हरजिंदर
आजकल अखबारों में खबरें बाद में दिखती हैं, इश्तिहार उससे बहुत पहले ही सामने आ जाते हैं. अक्सर कईं पेज पलटने के बाद ही उस दिन की खबरों के दर्शन हो पाते हैं. पिछले शनिवार को दिल्ली के ज्यादातर अखबारों में छत्तीसगढ़ का जो पूरे एक पेज का विज्ञापन छपा उसे देखने के लिए अखबार खोलने की जरूरत नहीं थी. पूरे पेज पर राज्य सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों की फेहरिस्त थी.
खबरें अखबार के अगले पेज पर भी नहीं थीं वहां राजस्थान सरकार की उपलब्धियों और योजनाओं का बखान करता हुआ एक विज्ञापन पाठकों का इंतजार कर रहा था. राजस्थान दिल्ली से बहुत दूर नहीं है इसलिए उसकी बात तो फिर समझी जा सकती है, लेकिन छत्तीसगढ़ तो दिल्ली से तकरीबन 1200 किलोमीटर दूर है.
यहां ऐसे लोग शायद उंगलियों पर गिने जाने लायक ही होंगे जिन्हें उस राज्य में अगले साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनाव में वोट देना होगा. इतनी दूर विज्ञापन छपवाने की क्या जरूरत ?
वैसे इस तरह के सवाल इन दिनों नहीं पूछे जाते. जब पंजाब सरकार गुजरात के अखबारों में अपने विज्ञापन दे सकती है तो दिल्ली तो फिर भी देश की राजधानी है.राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह ही अगले साल के आखिर में कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भी चुनाव हैं और जल्द ही इन प्रदेशों के विज्ञापन भी अखबारों की कमाई का जरिया बनने लगेंगे.
इन प्रदेशों के चुनाव तो अभी बहुत दूर हैं. उसके पहले यानी फरवरी महीने में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में चुनाव होने हैं। इन राज्यों के विज्ञापन क्या आपको कहीं नजर आए ? ये छोटे राज्य हैं और उनके संसाधन इतने नहीं हैं कि वे दिल्ली के अखबारों में पुलआउट और कवर विज्ञापन छपवा सकें.
यह सिर्फ राज्य ही नहीं करते केंद्र सरकार भी यही करती है. अभी कुछ दिन पहले ही केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने संसद को बताया था कि केंद्र सरकार ने पिछले आठ साल में सिर्फ विज्ञापन पर ही 6,491 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. अगर राज्यों द्वारा विज्ञापनों पर खर्च की जा रही रकम भी इसमें जोड़ ली जाए तो शायद वह किसी छोटे राज्य के बजट जितनी भी हो सकती है.
यह सच है कि कुछ सरकारी विज्ञापन जरूरी भी होते हैं. जैसे कोविड महामारी के दौरान जारी किए गए कईं विज्ञापन बहुत जरूरी भी थे. दिक्कत उन विज्ञापनों से है जो सिर्फ प्रचार के लिए होते हैं और उनका मकसद सरकार और नेता की छवि चमकाना और अक्सर चुनाव जीतना ही होता है. इस तरह के विज्ञापन लगातार बढ़ रहे हैं.
एक समय था जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर लगाम लगाने की कोशिश भी की थी. अदालत ने विज्ञापनों में मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों की तस्वीर इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी थी. सिर्फ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने की ही अनुमति थी.
लेकिन जल्द ही इस फैसले को चुनौती दी गई. तर्क था कि अगर सरकारी खर्च से प्रधानमंत्री को अपनी तस्वीर लगाने की इजाजत दी जा सकती है तो फिर मुख्यमंत्रियों या मंत्रियों ने क्या गुनाह किया है ? आखिर वे भी तो जनप्रतिनिधि ही हैं.
बात में दम था और इसीलिए पाबंदी हट भी गई. उसे बाद से इस तरह के विज्ञापनों की बाढ़ और भी बढ़ गई.अब तो इन विज्ञापनों का इस्तेमाल कईं और तरह से भी होता है. जिन प्रकाशकों या प्रसारकों से कोई सरकार नाराज होती है तो वह उनके विज्ञापन बंद कर देती है. इसलिए ये विज्ञापन सिर्फ विज्ञापन भी ही नहीं होते, वे राजनीति के हथियार भी बन जाते हैं.
इसकी वजह से जो पार्टी सत्ता में है उसके विपक्षी पार्टियों के मुकाबले एक लाभ भी मिलता है.इस प्रवृत्ति को रोकने का कोई तरीका फिलहाल तो हमारे पास नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )