तालिबान और अशराफ राजनीति : एक पसमांदा दृष्टिकोण

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 12-10-2025
Taliban and Ashraf Politics: A Pasmanda Perspective
Taliban and Ashraf Politics: A Pasmanda Perspective

 

sडॉ फैयाज अहमद फैजी 

अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान शासन के विदेश मंत्री की हालिया भारत यात्रा ने क्षेत्रीय और घरेलू दोनों स्तरों पर नई राजनीतिक और वैचारिक बहस को जन्म दिया है. अशराफ वर्ग द्वारा इस दौरे को भारत द्वारा तालिबान की वैचारिकी की वैधता देने के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.यह यात्रा ऐसे समय हो रही है जब भारत–पाकिस्तान और पाकिस्तान–तालिबान के संबंध तनावपूर्ण हैं. पाकिस्तान से दूर होकर तालिबान अब अपनी “स्वतंत्र” पहचान स्थापित करने की कोशिश में है. यही भारत के साथ उसके संवाद की पृष्ठभूमि बनता है.

भारत, उन कुछ देशों में से है जो तालिबान से सीमित राजनयिक संपर्क बनाए हुए हैं. काबुल में भारत का एक छोटा मिशन सक्रिय है. वह अफ़ग़ानिस्तान को लगातार मानवीय सहायता भेजता रहा है.

भारत की नीति स्पष्ट है यह किसी वैचारिक स्वीकार्यता का संकेत नहीं, बल्कि क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद-नियंत्रण, मानवीय सहयोग और सीमाई स्थिरता पर केंद्रित एक इशू-बेस्ड इंगेजमेंट है. भारत भली-भाँति जानता है कि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिरता का सीधा असर उसकी सुरक्षा और दक्षिण एशियाई संतुलन पर पड़ता है.

भारत न तालिबान की विचारधारा को स्वीकार करता है, न किसी धार्मिक कट्टरता को मान्यता देता है.हालाँकि घरेलू राजनीति में अशराफ वर्ग के कुछ लोग इस संवाद को “भारत द्वारा तालिबान की स्वीकृति” बताकर प्रस्तुत कर रहें हैं, जबकि वस्तुतः यह भारत की व्यवहारिक और दूरदर्शी कूटनीति का हिस्सा भर है.

भारत के तथाकथित अशराफ वर्ग में अफ़गानिस्तान से जुड़ी हालिया कूटनीतिक पहल को लेकर उत्साह देखा जा रहा है. इन तबकों के कई नेता और विचारक इस यात्रा को भारत द्वारा तालिबान की वैधता स्वीकारने के रूप में प्रचारित भी कर रहे हैं.

मानो भारत अब “तालिबान के कट्टर इस्लामी शासन” को मान्यता दे रहा हो. यह प्रवृत्ति न केवल भ्रामक है बल्कि खतरनाक भी, क्योंकि इसका उद्देश्य तालिबान की वैचारिकी को भारत में देवबंदी धार्मिक ढाँचे के ज़रिये वैध ठहराना है.

अनेक अशराफ बुद्धिजीवी और धार्मिक संगठन तालिबान को “इस्लामी अस्मिता” के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते रहें हैं.विडंबना यह है कि यही लोग भारत में सेक्युलरिज़्म, लोकतंत्र और संविधान की बात करते हैं, पर जब तालिबान की बात आती है तो “यह उनका आंतरिक मामला है” या “तालिबान बदल चुका है” जैसे तर्क देने लगते हैं. यानी भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता और अफ़गानिस्तान के लिए शरीयत !

इस वैचारिक दोहरेपन से न केवल मुस्लिम समाज के भीतर भ्रम पैदा होता है, बल्कि बाहरी समाज में यह धारणा भी मजबूत होती है कि मुस्लिम नेतृत्व धार्मिक कट्टरता के प्रति सहानुभूति रखता है. जबकि सच्चाई यह है कि भारत के अधिकांश मुसलमान खासकर पसमांदा तबका तालिबान की विचारधारा और उसके अमानवीय शासन के खिलाफ रहा हैं.

तालिबान की “इस्लामी हुकूमत” की अवधारणा की वैचारिक जड़ें 19वीं सदी के देवबंदी आंदोलन में मिलती हैं, जिसकी नींव दारुल उलूम देवबंद (1866) में रखी गई. इस विचारधारा की वैचारिक रेखा शाह वलीउल्लाह (1703–1762) तक जाती है, जिन्होंने “शुद्ध इस्लाम” और शरिया शासन की वकालत की.

यह सोच सैयद अहमद बरेलवी (1786–1831) और शाह इस्माईल के सिख शासन के विरुद्ध जिहाद में मूर्त रूप में दिखी, जिसने बाद में धार्मिक कट्टरता और “इस्लामी राज्य” की अवधारणा को जन्म दिया.

देवबंद आंदोलन ने औपनिवेशिक शासन के विरोध के बहाने “इस्लामी पुनर्निर्माण” के नाम पर शरिया नियंत्रण और धार्मिक वर्चस्व की वैधता दी.विभाजन के बाद पाकिस्तान में मौलाना अब्दुल हक़ ने खैबर पख्तूनख्वा में दारुल उलूम हक्कानिया की स्थापना की.

उनके पुत्र मौलाना समी-उल-हक़  जिन्हें “तालिबान का जनक” कहा जाता है  ने इस मदरसे को तालिबान नेताओं की वैचारिक और धार्मिक प्रशिक्षण का केंद्र बना दिया. तालिबान के अनेक शीर्ष नेता यहीं से प्रशिक्षित हुए हैं.

देवबंद से ही तबलीगी जमात और जमीयत उलमा-ए-हिंद जैसी संस्थाएँ निकलीं हैं. जमीयत का एक गुट पाकिस्तान के निर्माण में सक्रिय रहा. विडंबना यह है कि आज भी भारतीय देवबंद में उन उलेमा को भी आदर्श माना जाता है जिन्होंने पाकिस्तान की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया था.

तालिबान की वैचारिकी दरअसल देवबंदी-हनफ़ी परंपरा का उग्र रूप है जो धार्मिक राष्ट्र के नाम पर सामंती और कट्टर इस्लामी शासन की स्थापना की आकांक्षा रखती है.

तालिबान का ढाँचा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि जातीय और सांस्कृतिक वर्चस्व पर आधारित है. यह मुख्यतः पश्तून-प्रभुत्व वाला संगठन है, जो हज़ारा, ताजिक, उज़्बेक और बलोच समुदायों को स्वयं से कमतर समझता है. इसी कारण इसे अफ़ग़ानिस्तान की संपूर्ण जनता का समर्थन कभी नहीं मिला. उत्तरी गठबंधन के नेता अमरुल्ला सालेह और अन्य गैर-पश्तून समूह सदैव इसके विरोध में रहे हैं.

तालिबान की दृष्टि में अफ़ग़ानिस्तान वस्तुतः “पख्तूनिस्तान” है, जिसने देश को नस्लीय रूप से बाँट दिया. परिणामस्वरूप तालिबान इस्लामी एकता नहीं, बल्कि सामाजिक विभाजन का प्रतीक बन गया. जैसे ईरान सैय्यद शिया कट्टरता और सऊदी अरब कट्टर वहाबी विचारधारा के केंद्र हैं, वैसे ही अफ़ग़ानिस्तान आज देवबंदी कट्टरपंथ का वैश्विक प्रतीक बन चुका है.

भारतीय मुस्लिम समाज में लंबे समय से अशराफ नेतृत्व धार्मिक और राजनीतिक मंचों जैसे जमीयत उलेमा-ए-हिंद, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और वक्फ बोर्ड पर वर्चस्व बनाए हुए है. इन संस्थानों की प्राथमिकता कभी भी पसमांदा अर्थात दलित, पिछड़े, और आदिवासी मुसलमानों के मुद्दे नहीं रहे. शिक्षा, रोज़गार और प्रतिनिधित्व जैसे प्रश्न आज भी इनकी विचार  के दायरे से बाहर हैं.

विडंबना यह है कि जब पसमांदा समाज सामाजिक न्याय और बराबरी की बात करता है, तो यही नेतृत्व “मुस्लिम एकता” और “इस्लाम ख़तरे में है” जैसे नारों के सहारे उसकी आवाज़ को दबा देता है. 

आज ज़रूरत इस बात की है कि पसमांदा समाज, यह समझें कि इस्लामी अस्मिता” के नाम पर तालिबान जैसी विचारधाराएँ उनके हितों की नहीं, बल्कि अशराफ सत्ता-संरचना की पोषक हैं. भारत का तालिबान से संवाद केवल कूटनीतिक है, वैचारिक नहीं। ऐसे में उन अशराफ तत्वों को पहचानना ज़रूरी है जो इस संवाद का राजनीतिक दुरुपयोग करना चाहते हैं.


(लेखक अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा-सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक हैं.)