गुलाम रसूल देहलवी
दिल्ली की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित सूफी दरगाहों में से एक, महरौली स्थितहज़रत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी रहमतुल्लाह अलैहिकी दरगाह, हर वर्ष होने वाले उर्स के अवसर पर न केवल सूफी परंपरा की रूहानी विरासत का प्रतीक बन जाती है, बल्कि भारत के साझा सांस्कृतिक इतिहास की भी गवाही देती है.हाल ही में सम्पन्न हुए तीन दिवसीय उर्स के दौरान, देश के कोने-कोने से आए श्रद्धालुओं की उपस्थिति ने फिर यह साबित किया कि यह दरगाह आज भी लोगों के दिलों में एकता, प्रेम और सौहार्द की लौ जलाए हुए है.
जब लेखक ने इस दरगाह की विख्यात शाम की रस्म ‘रौशनी’ में हिस्सा लिया, जिसमें दरगाह पर चादर और दीप अर्पित किए जाते हैं, तो उन्हें महात्मा गांधी की उसी दरगाह पर 27 जनवरी, 1948 की ऐतिहासिक यात्रा स्मरण हो आई—एक ऐसी यात्रा जिसे शायद उनकी अंतिम "तीर्थयात्रा" कहा जा सकता है.
गांधी जी की यह यात्रा विभाजन के बाद उपजी सांप्रदायिक हिंसा की पृष्ठभूमि में हुई थी.भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने दिल्ली सहित पूरे उत्तर भारत को भयावह सांप्रदायिक तनाव में झोंक दिया था.
मुस्लिम समुदाय के लोग असुरक्षित महसूस कर रहे थे, उनका पलायन शुरू हो चुका था, और कई पवित्र स्थलों को नुकसान पहुँचाया जा चुका था.ऐसे माहौल में गांधी जी ने उस सूफी दरगाह की ओर रुख किया, जो न केवल दिल्ली के मुस्लिम समुदाय के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए आध्यात्मिक एकता और समावेशिता का प्रतीक थी.
ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, जिन्हें अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने “क़ुतुब-उल-अक्ताब” यानी “ध्रुवों का ध्रुव” की उपाधि दी थी, वहदतुल वजूदयानीअस्तित्व की एकताके सूफी दर्शन के प्रमुख प्रवर्तक माने जाते हैं.यह सूफी विचारधारा अद्वैतवाद से मिलती-जुलती है, जिसमें हर व्यक्ति और जीव की आत्मा परमात्मा से जुड़ी मानी जाती है.गांधी जी इस दर्शन के प्रति गहराई से आकर्षित थे.
गांधी जी ने यह यात्रा केवल श्रद्धांजलि के लिए नहीं की थी.यह यात्रा एक गहरा राजनीतिक और नैतिक संदेश भी लिए हुए थी.वे यह दिखाना चाहते थे कि भारत की आत्मा बहुलवाद, सह-अस्तित्व और धार्मिक समावेशिता में निहित है.
दरगाह में पहुंचकर उन्होंने वह संदेश दिया जिसे आज भी समय-समय पर याद किया जाना चाहिए: "मैं यहाँ तीर्थयात्रा पर आया हूँ.मैं आपसे अनुरोध करता हूँ. कि इस पवित्र स्थान पर यह प्रण लें कि आप कभी भी कलह को सिर उठाने नहीं देंगे."
गांधी जी की यह यात्रा करीब दो घंटे तक चली.उनके साथ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और राजकुमारी अमृत कौर जैसे प्रमुख नेता भी मौजूद थे.यह न केवल एक धार्मिक स्थल पर उपस्थिति थी, बल्कि एक भयभीत समुदाय के साथ खड़े होने का ऐतिहासिक प्रयास था.दरगाह में उपस्थित लोगों के बीच गांधी जी ने साफ शब्दों में कहा कि यह स्थान न केवल मुस्लिमों का है, बल्कि भारत की सांझी संस्कृति का केंद्र है.
गौरतलब है कि यह यात्रा उनकी हत्या से ठीक तीन दिन पहले हुई थी.30 जनवरी, 1948 को बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा के लिए जाते समय गांधी जी को नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी.इस प्रकार महरौली शरीफ़ की यह यात्रा उनके जीवन की अंतिम सार्वजनिक यात्राओं में से एक बन गई.
गांधी जी ने उस यात्रा में न केवल सांप्रदायिक सौहार्द का आह्वान किया, बल्कि समुदायों को आत्म-परिक्षण का भी संदेश दिया.उन्होंने अपने उर्दू भाषण में कहा: “मैं उन मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों से, जो शुद्ध हृदय से यहाँ आए हैं, अनुरोध करता हूँ कि वे यह संकल्प लें कि वे कभी भी कलह को सिर उठाने नहीं देंगे, बल्कि मित्र और भाईचारे की तरह एकजुट होकर सौहार्दपूर्वक रहेंगे.”
इस दरगाह यात्रा के बाद, गांधी जी लगातार नेताओं और समुदायों से संवाद में लगे रहे.उन्होंने धार्मिक नेताओं को मनाया कि वे मुसलमानों की मस्जिदों और दरगाहों की रक्षा करें, और जो स्थान बर्बाद हुए हैं, उन्हें मुस्लिम समुदाय को लौटा दिया जाए.
यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी जी की अपील पर, जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली प्रशासन को निर्देश दिया कि मुस्लिम धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार और मरम्मत के लिए धन जारी किया जाए.अभिलेखों में दर्ज है कि गांधी जी के कहने पर लगभग 117 मस्जिदों और दरगाहों को मुस्लिम समुदाय को लौटाया गया.
दरगाह यात्रा के एक और महत्वपूर्ण पक्ष की बात करें तो, उस दिन गांधी जी ने पहली बार महिलाओं को गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति दिलवाई—जो कि पारंपरिक रूप से वर्जित था.उनके लिए यह महज एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाजिक समता और लैंगिक समानता का प्रतीक था.गांधी जी ने कहा कि यह अवसर “हृदयों की शुद्धि” और “नई शुरुआत” का प्रतीक बनना चाहिए.
आज, जब हम महात्मा गांधी की विरासत को याद करते हैं, तो केवल उनकी मूर्तियों पर फूल चढ़ाना या उनके उद्धरण दोहराना पर्याप्त नहीं है.हमें उनके दिखाए रास्ते पर चलना होगा.महरौली शरीफ़ की दरगाह आज भी इस दिशा में एक जीवंत प्रतीक के रूप में खड़ी है.दरगाह और पास के योगमाया मंदिर के बीच हर वर्ष निकाली जाने वाली ‘फूलों की सैर’—जिसमें हिंदू, मुस्लिम और सिख सभी भाग लेते हैं—गांधी जी के दिखाए रास्ते पर चलने का जीवंत उदाहरण है.
‘फूलों की सैर’ केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब का उत्सव है.यह परंपरा गांधी जी की उस अपील को मूर्त रूप देती है, जिसमें उन्होंने भारत की धार्मिक विविधता को स्वीकार करने और सम्मान देने की बात कही थी.दरगाह और मंदिर के बीच पुष्पांजलि अर्पित करना केवल धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संवाद है.
मंज़ूर जहूर चिश्ती जैसे स्थानीय सूफी कार्यकर्ता बताते हैं कि गांधी जी की 1948 की यात्रा ने इस परंपरा को और अधिक गहराई दी.उन्होंने इसेगांधीवादी सेक्युलरिज़्मकी एक जीवंत मिसाल कहा—एक ऐसी संस्कृति जिसमें सभी समुदाय मिलकर एक-दूसरे के धार्मिक स्थलों की गरिमा को स्वीकार करते हैं और मिलकर जीवन जीते हैं.
महरौली शरीफ़ के स्थानीय लोग आज भी यह याद करते हैं कि कैसे गांधी जी ने उस समय मुसलमानों से दिल्ली छोड़कर पाकिस्तान न जाने की अपील की थी.उन्होंने व्यक्तिगत रूप से उन्हें आश्वस्त किया कि यह उनका देश है, और वे इसमें परदेशी नहीं हैं.गांधी जी की यह अपील उस समय कितनी प्रभावशाली रही, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अनेक मुस्लिम परिवार जिन्होंने पलायन की तैयारी कर ली थी, उन्होंने अपना निर्णय बदल दिया.
आज, जब हमारे समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण फिर से उभर रहा है और सांप्रदायिक तनाव राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन गया है, महरौली शरीफ़ की यह घटना एक प्रासंगिक और प्रेरक स्मृति के रूप में हमारे सामने है.गांधी जी की यह यात्रा न केवल एक ऐतिहासिक क्षण थी, बल्कि एक ऐसा नैतिक और राजनीतिक हस्तक्षेप था, जिसने एक खंडित होते समाज में भरोसे और साझा संस्कृति की नींव रखने की कोशिश की.
गांधी जी की महरौली यात्रा यह स्पष्ट कर देती है कि भारत की ताक़त बहिष्कार में नहीं, बल्कि समावेशिता में है.उन्होंने बहुसंख्यकों को यह बताया कि उनकी शक्ति तब है जब वे "दूसरों" को अपनाते हैं, और अल्पसंख्यकों को यह यकीन दिलाया कि उनका अस्तित्व इस राष्ट्र में मूलभूत है, न कि कृपा पर आधारित.
आज जब हम महात्मा गांधी को याद करते हैं, तो महरौली शरीफ़ में उनकी यात्रा की पुनः व्याख्या और पुनरावलोकन करना न केवल प्रासंगिक है, बल्कि आवश्यक भी.इस दरगाह में उनका रुकना एक आध्यात्मिक अनुभव से कहीं अधिक था—यह एक राष्ट्र के लिए, एक चेतावनी, एक संदेश और एक मार्गदर्शन था.
अगर हम सच में गांधी जी का सम्मान करना चाहते हैं, तो हमें महरौली की उस दरगाह की ओर देखना होगा, जहाँ एक हिंदू संत नेता ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक घायल राष्ट्र के लिए प्रेम और साझी विरासत का बीज बोया था.यही गांधी की असली श्रद्धांजलि है.