मेहमान का पन्नाः यह देश किधर जा रहा है

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 09-05-2022
यह देश आखिर किधर जा रहा है
यह देश आखिर किधर जा रहा है

 

मेहमान का पन्ना ।

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे

देश किधर जा रहा है या हम इसे कहां ले जा रहे हैं इसका अंदाज़ा लगाना किसी ‎के लिए भी मुश्किल नहीं होगा. नफ़रत और तिरस्कार का जो बाज़ार गर्म किया गया, ‎जिस तरह मुसलमानों के ख़िलाफ़ बयानबाज़ियां हुईं, शपथ दिलाए और लिए गए, वह ‎किसी से भी ढका-छिपा नहीं है और उस पर पर्दा पड़ा रहे यह स्वयं नफ़रत के व्यापारी ‎भी नहीं चाहते.

वह तो ख़ुदा भला करे हमारे दोस्त और प्रसिद्व पत्रकार क़ुर्बान अली और ‎न्यायविद रंजना प्रकाश, कपिल सिब्बल, दुष्यंत दुबे और प्रशांत भूषण का, ‎जिन्होंने इस देश की सबसे बड़ी अदालत (सर्वोच्च न्यायालय) में तथ्यों को स्पष्ट रूप से ‎प्रस्तुत करके अदालत को इसका संज्ञान लेने पर राज़ी कर लिया और फिर अदालत ने ‎बुराड़ी हो या हरिद्वार या फिर हिमाचल, हर घटना का सख़्त संज्ञान लिया और सरकारों ‎‎एवं प्रशासन के प्रभारी लोगों की जवाबदेही सुनिश्चित की.

मौलाना सैयद महमूद असद मदनी और मौलाना सैयद अरशद मदनी के नेतृत्व वाले ‎जमीअत उलेमा के दोनों धड़ों ने जिस दिलेरी और साहस के साथ ग़रीबों और शोषितों के ‎लिए न्याय संभव बनाने के लिए अथक प्रयास किया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है.

मौलाना ‎सैयद महमूद असद मदनी जिस तरह से बौद्धिक और व्यावहारिक स्तर पर वर्तमान परिदृश्य ‎में सबको एक जगह जमा करके एक बेहतर और अधिक व्यावहारिक रणनीति तैयार करने ‎के प्रयास में लगे हुए हैं जिससे कि देश और मज़हब दोनों परेशानियों में पड़ने से बच जायें ‎वह भी अत्यंत सराहनीय प्रयास है.  ‎         

मुझे ख़ुशी है कि जमात-ए-इस्लामी हिन्द के अध्यक्ष जनाब सआदतुल्लाह हुसैनी भी ‎स्थिति को बहुत ध्यान से देख रहे हैं, सत्य और न्याय के शासन को संभव बनाने के साथ ‎ही इस बात को सबको समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं कि अभी भी इस मुल्क के ‎हिन्दुओं की बड़ी आबादी सांप्रदायिक मानसिकता की शिकार नहीं हुई है, इसलिए हमें उनसे ‎‎एक सक्रिय संपर्क बनाना चाहिए और बातचीत करनी चाहिए.

इसी तरह, हज़रत मौलाना ‎असग़र अली इमाम मेहदी सलफ़ी, ऑल इण्डिया जमीयत अहले हदीस के अध्यक्ष और ‎आला हज़रत फाज़िले बरेली के पोते मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान भी कुछ इसी तरह के ‎प्रयास कर रहे हैं और ये तो सिर्फ़ कुछ नाम हैं अन्यथा कई मुस्लिम नेता और समाजसेवी ‎देश के कोने-कोने में देश और मुसलमान दोनों के लिए चिंतित हैं कि कहीं स्थिति नियंत्रण ‎से बाहर न हो जाए.

‎यह कैसी विडंबना है कि कर्नाटक में जहां हिजाब के नाम पर उठा तूफ़ान अभी थमा ‎भी नहीं है, वहां अब मुसलमानों के साथ-साथ ईसाइयों को भी निशाना बनाया जा रहा है ‎‎एवं वह लोग जो सरकारी स्कूलों में गीता पढ़ाने की योजना बना रहे हैं वह एक निजी ‎ईसाई मिशनरी स्कूल में बाइबिल की शिक्षा दिए जाने पर हंगामा कर रहे हैं.

हम पहले भी ‎कह चुके हैं और एक बार फिर कहते हैं कि हमें किसी धर्म विशेष की पुस्तकों को पढ़ाने में ‎कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यह किसी धर्म विशेष तक सीमित नहीं होना चाहिए और यदि ‎किसी विशेष धर्म की पुस्तक या उसके कुछ हिस्सों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना है ‎तो इसके लिए एक व्यापक पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए जिसमें भारत की सभी ‎धार्मिक इकाइयों की शिक्षाएं शामिल हों.

एक तरफ़ आप यह कहते हैं कि किसी पर ‎ज़ोर-ज़बरदस्ती के साथ किसी धर्म विशेष की किताब को पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया ‎जाएगा और दूसरी तरफ़ आप सरकारी स्कूलों में केवल गीता की पढ़ाई को अनिवार्य करने ‎की बात कर रहे हैं.

कर्नाटक में ही आपने मुस्लिम लड़कियों को सिर्फ़ हिजाब पहनने के ‎जुर्म में परीक्षा देने की अनुमति नहीं दी और इस प्रकार उनकी ज़िंदगी का एक क़ीमती साल ‎बर्बाद कर दिया, जबकि उनके मामले की सुनवाई अभी सुप्रीम कोर्ट में होनी है और सुप्रीम ‎कोर्ट ने कोई आदेश नहीं दिया है. ऐसे समय में इन बच्चियों को परीक्षा देने से वंचित ‎रखना कहां का न्याय है?

यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब आप आज नहीं दें लेकिन ‎कल का इतिहासकार आपको इसके लिए कभी माफ़ नहीं करेगा. एक तरफ़ आप बेटी ‎बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बात करते हैं वहीं दूसरी तरफ़ आप मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से ‎वंचित रखना चाहते हैं.

इसी तरह मुस्लिम विरोधी भावना की एक अभिव्यक्ति यह है कि गुजरात, मध्य प्रदेश, ‎दिल्ली और इन सबसे पहले यूपी में न्यायपालिका को सुनवाई का मौका दिए बिना ग़रीबों ‎और निर्दोषों के घरों, पूजा स्थलों, मज़ारों एवं मदरसों पर बुलडोजर चलवा दिया गया. ‎इनमें भी सबसे शर्मनाक और दर्दनाक वह दृश्य है जब दिल्ली प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष ने ‎उत्तर-पूर्व नगर निगम के मेयर को जहांगीरपुरी में बुलडोजर चलाने और उसके अनुसार ‎कार्रवाई करने का निर्देश दिया.

वह तो सर्वोच्च न्यायालय का भला हो कि उसने किसी ‎तरह से हस्तक्षेप किया और इस प्रक्रिया को एक निश्चित सीमा से आगे नहीं जाने दिया. ‎सवाल यह है कि क्या अब अदालतों के जजों की जगह सत्ता पक्ष के पदाधिकारी फ़ैसले ‎लेंगे और उनके आदेश पर ऐसी जवाबी कार्रवाई या तोड़फोड़ की कार्रवाई होगी? कल, ‎अगर अदालत के फैसले से साबित होता है कि विध्वंस अभियान गलत था, तो क्या सरकार ‎और सत्ताधारी पार्टी के अधिकारी क्षतिपूर्ति करेंगे?

इसी तरह, जामिया अशरफ़िया ‎मुबारकपुर, आज़मगढ़ जो इस्लामी धर्मशास्त्र के प्रसार के लिए एक प्रमुख केंद्र है और ‎दुनिया में जिसकी अपनी एक पहचान है, की शिक्षकों की एक आवासीय कॉलोनी जो कि ‎तीन दशक पहले बनी थी उसको बिना किसी पूर्व सूचना के, बिना किसी सुनवाई के गिरा ‎दिया गया और यह आरोप लगाया गया कि ये सभी निर्माण सरकारी नालों पर किया गया ‎था.

सवाल यह है कि पिछले 30 वर्षों में उत्तर प्रदेश में कई भाजपा सरकारें बनी हैं, उस ‎समय उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? ऐसा लगता है कि मुसलमानों को ‎डराने-धमकाने के लिए ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं जो बेहद दर्दनाक है. हम भी सरकारी ‎‎या गैर-सरकारी जमीन पर अवैध क़ब्ज़े, हेराफेरी और निर्माण के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन पहले ‎अदालत को यह तय करने तो दें कि यह वास्तव में हुआ है या नहीं.

अगर न्यायपालिका ‎हर स्तर पर आपके पक्ष में फ़ैसला करती है तो सरकार को क़ानूनी कार्रवाई करने का ‎अधिकार है लेकिन अदालतों के फैसलों से पहले ख़ुद ही वादी, ख़ुद ही गवाह और ख़ुद ही ‎जज बन जाना किस तरह जायज़ हो सकता है यह बात समझ से परे है?‎

‎(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)‎