत्तियों पर चल रहे दशकों पुराने विवाद पर अपना फैसला सुना सकती है. यह फैसला न केवल कानूनी रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि भारत में मुस्लिम समुदाय के भविष्य और उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के लिए भी निर्णायक साबित हो सकता है. यह मामला केवल संपत्तियों के प्रबंधन का नहीं, बल्कि आस्था, अधिकार और सरकार के हस्तक्षेप की सीमाओं से जुड़ा हुआ है.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) की दुविधा

इस विवाद के केंद्र में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, जो खुद को भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ का सबसे बड़ा संरक्षक बताता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले बोर्ड ने मुसलमानों से दुआ करने की अपील की. यह अपील जहां एक तरफ उनकी धार्मिक आस्था को दर्शाती है, वहीं दूसरी तरफ यह एक ऐसे संगठन की कमजोरी को उजागर करती है, जो अपने कानूनी और राजनीतिक संघर्षों में खुद को असहाय महसूस कर रहा है.

यह सवाल उठता है कि एक ऐसा संगठन, जो 22 करोड़ मुसलमानों की नुमाइंदगी का दावा करता है, क्या वह केवल दुआओं पर निर्भर रह सकता है? सोशल मीडिया पर आई प्रतिक्रियाओं से साफ है कि समुदाय अब केवल प्रतीकात्मक विरोध या धार्मिक अपीलों से संतुष्ट नहीं है. वे चाहते हैं कि उनके नेता ठोस रणनीति और मजबूत नेतृत्व दिखाएं.

वक्फ कानून में प्रस्तावित संशोधन: क्या है विवाद?

यह विवाद मुख्य रूप से वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 पर केंद्रित है. सरकार का तर्क है कि इस संशोधन का उद्देश्य वक्फ बोर्डों में भ्रष्टाचार को खत्म करना और संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन सुनिश्चित करना है.

इसके लिए, प्रस्तावित विधेयक वक्फ बोर्डों के अधिकारों को सीमित करता है, सरकार के नियंत्रण को बढ़ाता है और कुछ मामलों में जिला कलेक्टर को अधिक शक्तियां प्रदान करता है. सरकार का दावा है कि ये बदलाव मुस्लिम समुदाय की भलाई के लिए हैं.

हालांकि, विपक्षी दल और अधिकांश मुस्लिम संगठन, जिनमें AIMPLB और जमात-ए-इस्लामी हिंद शामिल हैं, इन संशोधनों का कड़ा विरोध कर रहे हैं. वे इसे मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता और वक्फ बोर्डों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप मानते हैं.

दिल्ली वक्फ बोर्ड के पूर्व वकील वजीह शफीक जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि इन प्रावधानों का दुरुपयोग मुस्लिम संपत्तियों और धार्मिक स्थलों पर कब्जा करने के लिए किया जा सकता है. दिल्ली में 123 संपत्तियों को लेकर चल रहा विवाद इसका एक ज्वलंत उदाहरण है. आलोचकों का मानना है कि सरकार का यह कदम राजनीति से प्रेरित है और इसका उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों को कमजोर करना है.

विरोध के पीछे के तर्क

मुस्लिम समूहों के विरोध के कई प्रमुख कारण हैं:

  1. सरकारी नियंत्रण का बढ़ना: प्रस्तावित विधेयक में जिला कलेक्टर और सरकार को वक्फ बोर्डों पर अधिक अधिकार दिए गए हैं. उदाहरण के लिए, यदि किसी संपत्ति पर सरकार का दावा है, तो कलेक्टर उसकी जांच करेगा और यदि वह सरकारी निकलती है तो उसे वक्फ संपत्ति नहीं माना जाएगा. विरोधियों का कहना है कि इससे सरकार को मुस्लिम धार्मिक स्थलों और संपत्तियों पर अधिकार करने का बहाना मिल जाएगा.

  2. धर्म में हस्तक्षेप: सज्जाद लोन और महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं का मानना है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. उनके अनुसार, वक्फ संपत्तियां मुसलमानों की सामूहिक संपत्ति हैं, और उनका प्रबंधन समुदाय को ही करना चाहिए. महबूबा मुफ्ती ने तो इसे "मुसलमानों को हाशिए पर धकेलने की एक बड़ी साजिश" का हिस्सा बताया है.

  3. समुदाय के परामर्श का अभाव: मुस्लिम संगठनों का आरोप है कि इस विधेयक को उनके साथ पर्याप्त परामर्श किए बिना तैयार किया गया है. यह उनकी भावनाओं और चिंताओं की उपेक्षा का संकेत है.

  4. निर्णय लेने की प्रक्रिया में बदलाव: नए विधेयक के अनुसार, किसी भी संपत्ति को वक्फ के रूप में पंजीकृत करने का अंतिम निर्णय कलेक्टर की रिपोर्ट पर निर्भर करेगा. यदि कलेक्टर को लगता है कि संपत्ति पर कोई विवाद है, तो उसे पंजीकृत नहीं किया जाएगा.

  5. आलोचकों का कहना है कि यह प्रावधान नौकरशाही को मनमाने ढंग से काम करने की शक्ति देगा और वक्फ संपत्तियों को नुकसान पहुंचा सकता है.

  6. नेतृत्व और विश्वास की कमी: कई लोग मानते हैं कि बोर्ड का नेतृत्व कमजोर और निष्क्रिय है. वे सरकार से सीधे बात करने के बजाय संगठनों से पर्दे के पीछे से बातचीत कर रहे हैं. यह रणनीति समुदाय के बीच विश्वास की कमी पैदा कर रही है.

सरकार का पक्ष और मीडिया रिपोर्टों का विश्लेषण

भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर जैसे नेताओं का कहना है कि इस विधेयक का उद्देश्य "सशक्तिकरण, दक्षता और विकास" है. उन्होंने यह भी दावा किया कि कैथोलिक और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसे कई संगठनों ने इस कदम का समर्थन किया है. सरकार का तर्क है कि वक्फ बोर्डों में भ्रष्टाचार एक गंभीर मुद्दा है और नए कानून से इसे खत्म करने में मदद मिलेगी.

मीडिया रिपोर्टें इस विवाद को एक बहुआयामी दृष्टिकोण से देखती हैं. स्क्रॉल, बीबीसी और हिंदुस्तान टाइम्स जैसी रिपोर्टें बताती हैं कि मुस्लिम समुदाय में वक्फ बोर्डों में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर असहमति नहीं है.

2006 की सच्चर समिति की रिपोर्ट ने भी वक्फ संपत्तियों से कम राजस्व मिलने की बात कही थी, जिससे सुधारों की आवश्यकता महसूस हुई. लेकिन असली सवाल यह है कि क्या सरकार का प्रस्तावित समाधान समस्या से बड़ा है? आलोचकों का कहना है कि यह विधेयक सिर्फ भ्रष्टाचार खत्म करने का बहाना है, जबकि असली मकसद मुस्लिम संपत्तियों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ाना है.

वे यह भी बताते हैं कि वक्फ की हजारों एकड़ जमीन पर सरकारी निकायों ने भी कब्जा कर रखा है, जिस पर विधेयक में कोई स्पष्ट रुख नहीं है.

सच्चर समिति की रिपोर्ट और वास्तविकता

न्यायमूर्ति सच्चर समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि वक्फ संपत्तियों से मिलने वाला वार्षिक राजस्व उनकी विशाल संख्या की तुलना में बहुत कम है. समिति ने अनुमान लगाया था कि इन संपत्तियों के कुशल उपयोग से सालाना 120 अरब रुपये का राजस्व मिल सकता है, जबकि वास्तव में यह केवल 2 अरब रुपये के आसपास है.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि "वक्फ हितों के संरक्षक राज्य द्वारा अतिक्रमण आम बात है." यह तथ्य इस बात पर जोर देता है कि वक्फ संपत्तियों की समस्याओं का एक बड़ा हिस्सा खुद सरकार और उसके संस्थानों द्वारा पैदा किया गया है.

एक नाजुक संतुलन

सुप्रीम कोर्ट का सोमवार को आने वाला फैसला भारत में मुस्लिम समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण होगा. यदि फैसला सरकार के पक्ष में आता है, तो यह वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन को एक नए, केंद्रीकृत मॉडल की ओर ले जाएगा.

लेकिन इससे समुदाय के बीच सरकार के इरादों को लेकर संदेह और गहरा हो सकता है. दूसरी ओर, यदि फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पक्ष में आता है, तो यह उनके नेतृत्व में एक नया विश्वास जगाएगा और उन्हें अपने संगठन को सुधारने और मजबूत करने का अवसर देगा.

इस पूरे प्रकरण में एक बात स्पष्ट है: यह केवल एक कानूनी लड़ाई नहीं है, बल्कि एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष है. यह संघर्ष इस बात को लेकर है कि क्या एक धार्मिक समुदाय को अपनी धार्मिक और धर्मार्थ संपत्तियों का प्रबंधन करने का अधिकार है, या क्या राज्य को "भ्रष्टाचार" के नाम पर इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए.

मुस्लिम समुदाय को न केवल अपने कानूनी अधिकारों की रक्षा करनी है, बल्कि अपने नेतृत्व को भी पुनर्जीवित करना है, ताकि वह इस तेजरफ्तार दुनिया में अपनी बात मजबूती से रख सके. यह समय केवल दुआओं का नहीं, बल्कि ठोस कार्रवाई, संगठनात्मक सुधार और एकजुटता का है.