उर्दू अदब ने चारदीवारी से बाहर आकर नाम कमाया, मोहम्मद एहसानुल हक कैसे बने प्रो कौसर मजहरी?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 18-12-2023
Mohammad Ehsanul Haq Prof. Kausar Mazhari
Mohammad Ehsanul Haq Prof. Kausar Mazhari

 

मोहम्मद अकरम / नई दिल्ली

उर्दू साहित्य के एक शिक्षक हैं, जिनकी किताबों से युवा अपने सपनों को पूरा कर रहे हैं, जिन्होंने उर्दू साहित्य को वह आकार दिया, जो आज अपने नाम के बजाय अपने शीर्षक के कारण पूरे उर्दू जगत में लोकप्रिय और प्रसिद्ध हैं, उनकी अब तक लगभग दो दर्जन पुस्तकें, अनेक मोनोग्राफ प्रकाशित हो चुके हैं, कभी-कभी वह अपने कलम के आगे चम्पारणी लगा लेता थे, और कभी केवल अपना नाम मोहम्मद एहसानुल हक लगाते थे. उनका नाम प्रोफेसर कौसर मजहरी है. वह बिहार राज्य के पूर्वी चंपारण जिले की एक मशहूर बस्ती चन्दनबारा गांव के रहने वाले हैं और वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं.

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प्रोफेसर कौसर मजहरी की शुरुआती शिक्षा गांव के मकतब में हुई. मैट्रिक में उत्तीर्ण होने के बाद मोतिहारी से आईएससी और बीएससी किया. उसके कुछ दिनों बाद पटना चले गए, जहां कुछ दिनों तक यूपीएससी और बीपीसी की तैयारी की. इस बारे में प्रो. कौसर मजहरी बताते हैं कि उसी समय मैंने बिहार यूनिवर्सिटी मुजफ्फरपुर से उर्दू ऑनर्स की परीक्षा भी दी, जिसमें में मुझे प्रथम स्थान हासिल हुआ. उसके बाद मैंने उर्दू में एमए में दाखिला लिया, जिसके बाद मेरा झुकाव और रुझान साहित्य की ओर हो गया.

दरभंगा से दिल्ली तक का सफर

वह कहते हैं ‘‘मैंने प्रोफेसर शमीम हनफी की देखरेख में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पीएचडी में दाखिला लिया. कुछ दिनों के बाद मैंने पीएचडी छोड़ दी और दरभंगा जिले के एक हाई स्कूल में पढ़ाने के लिए चला गया, लेकिन लेकिन वहां मेरा मन नहीं लगा. मेरी पीएचडी अधूरी रह गई थी. इसलिए मैंने हाई स्कूल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और फिर यहां (जामिया मिल्लिया इस्लामिया) पीएचडी के लिए दाखिला लिया. वर्ष 1997 में, अपनी पीएचडी पूरी करने से पहले, मुझे इसी जामिया के उर्दू विभाग में एडहॉक सेवा मिली और 1998 में, मैं एक नियमित उर्दू व्याख्याता के पद पर आ गया.’’

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साहित्य को पढ़ने वाले लोग कितने गंभीर हैं?

उर्दू छात्रों के बारे में प्रो. कौसर मजहरी कहते हैं ‘‘मैंने उर्दू भाषा का विकास और पतन दोनों देखा है. उर्दू, मीडिया के किसी भी रूप में, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो, हर जगह उर्दू भाषा का उपयोग किया गया है, लेकिन भाषा को बढ़ावा देने का हमारा पारंपरिक तरीका बदल गया है, इसलिए यह विचार करने का विषय है कि इस साहित्य को पढ़ने वाले लोग कितने गंभीर हैं? इस पर बात करने की जरूरत है. उर्दू साहित्य की ओर बहुत कम लोग आते हैं. मेरा अनुभव यह रहा है कि उर्दू साहित्य की ओर या भाषा की ओर, छात्र मदरसों से ही ज्यादा आते हैं.’’

साहित्य ने विदेशों में भी नाम कमाया है

वर्तमान समय में उर्दू की हालत और उसके विकास के बारे में वो कहते हैं कि हम उर्दू साहित्य को देखें, तो कहना होगा कि उर्दू साहित्य एक सीमा है, जो भाषा की एक सीमा है. इस साहित्य ने विदेशों में भी अपना नाम कमाया है, लेकिन जब उसका साहित्य स्थानांतरित होता है, तो अन्य लोग भी प्रभावित होते हैं और इसे पढ़ते हैं. युवाओं में उर्दू साहित्य सबसे ज्यादा लोगों को पसंद है. मुशायरे को आम तौर पर एक सार्वजनिक मुशायरे के रूप में देखा जाता है, जो बहुत सफल होता है. वहां बहुत भीड़ होती है, जहां हर तरह के लोग होते हैं. वहां रिक्शा चालक से लेकर छात्र तक हर तरह के लोग मुशायरे में हिस्सा लेते हैं, क्योंकि इसकी पहुंच सार्वजनिक स्तर तक होती है.

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पटना का इकबाल हॉस्टल

प्रोफेसर कौसर मजहरी अपने छात्र दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि मैं पटना में पढ़ाई के दौरान इकबाल हॉस्टल में रहता था. अपना ज्यादातर समय खुदाबख्श लाइब्रेरी में बिताता था, जहां महान साहित्य को पढ़ता था और जहां पहली बार मैंने प्रोफेसर मोहम्मद हसन, सरदार जाफरी को देखा था.

आप उर्दू साहित्य को कैसे देखते हैं?

हमें उर्दू साहित्य और भाषा के भविष्य से निराश नहीं होना चाहिए, बिहार और दक्षिण में कुछ जगहों पर उर्दू पढ़ाई जा रही है, स्कूल स्तर पर उर्दू का पुनरुद्धार भी हो रहा है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि जहां उर्दू नहीं पढ़ाई जा रही है, वहां उर्दू पढ़ाई जाए. उर्दू भाषा और साहित्य स्वर्णिम, जहां प्राथमिक स्तर पर उर्दू भाषा की पढ़ाई नहीं हो रही है. वहीं जिला स्तर पर नहीं, बल्कि स्कूलों या ब्लॉक स्तर पर एक दबाव समूह बनाना चाहिए. हर राज्य के मंत्री या मुख्यमंत्री से मिला जाए और समस्या को रखा जाए.

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जो कुछ दिया, उर्दू ने दिया

उर्दू ने मेरे व्यक्तित्व को, मेरे जीवन को, मेरे घर को, मेरे गांव को, मेरे समाज को संवारा और बनाया है. भले ही मैं कुछ दे पाया हूं या दे पाऊंगा? भविष्य में, यह भाषा और उर्दू के माध्यम से है. मैंने उर्दू से जो कुछ भी सीखा है, उसने मुझे बहुत कुछ दिया है. मेरी जो भी पहचान है, वह इसी उर्दू के कारण हैं और लोग जानते हैं. अगर मैं उर्दू से जुड़ा नहीं होता, तो मैं उर्दू का कवि या लेखक नहीं होता, शायद कोई मुझे नहीं जानता. यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है. मैंने ज्यादातर आलोचना में काम किया है, कविताएं भी लिखी हैं और पिछले दिनों एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है.

मौज-ए-अदब के अब तक 14 संस्करण प्रकाशित

पहली बार 1991 में मेरी किताब प्रकाशित हुई थी, जब मैंने मौज-ए-अदब लिखा था. उस समय मैंने कुछ नोट्स बनाए थे, जिसके बाद में संशोधन किए गए और यह एक अच्छी आलोचनात्मक पुस्तक बन गई. अब तक इसके 14 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. ये मेरी लोकप्रिय तीसरी किताब है, इसके अलावा मेरे निबंधों का संग्रह है, मेरे पहले संग्रह का नाम था जुरत-ए-अफकार, दूसरे संग्रह का नाम था केरतुल मुकालमा, तीसरे संग्रह का नाम इरतेसाम है. अब तक पांच मोनोग्राफ प्रमुख संस्थानों के लिए लिखे हैं. साहित्य अकादमी से दो, बिहार उर्दू डायरेक्टोरेट से एक जमील मजहरी पर, एनसीपीयूएल से शेख इब्राहिम जौक पर एक, पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी से सरदार जाफरी पर प्रकाशित हुए हैं. हाल के दिनों में भारत और पाकिस्तान की नज्मों का एक बड़ा इंतेखाब, जो सौ पन्नों पर, वह प्रकाशित होने वाली है. हमें उम्मीद है कि उर्दू नज्म पर इसे लोग सराहेंगे.

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अपने नाम के आगे मजहरी लगाने का उद्देश्य क्या है?

इस हवाले से प्रो. कौसर मजहरी कहते हैं कि ये हमें विरासत में मिला है. छात्र जीवन में मेरे लेख मोहम्मद एहसानुल हक के नाम से प्रकाशित हुए और कुछ दिनों तक एहसानुल हक चम्पारणी के नाम से भी. लेकिन बाद में, मेरे पिता का नाम मजहरुल हक है, उसी नाम से मैंने मजहरी लिया और इस तरह मैं अपने नाम के आगे मजहरी लगाता हूं यानी प्रो. कौसर मजहरी.