“भागवत का बयान ठंडी हवा का झोंका... लेकिन”

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 13-07-2021
नसीम सुबह की आस
नसीम सुबह की आस

 

आतिर खान

जब एक मुस्लिम मित्र को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के मुसलमानों पर नवीनतम बयान पर प्रतिक्रिया देने के लिए कहा गया, तो उन्होंने कहा कि यह ‘ठंडी हवा का झोंका’ जैसा था. बिल्कुल वैसे कि जब आप एक खिड़की खोलते हैं, तो आपको ठंडी हवा का झोंका का स्पर्श मिलता है.

1951 की ब्लैक एंड व्हाइट फीचर फिल्म नौजवान के प्रसिद्ध हिंदी गीत ‘ठंडी हवा’ को याद करें. गीत लता मंगेशकर की मधुर आवाज से सजाया गया था, जिसे साहिर लुधियानवी ने लिखा था औरएस.डी. बर्मन ने संगीत दिया था. भारतीयों का एक साथ महान कार्य करने का इतिहास रहा है. इस गाने को सुनने की कोशिश करें, यह एक बेहतरीन स्ट्रेस बस्टर है.

ठंडी हवा के झोंके पर वापस आते हुए एक दोस्त का जिक्र था- भागवत के बयान से एक बड़ी खिड़की स्पष्ट रूप से खुल गई है और आम सहमति यह है कि भारतीय मुसलमानों को दोस्ती के इस अवसर को हथियाने के लिए समय नहीं गंवाना चाहिए.

शाहरुख खान एक प्रसिद्ध हिंदी फिल्म के एक गाने के बोल इस स्थिति का वर्णन करते हैं. ‘हर घड़ी बदल रही है रूप जिंदगी...छांव है कभी, कभी है धूप जिंदगी...हर पल यहां जी भर जियो...जो है समां कल हो न हो (जिंदगी बदल रही है...)’ कभी यह एक सुखद छाया की तरह है और कभी-कभी यह आपको कठिनाइयां देती है, हम अवश्य वर्तमान पल में जियें और अतीत में नहीं, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, उस पल को पकड़ लें.

भागवत का बयान वास्तव में ऐतिहासिक था और भारत में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के संदर्भ में एक गेम चेंजर साबित होगा. उनसे पहले वीर सावरकर, जो 1857 के विद्रोह से पहले हिंदू राष्ट्रवादी दर्शन में अग्रणी थे, ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान एक ही मां के बेटे हैं.

उनका भाषण हमारे संविधान में निहित मूल्यों, भारत की अवधारणा और बहुलवाद के मूल्यों के अनुरूप था, जिन पर हम हमेशा से विश्वास करते आए हैं. लेकिन उनके इन मूल्यों को दोहराते हुए हिंदू और मुस्लिम समाज दोनों के भीतर कड़ी प्रतिक्रिया हुई.

बयान बोल्ड था, स्पष्ट था, सीधे आरएसएस प्रमुख के दिल से आया था, जिन्हें एक दूरदर्शी होने का गौरव प्राप्त है, एक ऐसा व्यक्ति जो अपने मन की बात कहने की प्रतिष्ठा रखता है, भले ही यह संघ के भीतर कड़ी प्रतिक्रिया देता हो.

यह पहली बार नहीं है कि जब भागवत ने हिंदू मुस्लिम संबंधों पर टिप्पणी की है, लेकिन इस बार उन्हें व्यापक रूप से प्रचारित और चर्चा की गई, क्योंकि उन्होंने पहुंच को बनाने के लिए सही जगह और समय चुना.

यह अवसर आरएसएस की मुस्लिम शाखा मुस्लिम राष्ट्र मंच के पुस्तक विमोचन को चुना गया. मुखिया ने यह बयान पूरी तरह से जानते हुए दिया कि वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की दहलीज पर बोल रहे हैं, जिसका जाति और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण का इतिहास रहा है. हम सभी जानते हैं कि आरएसएस और बीजेपी कितने करीब से जुड़े हुए हैं.

मुसलमानों के बीच असुरक्षा के सभी भयों को दूर करने के लिए उनके शब्द सुलह वाले थे. मुसलमानों के समान-हितधारक होने के उनके बयान ने काफी चर्चा पैदा की. दुर्भाग्य से, मुसलमानों के खिलाफ ज्यादतियों की धारणा मुस्लिम समुदाय के दिमाग में इतनी गहराई से समा गई है कि वे स्पष्ट रूप से इससे उबर नहीं पा रहे हैं.

यह सच है कि पिछले छह-सात वर्षों की अवधि में मॉब लिंचिंग की घटनाओं की एक श्रृंखला ने मुस्लिम समुदाय में एक भय का मनोविकार पैदा कर दिया है. दिलचस्प बात यह है कि हिंदुओं और मुसलमानों की एक बड़ी आबादी अपनी आजीविका कमाने के लिए दिन में एक साथ काम करती है, जब रात होती है, तो दोनों समुदाय अपने-अपने घर लौट जाते हैं. रात में मुसलमान अपनी बस्ती में नुक्कड़ सभाओं में वापस जाते हैं और चर्चा करते हैं कि भारत में उन्हें कैसे सताया जा रहा है. यह चर्चा आंशिक रूप से तथ्यों पर और आंशिक रूप से मीडिया की धारणा द्वारा बनाए गए मिथकों पर आधारित है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मिथक भी बनाए जाते हैं. और इस तरह के मिथक अक्सर गर्मागर्म चर्चा का विषय बन जाते हैं.

मुसलमानों को निशाना बनाने वाली कुछ बेहद हिंसक घटनाएं भारत की हकीकत हैं. इस तरह की घटनाएं गैर-जिम्मेदार राजनीतिक टिप्पणियों से शुरू हुईं और विपक्षी राजनीतिक दलों ने आग में घी का काम किया. उन ज्यादतियों को राजनीतिक कारणों से ट्रिगर किया गया था और वे राजनीतिक व्यवस्था की चुप्पी या सत्ता में बैठे लोगों की देर से प्रतिक्रिया के कारण मजबूत हुईं.

कुछ समय पहले नागरिक संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए और विचलित कर देने वाली हिंसा हुई. इस हिंसा से किसी को कुछ फायदा नहीं हुआ, लेकिन इसके निशान दोनों तरफ हमेशा रहने वाले हैं.

जिस दिन आरएसएस प्रमुख ने हिंदू-मुस्लिम एकता की बात कही, कुछ गुंडे मुसलमानों के खिलाफ नासमझ बयान देकर देश की छवि को और खराब करने का प्रयास कर रहे थे. उनमें से कुछ ने गरीब मुस्लिम फेरीवालों को परेशान किया, जो फल और सब्जियां बेचकर जीवन यापन करते हैं.

यह ऐसे गुंडों का काम है, निश्चित रूप से पूरे हिंदू समुदाय का नहीं, जिन्होंने भारतीय मुसलमानों की छवि दयनीय बना दी है. ये लोग भारत की ऐसी धारणा बनाने के लिए जिम्मेदार हैं- ‘एक ऐसा देश, जहां मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं.’

कुछ लोगों को प्रसिद्ध भारतीय हिंदी महाकाव्य फिल्म मदर इंडिया याद होगी, जिसे 1957 में महबूब खान द्वारा निर्देशित किया गया था. प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस द्वारा निभाई गई एक गरीब महिला की भूमिका मदर इंडिया, एक देश के रूप में भारत का प्रतीक थी. फिल्म में उनके दो बेटे थे, जिनमें एक हिंदू और एक मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करता है.

फिल्म में इतना अच्छा अभिनय करने वाले कन्हैया लाल ने विधवा का शोषण करने वाले एक चालाक साहूकार के रूप में काम किया. वह एक खलनायक था. ऐसे लोग जो कठोर बयान देते हैं, हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों से हिंसा करते हैं, हमें उनकी भूमिका और चालाक साहूकार खलनायक के बीच समानता के बारे में याद दिलाते हैं, जिन्होंने लगातार भारत माता और उसके दो मासूम बच्चों को परेशान किया.

भागवत की ओर से यह कहना एक बड़ा कदम था कि जो कहते हैं कि मुसलमानों को भारत छोड़ देना चाहिए, वे हिंदू नहीं हैं. भारत में इस्लाम खतरे में नहीं है. जमात-ए-इस्लामी और जमात-उलेमा-ए-हिंद जैसे कई प्रभावशाली मुस्लिम संगठनों ने मोहन भागवत के बयान को वास्तव में पसंद किया, लेकिन वे प्रतिक्रिया देने में सतर्क रहे. यह वो कहानी है कि मुस्लिम संगठनों को भी आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है.

मुस्लिम संगठनों की दुविधा यह है कि वे चाहे कुछ भी प्रतिक्रिया दें, वे बयान पर चुनिंदा प्रतिक्रिया नहीं दे सकते, यदि वे ऐसा करते हैं, तो उनके समुदाय द्वारा उन्हें मुसलमानों की दुर्दशा से बेखबर माना जाएगा. विशेष रूप से, कथित मॉब लिंचिंग के शिकार, जिनमें से अधिकांश कथित बीफ तस्कर थे. इनमें से कुछ मामलों में तो ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ है.

यह विडंबना ही है कि मॉब लिंचर्स को सजा देकर मुसलमान बीफ तस्करों के लिए इंसाफ की मांग कर रहे हैं. जबकि गौरक्षक गाय के लिए लोगों को मारने के अपने कृत्यों को सही ठहराते हैं. ये दोनों पक्ष गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त लोगों के लिए सुरक्षा चाहते हैं, लेकिन उन्हें उम्मीद है कि उनकी भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मॉब लिंचिंग के कृत्यों की निंदा की है, उन्होंने हाल ही में मुस्लिम समाज में विशेष रुचि दिखाई है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह निश्चित रूप से एक अच्छा कानून-व्यवस्था रिकॉर्ड रखना चाहेंगे. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने मुस्लिम धर्मगुरुओं से संपर्क किया है, यहां तक कि उनके आवास पर उनसे मुलाकात भी की है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत हिंदू-मुस्लिम एकता की बात कर रहे हैं. देश के चार सबसे शक्तिशाली व्यक्ति दो समुदायों के बीच स्वस्थ संबंधों के इच्छुक हैं.  

जब तक हिंदू और मुसलमान दोनों अतीत को दफन नहीं करते, इस दिशा में आगे बढ़ना संभव नहीं है. ऐसा करने के लिए इससे बेहतर समय नहीं हो सकता. आरएसएस प्रमुख ने कहा कि हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का एकमात्र समाधान बातचीत है. साफ है कि वह ऐसा कहकर मुसलमानों को न्यौता दे रहे हैं. मुस्लिम संगठनों को भी बातचीत की जरूरत महसूस होती है. उन्हें इस मौके का फायदा उठाना चाहिए. हालांकि, दुखद बात यह है कि उन्हें एक ही टेबल पर एक साथ लाने के लिए कोई मंच या कार्य तंत्र नहीं है.

यह सच है कि भरोसे की कमी को दूर करने के लिए अब जमीनी स्तर पर कुछ विश्वास बहाली उपायों की जरूरत होगी. मुसलमानों में भय और अविश्वास की भावना को कम होने में कुछ समय लग सकता है. भागवत की पहुंच को प्रभावी बनाने के लिए इस दिशा में पर्याप्त काम करने की जरूरत है. उम्मीद है कि अब उन सभी गुंडों पर लगाम लगेगी, जो गैरकानूनी कृत्यों में लिप्त हैं.

उनका विश्वास वापस पाने के लिए मुस्लिम विरोधी कहानी फीकी पड़नी चाहिए. मुसलमानों पर ज्यादती के मामलों को जल्दी से तार्किक निष्कर्ष पर लाया जाना चाहिए. ऐसे मामलों में जहां मुसलमान गोहत्या में शामिल थे, उन्हें कानून के अनुसार दंडित किया जाना चाहिए. इसी तरह मॉब लिंचिंग के लिए जिम्मेदार लोगों को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए.

इसके अलावा, दोनों समुदायों को एक-दूसरे की पहचान का सम्मान करने की जरूरत है. उन्हें इस बात पर सहमत होना चाहिए कि वे एक जैसे नहीं हैं फिर भी वे राष्ट्रवादी हैं. मीडिया, पुलिस, प्रशासन और निचली न्यायपालिका को संबंधों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होना होगा.

आधिपत्य से भारत का कल्याण नहीं होगा. देश महाशक्ति बनने की राह पर नहीं चल सकता है, लेकिन बहुलवाद निश्चित रूप से लाभकार होगा. भारतीयों को उनके धर्म से नहीं, बल्कि नागरिक राष्ट्रवादियों के रूप में पहचाना जाना चाहिए ... और भी गम है जमाने में नफरत के सिवा... अगर भारतीय इस तरह से सोचना शुरू कर दें, तो ‘ठंडी हवा का झोंका’ का अहसास हमेशा के लिए बादे-नसीम (सुबह की लगातार सुखद हवा) बन सकता है.

(लेखक आवाज-द वॉयस के समूह सम्पादक हैं)