फ़िरदौस ख़ान
भारतीय खाने के बहुत शौक़ीन होते हैं. अगर देश की राजधानी दिल्ली की बात करें, तो यहां के लोग बहुत ही चटोरे हैं. इसलिए यहां खाने का कारोबार ख़ूब फलफूल रहा है. राजधानी होने की वजह से यहां हर राज्य के व्यंजनों का लुत्फ़ उठाया जा सकता है. इन्हीं में से एक है हलवा पराठा. निज़ामुद्दीन का हलवा पराठा बहुत मशहूर है. इसे खाने के लिए दूर-दूर से लोग खिंचे चले आते हैं.
निज़ामुद्दीन बस स्टॉप से हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह की तरफ़ जा रही गली में बावली गेट नम्बर एक के पास सुल्तानी होटल पर हलवा पराठा मिलता है. होटल के मालिक अब्दुल अलीम बताते हैं कि वे तक़रीबन 23साल से हलवा पराठा बना रहे हैं. यह उनका ख़ानदानी काम है, जो दादा और परदादा के ज़माने से चला आ रहा है.

यूं तो पराठा तवे पर बनाया जाता है, लेकिन यह पराठा कढ़ाही में बनाया जाता है. दरअसल यह एक तरह की बड़ी पूड़ी है. जितनी बड़ी कढ़ाही होती है, उतनी ही बड़ी यह पूड़ी होती है. यह पराठा मैदे से तैयार किया जाता है, जिसे बहुत से घी और दूध के साथ गूंधा जाता है.
इसे बेलते वक़्त इसमें छेद कर दिए जाते हैं, ताकि यह पूड़ी की तरह फूले नहीं. इसके साथ मिलने वाला हलवा भी बहुत ही लज़ीज़ होता है. यह सूजी, दूध और बहुत से घी से बनाया जाता है, क्योंकि हलवे की जान तो घी है. इसमें बहुत सी मेवा भी डाली जाती है. ये पराठे बहुत बड़े होते हैं. इन्हें दस से बीस लोग तक खा सकते हैं. इन्हें तोलकर बेचा जाता है. अलग-अलग दुकानों पर इनके दाम भी अलग-अलग होते हैं.
ओखला में रहने वाले शेफ़ ज़ुबैर कहते हैं कि उन्हें हलवा पराठा बहुत अच्छा लगता है. हालांकि वे ख़ुद खाने के काम से जुड़े हैं और तरह-तरह के पीज़े बनाने में माहिर हैं. लेकिन हलवा पराठे की बात ही कुछ और है. वे कहते हैं कि मीठे की बात करें, तो उनके ज़ेहन में मिठाई की बजाय हलवा पराठा ही आता है. वे अकसर सुबह में यहां आते हैं और हलवा पराठे का नाश्ता करते हैं.
निज़ामुद्दीन के अलावा जामा मस्जिद के पास मटिया महल के होटलों का हलवा पराठा भी बहुत मशहूर है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को हलवा पराठा बहुत पसंद था और वे अकसर इसे मंगवाया करते थे.

इतिहास
दरअसल भारत में तीज-त्यौहारों पर बनने वाला हलवा एक विदेशी व्यंजन है. हलवा शब्द अरबी भाषा के हुल्व से आया है, जिसका मतलब होता है शीरनी यानी मीठा या मिठाई. इतिहासकारों का मानना है कि तेरहवीं सदी में लिखी गई अरबी की पुस्तक ‘किताब अल तबिख़’ में हलवे का ज़िक्र मिलता है.
यह सदियों पहले अरब के सौदागरों के साथ हिन्दुस्तान आया था. हलवा यहां के लोगों को इतना पसंद आया कि फिर यहीं का होकर रह गया. हलवे का लुत्फ़ उठाने वाले लोगों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि यह कहीं बाहर से आया है.
हलवा दरगाहों, मन्दिरों और गुरुद्वारों में ख़ूब मिलता है. लंगरों में मीठे के तौर पर अकसर हलवा ही परोसा जाता है. यह कहना क़तई ग़लत नहीं होगा कि हलवा साम्प्रदायिक सद्भाव से जुड़ा हुआ व्यंजन है. इसकी मिठास ज़बान से सीधे दिल तक पहुंचती है.
देश के कई इलाक़ों में लगने वाले नौचंदी मेले में हलवा पराठे की धूम रहती है. बच्चे हों या बूढ़े, औरतें हों या मर्द सभी को हलवा पराठा ख़ूब पसंद आता है. मेले में हलवा पराठे वाले दूर-दूर से कारीगर बुलाते हैं.दरियागंज की राबिया कहती हैं कि उन्हें हलवा पराठा बहुत पसंद है.

नौचंदी मेले का ज़िक्र करते हुए वे कहती हैं कि नौचंदी मेले में मिलने वाले हलवा पराठे की बात ही अलग होती है. शायद इसलिए कि लोग अपने इलाक़े के हलवे पराठे तो खाते ही रहते हैं, लेकिन मेले में दूर-दूर से हलवाई आते हैं. हर चीज़ में बनाने वाले के हाथ का भी फ़र्क़ आ जाता है. इससे ज़ायक़ा भी कुछ अलग हो जाता है, उसमें नयापन आ जाता है.
शिकागो के इतिहासकार कोलेन टेलर की किताब ‘फ़ीस्ट्स एंड फ़ास्ट्स’ के मुताबिक़ दिल्ली में हलवा तेरहवीं से सोलहवीं सदी के दौरान मुहम्मद बिन तुग़लक के वक़्त में आया था. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हलवे का जन्मव उस्मानिया सल्तनत के मालिक सुलेमान के बावर्चीख़ाने में हुआ था. कहा जाता है कि वे हलवे के इतने शौक़ीन थे कि उन्होंने इसके लिए अलग से एक बावर्चीख़ाना बनवाया था.