देश के मुसलमानों की बदलती तस्वीर

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 08-02-2021
देश के मुसलमानों की बदलती तस्वीर
देश के मुसलमानों की बदलती तस्वीर

 

 
Dr Amarnath Pathak डाॅ.अमरनाथ पाठक 

देश में मुसलमानों की जो छवि परोसी जा रही है वह न उचित है न सच्चाई. देश की आजादी से लेकर राष्ट्र निर्माण तक मे मुसलमानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. मिसाइलमैन के रूप में विख्यात स्वर्गीय राष्ट्रपति  प्रोफेसर (डाॅ.)एपीजे अब्दुल कलाम साहब का हिन्दुस्तान हमेशा कृतज्ञ रहेगा. यहां मैं प्रसिद्ध शायर व लाहौर के सरकारी लाहौर काॅलेज के व्याख्याता मुहम्मद इकबाल की 1905 लिखी अमर रचना को उद्धृत करना चाहूंगा.
 
 
" सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा..हम बुलबुले हैं इसके ये गुलसितां हमारा..!"इकबाल साहब  की यह रचना ' 'बंग-ए-दारा 'में महफूज है. उनका यह शेर हिन्दुस्तानियों की जुबान से भी सर चढ़कर बोलता है. महान स्वतंत्रता सेनानी व काकोरी कांड के नायक अशफाक उल्ला खां को कौन भूल सकता है. खां साहब उर्दू के शायर भी थे. खां साहब काकोरी कांड के दूसरे प्रमुख नायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के अजीम दोस्त थे. दोनो की शायराना मुलाकात की एक घटना स्वतंत्रता संग्राम का अहम हिस्सा है.

 
खां साहब शाहजहांपुर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल से मिलने गये थे. दोनो की मुलाकात शायरी के साथ हुई. खां साहब ने बिस्मिल साहब को जिगर मुरादाबादी की शेर--
 

" कौन जाने ये तमन्ना  इश्क की मंजिल में है...जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है..!" उस वक्त इश्क देश की आजादी का प्रतीक बन गया था. जवाब में बिस्मिल साहब ने जो शेर सुनाया वह देश के जज्बात बन चुके हैं. "  "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है...देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है..!"

ऐसी ही भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक अल्लाह बख्श सूमरो को माना जाता है.अल्लाह बख्श सूमरो 1938 और 1942 के बीच दो बार सिंध प्रांत के प्रमुख रहे. आज के जमाने में यह दर्जा मुख्यमंत्री का होता है. सूमरो एक प्रतिबद्ध देशभक्त थे जिनसे मुस्लिम लीग बहुत नफरत करती थी. वह एक सामंती सिंधी परिवार से आते थे लेकिन वह अपने सरल जीवन और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे.
 
यह कुप्रचार कि सभी मुसलमानों ने एक आवाज में द्विराष्ट्र सिद्धांत (दो-राष्ट्र सिद्धांत) के आधार पर भारत के बंटवारे की मांग की थी,यह कई दशक पुराना है, लेकिन आज इसे फिर से हवा दी जा रही है. नवराष्ट्रवादियों की जमात सभी मुसलमानों को मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग के साथ जोड़कर हिंदुस्तान को बांटने वाला बता रही है.  लोग भूल जाते हैं कि मुसलमानों ने सचेतन रूप से हिंदुस्तान में रहने का फैसला लिया था.
 
जबकि उनके सामने पाकिस्तान जाकर पाकिस्तानी हो जाने या भारत को अपनी मातृभूमि बनाने के दो विकल्प थे. यहां के मुसलमानों ने भारत को चुना. इसी तरह का चयन पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं ने भी किया लेकिन एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और विविधता वाले भारत में रहना और एक प्रतिगामी और कट्टरपंथी इस्लामिक पाकिस्तान में रहना दो अलग-अलग बातें थीं और दोनों ओर रुकने वालों के भविष्य ने इसे साफ तौर पर साबित किया है.
 
भारत में राजनीति के दुर्भाग्यपूर्ण विकास और जारी सांप्रदायिक उन्माद ने मुझे इतिहास को ताजी आंखों से देखने के लिए मजबूर कर दिया. यहां सभी मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त बताकर उन्हें देश का दुश्मन कह कर बदनाम करने का एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है.  सोशल मीडिया मे यह फैलाया जा रहा है कि इन देशद्रोहियों को तथाकथित राष्ट्रीय हित के मद्देनजर पाकिस्तान भेज दिया जाना चाहिए.
 
लेकिन क्षुद्र बहुसंख्यकवादी राजनीतिक स्वार्थ की खातिर सभी मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करना ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बेईमानी है. हम एक ऐसे राष्ट्र हैं जो इतिहास से चिपका हुआ है, जो ज्यादातर काल्पनिक ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की चिंता में मरा जा रहा है जबकि उसे अतीत से सबक लेने की जरूरत है.
 
हममें से कई लोग अतीतजीवी हैं जो अतीत में बुरी तरह से रमाए हुए हैं. बहुत सारे लोगों को लगता है कि आजादी के वक्त के नेता मौलाना आजाद ही एक ऐसी मुस्लिम शख्सीयत थे जो भारत का बंटवारा ना होने के लिए अकेले लड़ रहे थे जबकि बहुसंख्यक भारतीय मुसलमान पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग के साथ खड़ा था .यह दावा बेबुनियाद है और इतिहास का अध्ययन करने से सही तथ्यों को समझने में मदद मिलती है.
 
जरूरी है कि हमारे इतिहास के अनजान नायकों के बारे में बात कर गलतफहमियां दुरुस्त की जाएं। देश विभाजन के आसपास ऐसे कई ऐतिहासिक चरित्र हैं जिनकी भूमिका नफरत और देश विभाजन की राजनीति का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण थी. ऐसे ही  नायक थे अल्लाह बख्श सूमरो. वह 1938 और 1942 के बीच दो बार सिंध प्रांत के प्रमुख रहे. आज के जमाने में यह दर्जा मुख्यमंत्री का होता है.
 
सूमरो एक प्रतिबद्ध देशभक्त थे जिनसे मुस्लिम लीग बहुत नफरत करती थी. वे लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे. वह बस 20 साल के थे, जब उन्होंने खादी पहननी शुरू की. आज हम सुनते हैं कि सत्ता के प्रतीक के रूप में झंडे का कैसा गलत इस्तेमाल होता है, लेकिन उन्होंने सामंती और औपनिवेशिक काल में भी अपनी आधिकारिक गाड़ी में कभी झंडा नहीं लगाया.
 
आज अविभाजित भारत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को याद किए जाने की जरूरत है. सूमरो सभी तरह की सांप्रदायिक ताकतों की विभाजनकारी राजनीति के सामने एक मुख्य चुनौती के रूप में उभरे, खासकर मुस्लिम लीग की राजनीति के सामने. इसमें कोई शक नहीं कि मौलाना आजाद कॉम्पोजिट या साझे राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय प्रतीक थे लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें सूमरो जैसी ताकतवर क्षेत्रीय आवाजों से हिम्मत मिलती रही थी.
 
सूमरो की मुस्लिम लीग विरोधी राजनीति को विस्तार से समझने के लिए लंबी चर्चा की जरूरत पड़ेगी इसलिए मुझे बस देश विभाजन के दुखद ऐतिहासिक अध्याय के एक जरूरी हिस्से के बारे में बता लेने दीजिए. मुस्लिम लीग ने 23 मार्च 1940 को लाहौर में मुसलमानों के लिए एक स्वतंत्र देश की सिफारिश वाला प्रस्ताव पारित किया था. इसके तुरंत बाद 27 से 30 अप्रैल 1940 के बीच सूमरो ने दिल्ली में देशभक्त मुसलमानों के एक बड़े सम्मेलन का आयोजन किया जिसका नाम उन्होंने दिया आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस.
 
मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति की निंदा करने के लिए उस सम्मेलन में देश भर से करीब 75000 लोग जमा हुए थे. सम्मेलन में भाग लेने वाले ज्यादातर लोग अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक संगठनों से जुड़े थे जो पिछड़े और कारीगर वर्ग के मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करते थे.
 
सम्मेलन में इनकी भागीदारी से साफ हो जाता है कि मुस्लिम लीग मुस्लिम समाज के अशरफ या सुविधा संपन्न मुसलमानों की प्रतिनिधि पार्टी थी और बहुसंख्यक अजलफ या पिछड़े वर्ग का मुसलमान लीग की राजनीति से आकर्षित नहीं था.अंग्रेजों ने मुसलमानों के एक सहयोगी वर्ग की पहचान कर मुस्लिम लीग के गठन में मदद की लेकिन यह वर्ग अमीर जमींदार, कारोबारी और पेशेवर लोगों का वर्ग था.
 
लीग में जो लीडरशिप पैदा हुई उसे मुस्लिम समाज के अन्य वर्गों के झुकाव का पता नहीं था जबकि उसका दावा था कि लीग उनकी भी प्रतिनिधि पार्टी है।आजाद इसे जल्दी समझ गए थे। 1912 में उर्दू भाषा के अखबार अल हिलाल में भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में उन्होंने लिखा था :उनकी जिंदगी की सबसे बदनसीब बात यह है कि उनके बीच एक एलीट वर्ग है जो उनकी अगुवाई कर रहा है, जो खुद को इस समाज का स्वयंभू नेता मानता है
 
इन्होंने अपने सर पर खुद ही ताज डाल लिया है, इन्हें जनता ने ताज नहीं पहनाया है.   खुदगर्ज नेतृत्व उसे दबाता है और उसे खत्म कर देता है क्योंकि इसके पास दौलत की ताकत है. अप्रैल 1940 में आयोजित आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में अपने अध्यक्षीय संबोधन में सूमरो ने लीग के धर्म और विरासत के नाम पर गलत तर्कों का भंडाफोड़ किया था.
 
अपने भाषण में उन्होंने साझे इतिहास और साझी विरासत पर विस्तार से बात रखी और सबको मिलाकर बने भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद पर जोर दिया और बताया कि विभिन्न समुदायों के बीच जो करार है उसे तोड़ देने में किसी का भला नहीं है. 28 अप्रैल 1940 को द संडे स्टेटमेंट में उनके भाषण का वह अंश छापा था 
 
उस वक्त 90,000,000 मुस्लिमों का बहुसंख्यक हिस्सा भारत के सबसे पुराने लोगों में से एक है और वह भी द्रविड़ और आर्यों की तरह ही भूमिपुत्र है. उसका भी इस जमीन पर पहले पहल बसने वालों की तरह का दावा है. केवल अलग धर्म अपना लेने भर से कोई राष्ट्र से अलग नहीं हो जाता. वैश्विक विस्तार की प्रक्रिया में इस्लाम कई राष्ट्रीयताओं और क्षेत्रीय संस्कृतियों से घुलता मिलता रहा है.

उन्होंने हिंदू और मुसलमानों की साझी विरासत के लंबे इतिहास का उल्लेख किया था. उनके भाषण का एक अंश उस वक्त हिन्दुस्तान टाइम्स में  छपा था. हिंदू, मुसलमान और किसी भी अन्य लोगों द्वारा पूरे हिंदुस्तान या इसके किसी खास हिस्से का दावा सिर्फ अपने लिए करना एक  गलती है. एक मुकम्मल और संघीकृत और मिलीजुली इकाई के रूप में यह देश यहां रहने वाले सभी लोगों का है और इसकी विरासत पर भारतीय मुसलमानों का भी उतना ही हक है जितना अन्य भारतीयों का'.
 
  मौलाना आजाद की तरह वह भी संयुक्त भारत के ऊपर मंडरा रहे खतरे से वाकिफ थे.आज अपने हम वतन मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की धमकी देने वालों के दावों के काट के लिए सूमरो के बारे में और गंभीरता से बात करने की जरूरत है. लेकिन  वह फिर कभी किताब के पन्नों में होगी. यहां मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि हिंदुस्तान हमारी साझी विरासत है.आज हम सब को मिलजुलकर इसे आगे ले जाने की जरूरत है जिसके सपने राष्ट्रवादियों ने देखे थे.
(  लेखक साहित्यकार तथा मगध विश्वविद्यालय, बोधगया में प्रशासनिक पदाधिकारी हैं)