वक्फ अमेंडमेंट एक्ट 2025,सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और पसमांदा संशय

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-05-2025
Wakf Amendment Act 2025, Supreme Court hearing and Pasmanda doubts
Wakf Amendment Act 2025, Supreme Court hearing and Pasmanda doubts

 

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डॉ० फैयाज अहमद फैजी

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की स्वीकृति के बाद वक्फ (संशोधन) विधेयक 2025 अब कानून बन गया है. लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है. इस पूरे मुद्दे को पसमांदा दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं.

क़ानून की मौजूदा स्तिथि

यह कानून अत्यधिक मुकदमेबाजी, न्यायिक निगरानी की कमी,भ्रष्टाचार,अनियमितता, साधन संपन्न अशराफ वर्ग के संख्या के हिसाब से अत्यधिक प्रतिनिधित्व और मुसलमान में सामाजिक न्याय जैसे लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों को संबोधित करते हुए व्यापक पैमाने पर गहन विचार विमर्श और मंथन कर एक अधिक समावेशी और जवाबदेह ढांचा बनाने का प्रयास करता है.

इसके प्रमुख परिवर्तनों में वक्फ के गठन को फिर से परिभाषित, सर्वेक्षण और पंजीकरण (वक़्फ़नामा ) प्रक्रिया में सुधार करना, सरकारी निगरानी को सशक्त बनाना,गैर मुस्लिम सदस्यों,महिलाओं और पस्मान्दा समुदाय को वक्फ से संबंधित निकायों में शामिल करके समावेशिता सुनिश्चित करना शामिल है.

उपयुक्त प्रावधान देश में वक्फ संपत्ति प्रबंधन को आधुनिक, लोकतांत्रिक और सेकुलर बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.

अशराफ वर्ग और विपक्ष की मंशा

अशराफ संगठनों और विपक्षी पार्टियों द्वारा इस कानून को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में लगभग 65 - 100 याचिका दायर की गई हैं.ज्ञात रहे कि विपक्षी पार्टियां मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी सफल नीति, अशराफ संगठन, पसमांदा भागीदारी की विरोध के आड़ मे अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव), 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार), 25 (धार्मिक स्वतंत्रता), 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता), 29 (अल्पसंख्यकों के अधिकार), 30 (धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकार) और 300 ए (संपत्ति का अधिकार) रूपी अनुच्छेदों का आवरण ओढ़ कर इस कानून को चुनौती दें रहें हैं.

सुप्रीम कोर्ट में स्थिति

सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान वक्फ बाय यूजर और वक़्फ़ निकायो मे गैर मुसलमानों की नियुक्ति पर टिप्पणी करते हुए केंद्र सरकार को एक हफ्ते का समय देते हुए अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना जवाब दाखिल करने को कहा है.

 साथ ही साथ  5 मई को सुनवाई की अगली तारीख तय कर दी है. हालांकि पीठ ने अधिनियम पर रोक लगाने से स्पष्ट रूप से ये कहते हुए इनकार कर दिया कि कानून में बहुत कुछ सकारात्मक बातें हैं, लेकिन इस दौरान यथास्थिति बनाए रखने पर जोर दिया.

कोर्ट की इस टिप्पणी पर मीडिया मे पक्ष विपक्ष के बहस से पसमांदा समाज मे बेचैनी और संशय की स्थिति उत्पन्न हो गई. कहीं एक्ट में उसकी भागीदारी का जो प्रावधान किया गया है उस पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े ? ये बात समझने की आवश्यकता है की कोर्ट के कार्य करने की अपनी एक प्रक्रिया और प्रणाली होती है जिसमे तारीख देना और रोक लगाना आम बात है.

वक़्फ़ बाय यूजर की स्तिथि

वक़्फ़ बाय यूजर से तात्पर्य उस प्रथा से है, जिसमें किसी संपत्ति, जैसे मस्जिद, मदरसा,दरगाह, कब्रिस्तान या कोई अन्य प्रॉपर्टी औपचारिक लिखित विलेख के बिना ही लंबे समय से लगातार धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया जाता रहा है.

वक़्फ़ बाय यूजर सामुदायिक उपयोग और दीर्घकालिक सार्वजनिक स्वीकृति के आधार पर दस्तावेजी सबूत के अभाव में भी संपत्तियों को वक्फ के रूप में दर्ज करने की अनुमति देता है.

वक़्फ़ बाय यूजर पर सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि नये क़ानून लागु होने के बात प्रॉपर्टी का पंजीकरण या वक़्फ़नामा आवश्यक होगा.जो कि न्याय संगत होने के साथ इलामिक धर्म क़ानून सम्मत भी है.

हाँ क़ानून की मंशा के मुताबिक पुरानी वक़्फ़ बाय यूजर की प्रॉपर्टी की यथा स्तिथि बरकरार रहेगी लेकिन वों प्रॉपर्टी विवादित नहीं होनी चाहिए, विवाद होने पर उसे क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करना पड़ेगा.

 सरकार की तरफ से केंद्रीय संसदीय और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने भी वक्फ संशोधन अधिनियम को लेकर लग रहे आरोपों (सरकार संपत्तियों को “छीनने” का इरादा रखती है),को ये कहते हुए खारिज कर दिया कि सरकार संविधान और कानून के अनुसार काम कर रही है.किसी की संपत्ति अनुचित तरीके से नहीं ली जा सकती है.

इस बिंदु पर स्थिति की और अधिक स्पष्टता केंद्र सरकार का कोर्ट में जवाब दाखिल होने के बाद आने की है.

ग़ैर मुस्लिम की नियुक्ति की स्तिथि

यहाँ यह जानना अतिआवश्यक है कि वक़्फ़ बोर्ड मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरह एक प्राइवेट संस्था नहीं है बल्कि वक्फ बोर्ड एक वैधानिक निकाय (कानूनी संस्था) का सरकारी उपक्रम है जिसका कंट्रोल सरकार के और उपकर्मो की तरह सरकार के पास होता है.

भारत सरकार लोकतांत्रिक और सेक्यूलर है- अतः इसके सारे उपक्रमों में दोनों बिन्दुओं का समावेश सरकार की जिम्मेदारी है जिसे सरकार ने पूरा किया है.

लैंगिक समानता के लिए महिलाओं को भागेदारी देना मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना करते हुए पिछड़े मुसलमानों की भागीदारी देना बिल्कुल सामान्य संवैधानिक प्रक्रिया है.

सुप्रीम कोर्ट ने भी 2010 में रामराज फाउंडेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के केस में ये फैसला दिया था कि वक्फ बोर्ड एक धार्मिक संस्था नहीं. ये कानूनी संस्था है जो वक्फ की प्रॉपर्टी का रखरखाव करती है.

कर्नाटक स्टेट वक्फ बोर्ड बनाम नजीर अहमद केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वक्फ बोर्ड एक विधि निकाय है, न कि धार्मिक संस्था. एक अन्य फैसले मे तमिलनाडु हाई कोर्ट ने भी अपने आदेश मे वक़्फ़ बोर्ड को धार्मिक संगठन होने पर कहा था कि इसके पास कोई स्वायत्त धार्मिक अधिकार नहीं है.

अतः बोर्ड वक्फ संपत्ति का रख-रखाव करने वाली संस्था है. इसलिए प्रशासनिक संस्था में मुस्लिम या गैर मुस्लिम को शामिल करना न्याय संगत प्रतीत होता है. गैर मुस्लिम सदस्यों के शामिल किए जाने से धार्मिक स्वतंत्रता में कोई दखल नहीं होता और ये अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता), अनुच्छेद 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता), के विरुद्ध भी प्रतीत नहीं होता. 

दूसरे यह कि हरियाणा, पंजाब सहित भारत के अन्य प्रदेशों में बहुत सी मस्जिदें आदि मुस्लिम धार्मिक संस्थानों की देखभाल सिख और हिन्दू बिना किसी निजी स्वार्थ के करते हैं. फिर ऐसे लोग यदि वक्फ के प्रबंधन में आते हैं तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. ज्ञात रहे कि भारत एक ऐसा देश है

जहां पारसी, दिनशाह, फरदुनजी मुल्ला द्वारा लिखित मोहम्मडन कानून के अनुसार एक हिन्दू न्यायाधीश मुस्लिम पर्सनल लॉ मामलों फैसले सुनता है. पूरी दुनिया में धर्मनिरपेक्षता का ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण विरले ही मिले.

उम्मीद की जा सकती है कि अगली सुनवाई मे ये तथ्य और पसमांदा भागीदारी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वतः संज्ञान मे ली जायेगी.ज्ञात रहे कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के फैसले को बरकरार रखने वाला सुप्रीम कोर्ट के फैसले में न्यायालय ने कहा था कि यदि “विशेष परिस्थितियों में विशेष समाधान की आवश्यकता हो” तो राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का अधिकार है.

 ठीक वैसे ही अगर कोर्ट वक़्फ़ बोर्ड के विसंगतियों, भ्रष्टाचार और इसके मूल हितधाराको की अनदेखी,साधन संपन्न अशराफ वर्ग की अत्यधिक भागेदारी ,वंचित पस्मान्दा समाज की बेबसी पर नजर करती है तो ये फैसला भी सरकार के पक्ष मे होने की प्रबल आशा की जा सकती है.

(लेखक अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक हैं)