एक दूसरे भारत की समीक्षाः दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग का निर्माण

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 05-02-2024
 The Making of the World’s Largest Muslim Minority, 1947-77
The Making of the World’s Largest Muslim Minority, 1947-77

 

ए फैजुर रहमान

पिछले दशक में निष्पक्ष टिप्पणीकारों ने, ‘हिंदू भारत’ में मुस्लिम होने की कठिनाइयों को उजागर करने की कला में महारत हासिल की है, बिना उन कठिनाइयों की तुलना किए, जिनका सामना उसी मुस्लिम ने ‘धर्मनिरपेक्ष भारत’ में किया था, जो कि 2014 से पहले मौजूद था.

प्रतिनव अनिल शायद एकमात्र आधुनिक इतिहासकार हैं, जो भारतीय मुस्लिम इतिहास को जानबूझकर म्यूट किए जाने को सही करने की इस प्रवृत्ति के खिलाफ गए हैं. उनकी नई किताब अदर इंडियाः द मेकिंग ऑफ द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट मुस्लिम माइनॉरिटी, 1947-77, आजादी के बाद से मुस्लिम विरोधी हिंसा का गहन विश्लेषण है, जो अगस्त 1947 में कांग्रेस द्वारा स्थापित देश के इस्लामोफोबिक पहलू को उजागर करती है.

सरल शब्दों में, दूसरा भारत जिस प्रश्न का उत्तर चाहता है, वह यह हैः क्या कांग्रेस का भारत का विचार वास्तव में धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक समानता पर आधारित था? इसमें सामने आए तथ्यों के आधार पर उत्तर ‘नहीं’ है.

दंगे और ताने

बहुत से लोग नहीं जानते कि ‘उत्तर-औपनिवेशिक भारत का सबसे हिंसक हिंदू-मुस्लिम संघर्ष’ 1964 में शुरू हुआ था, जिसमें बंगाल से 800,000 मुसलमानों को पूर्वी पाकिस्तान में धकेल दिया गया था.

वास्तव में, यह कांग्रेस के शासनकाल में ही था कि उपहासपूर्ण ‘पाकिस्तान जाओ’ का ताना तब साकार हुआ, जब लगभग 2 फीसद भारतीय मुसलमानों को घुसपैठिया करार देकर पाकिस्तान भेज दिया गया, जो हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए घुसपैठ करके आए थे. निष्कासित किए जाने से पहले, उन्हें ‘मवेशियों के झुंड की तरह’ सीमा पर अस्थायी शिविरों में फेंक दिया गया था, और ‘झूठे कागजात पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था कि वे पाकिस्तानी थे’, जबकि उनमें से कई वास्तविक भारतीय थे.

बड़ी संख्या में वे लोग, जिन्हें ‘पाकिस्तान नहीं भेजा जा सका’ नेहरू के शासनकाल में हुए ‘विपुल दंगों’ का शिकार बन गए. ‘संस्थागत दंगा प्रणाली’ इतनी एकतरफा थी कि मरने वालों में 82 फीसद और घायलों में 59 फीसद मुसलमान थे.

हैदराबाद में 1948 की पुलिस कार्रवाई का कारण मुसलमानों के प्रति पूर्वनिर्धारित शत्रुता भी थी, जो अनिल के लिए, ‘एक सामूहिक नरसंहार’ था, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप 40,000 मुसलमानों का नरसंहार, महिलाओं का बलात्कार, लूट, आगजनी, मस्जिदों का अपमान हुआ था. जबरन धर्म परिवर्तन, घरों और जमीनों पर कब्जा हुआ था. इन तथ्यों को सामने लाने वाली सुंदरलाल रिपोर्ट को नेहरू ने जल्दबाजी में दबा दिया.

अनिल ने निष्कर्ष निकाला कि नेहरूवादी भारत अक्सर ‘एक इस्लामोफोबिक एजेंसी’ थी, जो अपने हिंदू समर्थक पूर्वाग्रह को छिपाने के लिए धर्मनिरपेक्षता को ‘अंजीर के पत्ते’ के रूप में पहनती थी.

अशरफ विश्वासघात

लेकिन कांग्रेस मुसलमानों को हाशिए पर धकेलने की बेशर्मी से कैसे बच निकली? अनिल कहते हैं, ‘राष्ट्रवादी मुसलमानों’ और ‘प्रसिद्ध लोगों’ की मदद से.

पहले में ज्यादातर मुस्लिम कांग्रेसी थे? जिन्होंने भारत की प्रगति को कांग्रेस की प्रगति के साथ जोड़कर अपने समुदाय को नुकसान पहुंचाया, विभाजन के लिए मुस्लिम सांप्रदायिकों को दोषी ठहराकर और शरिया की संवैधानिक सुरक्षा को समुदाय के राजनीतिक अधिकारों से ऊपर रखकर कांग्रेस को आलोचना से बचाया गया.

प्रसिद्धि में उच्च वर्ग के मुस्लिम (अशरफ) शामिल थे, जैसे कि मुतवल्ली (वक्फ संपत्तियों के संरक्षक), वसीकादार (रियासत पेंशनभोगी) और वाकिफ (वक्फ के लिए संपत्तियों के समर्पितकर्ता), जिनमें से सभी ने समुदाय के आर्थिक विकास के लिए काम करने की आड़ में, अपने घोंसले को पंख देने के लिए अपनी कुलीन एजेंसी का इस्तेमाल किया.

इन संरक्षकों का एक प्रमुख कार्य ‘गैर-मुस्लिम वातावरण में मुस्लिम संस्कृति के विशिष्ट तत्वों का संरक्षण’ था. उनका भरपूर समर्थन करने वाले उलेमा थे, खासकर जमीयत उलेमा-ए-हिंद से जुड़े लोग, जिसे अनिल, कांग्रेस की एक शाखा कहते हैं.

अशरफ-मौलवी गठजोड़ ने जिस ‘अशरफीकृत’ इस्लाम को बढ़ावा दिया, उसने अशरफों के वर्ग हितों को सुरक्षित रखा और आम मुसलमानों की दुर्दशा को लगभग पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया.

शरीयत-आधारित पर्सनल लॉ के प्रति मुस्लिम अभिजात वर्ग के जुनून पर तीखा हमला करते हुए, अनिल कहते हैं कि इसने समुदाय के ‘इस्लामोफोबिक समाज में निराशाजनक सार्वजनिक अस्तित्व’ को कम किए बिना पितृसत्ताओं को ‘अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए एक निजी जागीर’ प्रदान की.

जांच के लिए कोई जगह नहीं

परिणामस्वरूप, मुस्लिम राजनीति में ‘ट्रेड यूनियनों, बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, भेदभाव-विरोधी कानून और निम्नवर्गीय एकजुटता’ के लिए कोई जगह नहीं थी, जबकि इसमें ‘एएमयू, औकाफ, उर्दू और शरिया जैसे उच्च सांस्कृतिक प्रतीकों’ के लिए बहुत कुछ था. यह सत्तारूढ़ ‘हिंदू कांग्रेस’ के लिए उपयुक्त था, क्योंकि राजनीतिक रूप से सशक्त गैर-हिंदू समूह उसके हित में नहीं था.

आज भी अशरफ-मौलवी गठबंधन सामाजिक एकता और राजनीतिक भागीदारी पर धर्म और धार्मिक प्रतीकवाद को प्राथमिकता देता है. उदाहरण के लिए, यदि अशरफ-समर्थित मदरसे कालानुक्रमिक मध्ययुगीनवाद पर केंद्रित हैं, तो अमीर मुसलमानों द्वारा नियंत्रित कई मौलवी-समर्थित धर्मनिरपेक्ष अंग्रेजी माध्यम स्कूल, टोपी (लड़कों के लिए) और हिजाब (लड़कियों के लिए) को स्कूल ड्रेस का अनिवार्य हिस्सा बनाकर धार्मिक पहचानवाद को बढ़ावा देते हैं.

यह आत्म-यहूदी बस्ती, जो मुस्लिम स्कूलों में गैर-मुसलमानों के नामांकन को हतोत्साहित करने के प्रयास से कम नहीं है, दूसरे के डर पर कायम है और इसमें मुस्लिम छात्रों को बहु-धार्मिक और बहु-धर्म में रहने में असमर्थ बनाने की क्षमता है.

इस दुखद स्थिति को देखते हुए, दूसरा भारत इससे बेहतर समय पर नहीं आ सकता था. इसका नवोन्मेषी आख्यान पाकिस्तान को अस्वीकार करने के बाद भारत में रह गए भरोसेमंद मुसलमानों के साथ कांग्रेस के विश्वासघात का एक गंभीर पर्दाफाश मात्र नहीं है, यह भारतीय मुसलमानों के लिए आलोचनात्मक सोच की भावना हासिल करने और अशरफ-मौलवी गठबंधन की नागिन पकड़ से मुक्त होने का भी निमंत्रण है, जो उन्हें बौद्धिक मुक्ति के स्वर्ग-प्रदत्त अधिकार से वंचित करने पर तुला हुआ है.

एक और भारतः विश्व के सबसे बड़े मुस्लिम अल्पसंख्यक का निर्माण, 1947-77,  प्रतिनव अनिल, पेंगुइन/वाइकिंग, ₹999.

(समीक्षक उदारवादी विचार को बढ़ावा देने के लिए इस्लामिक फोरम के महासचिव हैं.)