मज़हबी कट्टरता और फिरक़ापरस्ती के दुश्मन थे जोश मलीहाबादी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 05-12-2021
 जोश मलीहाबादी
जोश मलीहाबादी

 

आवाज विशेष । शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी का जन्मदिन

-ज़ाहिद ख़ान

उर्दू अदब में जोश मलीहाबादी वह आला नाम है, जो अपने इंक़लाबी कलाम से शायर-ए-इंक़लाब कहलाए. जोश का सिर्फ यह एक अकेला शे’र, ‘‘काम है मेरा तगय्युर (कल्पना), नाम है मेरा शबाब (जवानी)/मेरा नाम ‘इंक़लाबो, इंक़लाबो, इंक़िलाब.’’ ही उनके तआरुफ और अज़्मत को बतलाने के लिए काफी है. वरना उनके अदबी ख़जाने में ऐसे-ऐसे कीमती हीरे-मोती हैं, जिनकी चमक कभी कम नहीं होगी.

उत्तर प्रदेश में लखनऊ के नजदीक मलीहाबाद में 5 दिसम्बर, 1898 में पैदा हुए शब्बीर हसन खां, बचपन से ही शायरी के जानिब अपनी बेपनाह मुहब्बत के चलते, आगे चलकर जोश मलीहाबादी कहलाए. शायरी उनके ख़ून में थी. उनके अब्बा, दादा सभी को शेर-ओ-शायरी से लगाव था.

घर के अदबी माहौल का ही असर था कि वे भी नौ साल की उम्र से ही शायरी कहने लगे थे और महज तेईस साल की छोटी उम्र में उनकी ग़ज़लों का पहला मज़मुआ ‘रूहे-अदब’ शाया हो गया था. जोश मलीहाबादी की ज़िंदगानी का इब्तिदाई दौर, मुल्क की गुलामी का दौर था. ज़ाहिर है कि इस दौर के असरात उनकी शायरी पर भी पड़े. हुब्बुलवतन (देशभक्ति) और बगावत उनके मिजाज़ का हिस्सा बन गई.

उनकी एक नहीं, कई ऐसी कई ग़ज़लें-नज़्में हैं, जो वतनपरस्ती के रंग में रंगी हुई हैं. ‘मातमे-आज़ादी’, ‘निजामे लौ’, ‘इंसानियत का कोरस’, ‘जवाले जहां बानी’ के नाम अव्वल नम्बर पर लिए जा सकते हैं. ‘‘जूतियां तक छीन ले इंसान की जो सामराज/क्या उसे यह हक़ पहुंचता है कि रक्खे सर पै ताज.’’ इंक़लाब और बगावत में डूबी हुई उनकी ये ग़ज़लें-नज़्में, जंग-ए-आज़ादी के दौरान नौजवानों के दिलों में गहरा असर डालती थीं. वे आंदोलित हो उठते थे. यही वजह है कि जोश मलीहाबादी को अपनी इंक़लाबी ग़ज़लों-नज़्मों के चलते कई बार ज़ेल भी जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने अपना मिजाज़ और रहगुज़र नहीं बदली.

दूसरी आलमी जंग के दौरान जोश मलीहाबादी ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी के फरज़ंदों के नाम’, ‘वफ़ादाराने-अजली का पयाम शहंशाहे-हिंदोस्तां के नाम’ और ‘शिकस्ते-ज़िंदां का ख़्वाब’ जैसी साम्राज्यवाद विरोधी नज़्में लिखीं.‘‘क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें/उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें/क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे/इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें/संभलों कि वो ज़िंदाँ गूँज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए/उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें.’’ जोश मलीहाबादी को लफ़्ज़ों के इस्तेमाल पर महारत हासिल थी.

अपनी शायरी में जिस तरह से उन्होंने उपमाओं और अलंकारों का शानदार इस्तेमाल किया है, उर्दू अदब में ऐसी कोई दूसरी मिसाल ढ़ूढ़े से नहीं मिलती. ‘‘सरशार हूँ सरशार है दुनिया मिरे आगे/ कौनैन है इक लर्ज़िश-ए-सहबा मिरे आगे/....’जोश’ उठती है दुश्मन की नज़र जब मिरी जानिब/ख़ुलता है मोहब्बत का दरीचा मिरे आगे.’’ अपनी शानदार ग़ज़लों-नज़्मों-रुबाईयों से जोश मलीहाबादी देखते-देखते पूरे मुल्क में मक़बूल हो गए. उर्दू अदब में मक़बूलियत के लिहाज से वे इक़बाल और जिगर मुरादाबादी की टक्कर के शायर हैं. यही नहीं तरक़्क़ीपसंद तहरीक के वे अहम शायर थे.

उन्होंने उर्दू में तरक़्क़ीपसंद शायरी की दागबेल डाली. अपनी किताब ‘जदीद उर्दू शायरी’ में इबादत बरेलवी लिखते हैं,‘‘जोश के साथ-साथ तरक़्क़ीपसंद शायरी का दौर शुरू होता है, जिसके हाथों जदीद शायरी के समाजी और इमरानी रुजहानात एक नई दुनिया से रूशनास होते हैं.’’ यही वजह है कि तरक़्क़ीपसंद तहरीक में जोश मलीहाबादी की हैसियत एक रहनुमा की है.

उनके कलाम में सियासी चेतना साफ दिखलाई देती है और यह सियासी चेतना मुल्क की आज़ादी के लिए इंक़लाब का आहृन करती है. सामंतवाद, सरमायेदारी और साम्राज्यवाद का उन्होंने पुरजोर विरोध किया. पूंजीवाद से समाज में जो आर्थिक विषमता पैदा होती है, वह जोश ने अपने ही मुल्क में देखी थी. अंग्रेज हुकूमत में किसानों, मेहनतकशों को अपनी मेहनत की असल कीमत नहीं मिलती थी. वहीं सरमायेदार और अमीर होते जा रहे थे.‘‘इन पाप के महलों को गिरा दूंगा मैं एक दिन/इन नाच के रसियों को नचा दूंगा मैं एक दिन/मिट जाएंगे इंसान की सूरत के ये हैवान/भूचाल हूं भूचाल हूं तूफान हूं तूफान.’’

जोश मलीहाबादी ने अपनी ग़ज़लों-नज़्मों में हमेशा किसानों-कामगारों-मेहनतकशों की बात की. नज़्म ‘किसान’ में वे लिखते हैं,‘‘झुटपुटे का नर्म-रौ दरिया शफ़क़ का इज़्तिराब/खेतियाँ मैदान ख़ामोशी ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब/.....जिस के माथे के पसीने से पए-इज़्ज़-ओ-वक़ार/करती है दरयूज़ा-ए-ताबिश कुलाह-ए-ताजदार.’’

उर्दू अदब के बड़े आलोचक एहतेशाम हुसैन, अपनी किताब ‘उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में जोश की शायरी का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं,‘‘जोश को प्राकृतिक, श्रंगार-पूर्ण और राजनीतिक कविताएं लिखने पर समान रूप में अधिकार प्राप्त है. भारत के राजनीतिक जीवन में कदाचित् ही कोई ऐसी घटना हुई होगी, जिस पर उन्होंने कविता न लिखी हो. वह राष्ट्रीयता, हिंदू-मुसलिम एकता, देश-प्रेम, जनतंत्र, शांति और विचार स्वतंत्रता के उपासक हैं और इन विचारों को उन्होंने अपनी सहस्त्रों कविताओं में बड़ी रोचक और मनोरंजक शैलियों में प्रस्तुत किया है.’’

जोश मलीहाबादी की अपनी ज़िंदगानी में पन्द्रह से ज्यादा किताबें प्रकाशित हुईं. उनकी कुछ अहम किताबें हैं, ‘नकशोनिगार’, ‘अर्शोफर्श’, ‘शोला-ओ-शबनम’, ‘फ़िक्रो-निशात’, ‘हर्फ़ो-हिकायत’, ‘रामिशो-रंग’, ‘सुंबुलो-सलासिल’, ‘सरोदो-खरोश’ और ‘सुमूमोसबा’ आदि. जोश मलीहाबादी ने मुल्क की आज़ादी से पहले ‘क़लीम’ और आज़ादी के बाद ‘आजकल’ मैगज़ीन का संपादन किया. फिल्मों के लिए कुछ गाने लिखे, तो एक शब्दकोश भी तैयार किया. लेकिन उनकी मुख्य पहचान एक शायर की है.

जोश मलीहाबादी मज़हबी कट्टरता और फिरक़ापरस्ती के दुश्मन थे.‘‘बाज आया मैं तो ऐस ताऊन से/भाईयों के हाथ तर हो भाईयों के खून से.’’ वह आदमियत को दीन और इंसानियत को ईमान मानते थे.‘‘आओ वो सूरत निकालें जिसके अंदर जान हो/आदमियत दीन हो, इंसानियत ईमान हो.’’

जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही ज़ानदार-ज़ोरदार उनकी ज़िंदगी थी. जोश साहब की ज़िंदगी में गर हमें दाख़िल होना हो, तो सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि हम उन्हीं के मार्फ़त उसे देखें-सुने-जाने. क्योंकि जिस दिलचस्प अंदाज में उन्होंने ‘यादों की बरात’ किताब में अपनी कहानी बयां की है, उस तरह का कहन बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है.

बुनियादी तौर पर उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन साल 1970 में आया था. तब से इसके कई एडिशन आ चुके हैं, लेकिन पाठकों की इसके जानिब मुहब्बत और बेताबी कम नहीं हुई है. ‘यादों की बरात’ की मक़बूलियत के मद्देनजर, इस किताब के कई ज़बानों में तजुर्मे हुए और हर ज़बान में इसे पसंद किया गया. अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफ़गोई से शायद ही किसी ने इससे पहले लिखा हो. अपनी ज़िंदगी के बारे में वे पाठकों से कुछ नहीं छिपाते. यहां तक कि अपने इश्क भी, जिसका उन्होंने अपनी किताब में तफ़्सील से ज़िक्र किया है.

जोश मलीहाबादी अपनी ज़िंदगी में कई इनाम-ओ-इकराम से नवाज़े गए. साल 1954 में भारत सरकार ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ’पद्मभूषण’, तो साल 2012 में पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें ‘हिलाल-ए-इम्तियाज़’ पुरस्कार से नवाज़ा, जो पाकिस्तान का दूसरा आला सिटीजन अवार्ड है. इस तरह जोश मलीहाबादी, वह ख़ुशकिस्मत शख़्स हैं, जिन्हें दोनों मुल्कों की हुकूमत ने अपने आला नागरिक सम्मान से सम्मानित किया.

मुल्क की आजादी के बाद जोश मलीहाबादी के कुछ दोस्तों ने उनके दिल में यह बात बैठा दी कि हिंदुस्तान में उनके बच्चों और उर्दू ज़बान का कोई मुस्तकबिल नहीं है. साल 1955 में जोश मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए. वह पाकिस्तान ज़रूर चले गए, मगर इस बात का पछतावा उन्हें ताउम्र रहा. जिस सुनहरे मुस्तकबिल के वास्ते उन्होंने हिंदुस्तान छोड़ा था, वह ख़्वाब चंद दिनों में ही टूट गया. उन्होंने पाकिस्तान में जिस पर भी एतबार किया, उससे उन्हें धोखा मिला. और उर्दू की जो पाकिस्तान में हालत है, वह भी सबको मालूम है. पाकिस्तान जाने का फ़ैसला चूंकि ख़ुद जोश मलीहाबादी का था, लिहाज़ा वे ख़ामोश रहे. वहां घुट-घुटके जिये, मगर शिकवा किसी से न किया.

पाकिस्तान में रहकर वे हिंदुस्तान की मुहब्बत में डूबे रहते थे. जोश मलीहाबादी, चाहकर भी अपने पैदाइशी मुल्क को कभी नहीं भुला पाए. पाकिस्तान में उनकी बाकी ज़िंदगी नाउम्मीदी और गुमनामी में बीती. 22 फरवरी, 1982 को यह जोशीला इंक़लाबी शायर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गया.