साकिब सलीम
मैं जिस फ्लाइट में चढ़ा था, वह अयोध्या पहुंची. मीडिया चैनलों, सनसनीखेज यूट्यूबर्स और सोशल मीडिया प्रभावितों ने मुझे विश्वास दिलाया कि शहर ने एक खास तरह की राजनीति के कारण अपना समन्वयवादी अतीत खो दिया है.दोनों चरमपंथियों के लोगों ने दावा किया कि अयोध्या का इस हद तक 'हिंदूकरण' कर दिया गया है कि वापस लौटना संभव नहीं.
अयोध्या, हिंदुओं का एक पवित्र शहर, जो इसे भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं. उत्तर भारत की गंगा जमुनी संस्कृति का केंद्र भी है.हाल के वर्षों में रामजन्मभूमि आंदोलन, बाबरी मस्जिद और सांप्रदायिक दंगों को लेकर उत्साह ने भारत की समन्वयवादी संस्कृति के उद्गम स्थल के रूप में अयोध्या की छवि को धूमिल किया है.
अयोध्या, या फैजाबाद, जिसे जिले के सबसे बड़े शहर के रूप में जाना जाता है, लखनऊ से पहले अवध के नवाब की राजधानी थी.राजधानी लखनऊ स्थानांतरित होने के बाद भी संस्कृति और कला के केंद्र के रूप में इस शहर का महत्व कम नहीं हुआ.
अवध साहित्य के क्षेत्र में प्रमुखता से उभरा.कई महान लेखक और कवि दिल्ली से अवध चले गए.19वीं शताब्दी के दौरान मीर तकी मीर, मिर्ज़ा रफ़ी सौदा, गुलाम हमदानी मुसाफ़ी और कई अन्य महान कवियों ने अवध में शरण ली.
यह वह समय था जब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक ऐसा बंधन विकसित हुआ,जो पहले कभी नहीं था.नवाब स्वयं हिंदू देवताओं की प्रशंसा में लिखते थे.हिंदू इस्लामी कविताएँ गाते थे.
1980 और 90 के दशक ने इस महान सांस्कृतिक विरासत को बाधित करने का प्रयास किया.कई लोगों का मानना है कि नफरत की राजनीति ने सामान्य तौर पर अवध और विशेष रूप से अयोध्या की गंगा जमुनी संस्कृति को सफलतापूर्वक नष्ट कर दिया.
मैं इस धारणा के साथ अयोध्या गया था कि गंगा जमुनी तहजीब की जमुना अब मर चुकी है.अवध में केवल गंगा ही बह रही है.जिस दिन मैं वहां पहुंचा,मुझे अयोध्या के कवियों की एक निजी सभा में भाग लेने के लिए कहा गया.यह एक मीठा झटका था. दुनिया के जिस हिस्से में मैं रहता था, वहां कवियों का ऐसा मिलन बीते युग का अध्याय है.
यह सभा शहर के अमेरिका स्थित न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. सैफ अहमद के घर पर हो रही थी.स्थानीय जौहरी नूरैन अंसारी ने बैठक बुलाई जिसमें मुझे भी सुनने के लिए आमंत्रित किया गया.
अवधी समन्वयवादी संस्कृति की परंपराओं को ध्यान में रखते हुए, सभा में हिंदी के साथ उर्दू कवि भी शामिल हुए.एक स्थानीय उर्दू कवि रामजीत यादव 'बेदार' ने अयोध्या की संस्कृति को एक दोहे के साथ व्यक्त किया, "धर्म की राहों पर चलते हुए आदमी गिर नहीं सकता, मगर हां ये शर्त है, के आदमी अंधा ना हो" धर्म का मार्ग.
इस बैठक की अध्यक्षता शहर के वरिष्ठ शायर फरहत इरफानी ने की. उनकी शायरी ने साबित कर दिया कि अवध ने उर्दू साहित्य में अपना स्वर्णिम अतीत नहीं खोया है.उनका दोहा, "उड़ा तो ऐसा उड़ा, फिर न आया सू-ए-जमीन, दिमाग आपका घुब्बारा लग रहा है मुझे" .
हिंदी कवि एल. डी. शर्मा ने इस तथ्य पर अफसोस जताया कि राजनीति ने लोगों के बीच दरार पैदा कर दी है.उन्होंने राजनेताओं को "शर्म-निर्पेक्ष" कहा (इस शब्द का अर्थ है जिसे धर्मनिरपेक्षता के लिए हिंदी शब्द 'धर्म-निर्पेक्ष' की तर्ज पर कोई शर्म नहीं है).
एक अन्य हिंदी कवि, नीरज सिन्हा ने भी नफरत की राजनीति पर अपनी बंदूकें उठाईं जो भारतीय लोगों को विभाजित करने की कोशिश करती है.एक दोहे के साथ, "जमीन पर बैठने से ही मेरे जज़्बात जिंदा हैं, सुना है कुर्सियां इंसान की फितरत बदलती हैं." उनकी कविता मानवीय भावनाओं और समाज के बारे में थी.
कम्पेयरिंग मुज़म्मिल फ़िदा ने की, जो शायरों को पेश करने की इस कला में किसी से पीछे नहीं थे.मैं सुरक्षित रूप से कह सकता हूं कि उनकी शैली, ज्ञान और विषय की गहराई उतनी अच्छी थी जितनी दिल्ली में किसी भी उच्च सदन में पाई जा सकती है.
कई अन्य कवियों ने हिंदी और उर्दू में कविताएं सुनाईं.उन सभी का विचार था कि आम शिक्षित लोगों को प्यार फैलाना चाहिए.नफरत को हराना चाहिए.जैसे ही मैं उस घर से बाहर निकला जहां यह बैठक आयोजित की गई थी, अयोध्या और अवध के बारे में मेरी धारणा बदल गई.
मैंने दिल्ली में जितने भी लोगों को फोन किया, उन्हें यह बताने के लिए फोन किया कि अवध में गंगा जमुनी संस्कृति अभी भी बह रही है, बल्कि फल-फूल रही है.हिंदू और मुसलमान एक साथ रह रहे हैं. हंस रहे हैं और रो रहे हैं.जैसा कि वे सदियों से करते आ रहे हैं.