खुर्शीद मलिक
मैंने जावेद अख्तर और मुफ्ती शमाइल नदवी के बीच “क्या ईश्वर मौजूद है?” विषय पर हुई इस बहस को दो-तीन बार ध्यान से देखा और सुना है। इसके बाद अपने विचार और निष्कर्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह बहस दिल्ली में सौरभ द्विवेदी की निगरानी में हुई और दो घंटे से अधिक समय तक चली। दोनों पक्षों ने तर्क और बुद्धि के आधार पर अपने-अपने विचार रखे, लेकिन दोनों के तर्कों में कुछ मजबूती के साथ-साथ स्पष्ट कमजोरियाँ भी नजर आईं। कुल मिलाकर यह बहस संतुलित रही, पर कोई भी पक्ष निर्णायक रूप से दूसरे पर भारी नहीं पड़ सका।

मुफ्ती शमाइल नदवी के तर्क: मजबूती और सीमाएँ
मुफ्ती शमाइल नदवी ने अपने तर्कों की शुरुआत दर्शनशास्त्र की अवधारणा “मुमकिन-उल-वजूद” से की। उनके अनुसार यह ब्रह्मांड स्वयं अपने अस्तित्व का कारण नहीं हो सकता, इसलिए इसके लिए एक “वाजिब-उल-वजूद” यानी ईश्वर का होना आवश्यक है। उन्होंने गुलाबी गेंद और निर्जन द्वीप जैसी मिसालें दीं और कहा कि जैसे ये चीजें अपने-आप नहीं बन सकतीं, वैसे ही पूरी कायनात भी किसी सृजनकर्ता के बिना संभव नहीं है।
शुरुआत में ये तर्क मजबूत लगते हैं, क्योंकि वे न तो सीधे धार्मिक ग्रंथों पर आधारित हैं और न ही वैज्ञानिक दावों पर, बल्कि तर्क और दर्शन पर टिके हैं। उन्होंने जावेद अख्तर के भावनात्मक तर्कों को भी तर्कदोष बताते हुए चुनौती दी।
लेकिन गहराई से देखने पर इन तर्कों में कुछ खामियाँ सामने आती हैं। पहली बड़ी कमजोरी यह है कि मुफ्ती साहब पहले से ही यह मान लेते हैं कि ब्रह्मांड “मुमकिन-उल-वजूद” है और उसी आधार पर ईश्वर की आवश्यकता सिद्ध करते हैं। यह एक प्रकार का चक्रीय तर्क है, जिसमें निष्कर्ष को पहले ही मान लिया जाता है। दूसरी बात, वे कारणों की श्रृंखला को अनंत मानने से इनकार करते हैं और ईश्वर को “पहला कारण” बताते हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं करते कि ईश्वर स्वयं कारण से मुक्त क्यों है।
यह विशेष अपवाद का तर्कदोष बन जाता है यानी सब कुछ नियम के अधीन है, सिवाय ईश्वर के। तीसरी कमी यह है कि रोजमर्रा की वस्तुओं जैसे गेंद की तुलना पूरे ब्रह्मांड से करना एक कमजोर उपमा है, क्योंकि ब्रह्मांड की प्रकृति और पैमाना अलग है। आधुनिक क्वांटम विज्ञान में ऐसे विचार मिलते हैं, जो बताते हैं कि कुछ चीजें बिना पारंपरिक कारण के भी अस्तित्व में आ सकती हैं।
जावेद अख्तर के तर्कों की कमजोरियाँ
जावेद अख्तर ने अपने पक्ष में धर्मों के इतिहास, आस्था और विश्वास के अंतर तथा दुनिया में मौजूद बुराई और हिंसा का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि धर्म ईश्वर पर बिना प्रमाण के विश्वास करने को कहता है, जो तर्कसंगत नहीं है। मानव इतिहास में ईश्वर की अवधारणाओं में आए बदलावों को उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व के खिलाफ तर्क के रूप में पेश किया। उनकी भाषा में काव्यात्मकता थी और शराब की लत या ट्रैफिक नियमों जैसी रोजमर्रा की मिसालों ने बहस को रोचक बनाया।
हालांकि उनके तर्कों में भी कई कमजोरियाँ थीं। सबसे बड़ी कमी यह रही कि उन्होंने दार्शनिक तर्कों की जगह भावनाओं और ऐतिहासिक घटनाओं पर अधिक जोर दिया। उदाहरण के तौर पर, गाजा में तबाही का हवाला देकर उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि मानव स्वतंत्रता और बुराई का होना तर्कसंगत रूप से ईश्वर के अस्तित्व को कैसे नकारता है।
यह तर्क कम और भावनात्मक अपील अधिक प्रतीत होता है। दूसरी बात, आस्था को “मूर्खतापूर्ण” कहना प्रभावशाली भाषा हो सकती है, लेकिन यह स्वयं एक ठोस दार्शनिक तर्क नहीं है। तीसरी कमजोरी यह थी कि उन्होंने वैज्ञानिक प्रगति को ईश्वर की अनुपस्थिति से जोड़ दिया, जबकि विज्ञान “कैसे” का उत्तर देता है, “क्यों” का नहीं।
गाजा के उदाहरण में दोनों की कमजोरी
गाजा की त्रासदी के संदर्भ में दोनों पक्ष कमजोर नजर आए। जावेद अख्तर ने पूछा कि यदि ईश्वर है, तो इतना अन्याय क्यों हो रहा है। वहीं मुफ्ती शमाइल नदवी ने कहा कि बुराई मानव स्वतंत्रता का परिणाम है, ईश्वर की अनुपस्थिति का नहीं। लेकिन मुफ्ती साहब यह स्पष्ट नहीं कर पाए कि एक न्यायप्रिय ईश्वर हजारों मासूम बच्चों की मौत पर मौन क्यों रहता है, जबकि जावेद अख्तर ने इस मुद्दे को तर्क की जगह भावनात्मक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। इस बिंदु पर दोनों का तर्कसंगत क्रम टूटता दिखा।
बहस का प्रभाव और निष्कर्ष
इस बहस का सबसे बड़ा लाभ यह रहा कि तर्क और विचार के स्तर पर संवाद को बढ़ावा मिला। लाखों लोगों ने इसे देखा और सोशल मीडिया पर व्यापक चर्चा हुई। लेकिन किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचना संभव नहीं हो सका। न तो मुफ्ती शमाइल नदवी नास्तिक दृष्टिकोण को पूरी तरह खारिज कर पाए और न ही जावेद अख्तर ईश्वर के पक्ष में दिए गए दार्शनिक तर्कों को निर्णायक रूप से तोड़ सके। परिणाम वही रहा जिसकी अपेक्षा थी—न स्पष्ट जीत, न स्पष्ट हार।
हाँ, एक बात जरूर सामने आई कि इस बहस से मुफ्ती शमाइल नदवी के यूट्यूब चैनल को जबरदस्त लोकप्रियता मिली। उनके चैनल पर लाखों व्यूज आ चुके हैं और इससे उन्हें अच्छी-खासी आर्थिक आमदनी भी हो सकती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रचार और पहुंच के मामले में वे अधिक सफल रहे।
नोट: यह लेख मैंने पूरी बहस को स्वयं देखकर और सुनकर अपने निजी निष्कर्षों के आधार पर लिखा है। यदि कोई पाठक इससे अलग निष्कर्ष निकालता है, तो वह उसका व्यक्तिगत दृष्टिकोण है। विचारों की विविधता ही स्वस्थ संवाद की पहचान है।
लेखक: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत पब्लिकेशंस डिवीजन में संयुक्त निदेशक