‘गंगाजी में नहाया, सामने मस्जिद है, नमाज पढ़ी और वहां से चले गए बाला जी मंदिर रियाज करने ’

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 22-08-2022
‘गंगाजी में नहाया, सामने मस्जिद है, नमाज पढ़ी और वहां से चले गए बाला जी मंदिर रियाज करने ’
‘गंगाजी में नहाया, सामने मस्जिद है, नमाज पढ़ी और वहां से चले गए बाला जी मंदिर रियाज करने ’

 

मलिक असगर हाशमी /नई दिल्ली
 
उपरोक्त वाक्य है नामचीन शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खान के एक इंटरव्यू का. एक दिन पहले उनकी 16 वीं पुण्यतिथि थी.इस मौके पर सोशल मीडिया पर उनके एक पुराने इंटरव्यू का एक छोटे हिस्से का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. यह इंटरव्यू गंगा किनारे लिया गया है. इंटरव्यू लेने वाले का चेहरा नहीं दिखता. मगर इंटरव्यू में बिस्मिल्ला खान द्वारा कही गई बातें दिल में उतरती चली जाती हैं.

इंटरव्यू भले ही वर्षों पहले लिया गया हो, देश के बिगड़ते सांप्रदायिक सौहार्द और मंदिर-मस्जिद के नाम पर बखेड़ा खड़ा करने वालों के लिए यह जरूर आईना है.इंटरव्यू के 2ः 20 मिनट के इस हिस्से में शहनाईवादक बिस्मिल्ला खान अपने चिरपरिचित लिबास कुर्ता, पैजामा और खादी की टीपी पहने गंगा के घाट पर खड़े बतिया रहे हैं-
 
‘‘ वही घाट है. वही मंदिर है. तमाम दुनिया घूमता हूं. मजा लेता हूं. बड़ी-बड़ी सड़कें. बड़ी-बड़ी इमारतें. लेकिन जब अपने बनारस का ख्याल करता हूं. यही जगह सामने रहती है, मेरी निगहों में. और यहीं खींच कर ले आती है हमे.’’

वह आगे कहते हैं-सच पूछिए तो हमको भी यहां आनंद मिलता है. यह जगह ऐसी है. देखिए, दोनों बात. गंगाजी सामने हैं. यहां नहाया, सामने मस्जिद है. नमाज पढ़ी. उसके बाद वहां से बाला जी मंदिर चले गए. वहां रियाज किया. बिलकुल फकीर के तरीके का हम लोगों का हिसाब किताब रहा है.’’
 
bismillah
 
वह आगे कहते हैं-आज मालिक की मेहरबानी से इतने जमाने के बाद फिर यहां आए हैं. दर्शन देने. आप खुद देखिए, कितना भला मालूम होता है. हिंदुस्तान क्या तमाम दुनिय में हम घूम रहे हैं. ऐसा हमको नहीं दिखाई दिया.’’
किसी जमाने में धार्मिक नगरी बनारस की सांस्कृतिक एवं साहित्य को लेकर भी एक अलग पहचान रही है. मगर जैसे-जैसे शहर पर सियासत हावी होता गया, कहने को सड़कें तो चमचमा उठीं हैं, पर साहित्य और संस्कृति जैसे विलुप्त होती जा रही है.
 
bismillah
 
इंटरव्यू के अलग हिस्से में बिस्मिल्ला खान से बातचीत में यह झलकती भी है. एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं-बुढ़वा मंगल तो.... मतलब का बतावंे. यही जगह है वो जहां ‘बजल’ सजते थे. पूरे बनारस के लोग यहां आते थे.
 
अपने बनारस के बहुत से लोग यहां ‘कुतबा’ बनाते थे.उसपर नाच-गाना होता था. बड़े-बड़े कलाकार उसपर गाना गाते थे. हमारी हालत यह होती थी कि कभी इधर घूम के आ रहे हैं, कभी उधर घूमके आ रहे हैं और उस जगह तमाम प्रोग्राम देख रहे हैं. कोई चैती गा रहा है तो कोई घाटो गा रहा है. कोई भांग पीए, तो कोई बोतल पीए है. सब तरफ हा...हा...हा...भैया क्या कहना हो. चिल्लाहट हो रही है. हजारों आदमी होते थे. अब वो जमाना नहीं है. चाहता हूं कि फिर बुढ़वा मंगल हो जाए.’’

इंटरव्यू के इस हिस्से को सोशल मीडिया में अब तक करीब साढ़े पांच हजार लोग देख चुके हैं. इस इंटरव्यू पर प्रतिक्रिया देते हुए डॉक्टर गुरप्रीत सिंह सोहल ने ट्वीट किया- संगे-ए-मील से मुलाकात. उनके मुताबिक, 1989 में फिल्म निर्माता-निर्देश गौतम घोष ने बिस्मिल्लाह खान पर डक्यूमेंट्री बनाई थी. उसमें उनसे की गई बातचीत का यह हिस्सा है.
 
सीतारम केसी लिखते हैं-महान भारतीय. बेहद सरल पर समर्पित. कृष्णकांत की टिप्पणी है-कई रसों से रस बने तो उसे बनारस कहिए.
 
bismillah
 
बिस्मिल्लाह खान का संक्षिप्त परिचय

उस्ताद बिस्मिल्ला खां का  जन्म 21 मार्च 1916 और निधन 21 अगस्त, 2006 को हुआ था. उनका जन्मस्थान बिहार का डुमराव, है. वे हिन्दुस्तान के प्रख्यात शहनाई वादक थे. 2001 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था.वह तीसरे भारतीय संगीतकार थे जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया है.
 
कहते हैं एक बार उस्ताद बिस्मिल्ला खां को अमेरिका से बुलावा आया कि आप यहीं आकर बस जाएं. हम आपको सभी प्रकार की सुविधा उपलब्ध कराएंगे तो उन्होंने, इस प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यहां गंगा है.
 
यहां काशी है. यहां बालाजी का मंदिर है. यहां से जाने का मतलब इन सभी से बिछड़ जाना. उनकी यह भक्ति देश प्रेम को भी दर्शाती है कि वो अपने देश से कितना प्रेम करते थे.बिस्मिल्ला खा का जन्म बिहारी मुस्लिम परिवार में पैगंबर खाँ और मिट्ठन बाई के यहां डुमराँव के टेढ़ी बाजार के एक किराए के मकान में हुआ था.
 
उस रोज भोर में उनके पिता पैगंबर बख्श राज दरबार में शहनाई बजाने घर से निकलने की तैयारी ही कर रहे थे कि उनके कानों में बच्चे की किलकारियां सुनाई पड़ी. अनायास सुखद एहसास के साथ उनके मुहं से बिस्मिल्लाह शब्द ही निकला. 
 
हालांकि उनका बचपन का नाम कमरुद्दीन था. लेकिन वह बिस्मिल्लाह के नाम से जाने गए. वे अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे. उनके खानदान के लोग दरवारी राग बजाने में माहिर थे जो बिहार की भोजपुर रियासत में अपने संगीत का हुनर दिखाने के लिए अक्सर जाया करते थे.
 
उनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरवार में शहनाई बजाया करते थे. बिस्मिल्लाह खान के परदादा हुसैन बख्श खान, दादा रसूल बख्श, चाचा गाजी बख्श खान और पिता पैगंबर बख्श खान शहनाई वादक थे.
 
6 साल की उम्र में बिस्मिल्ला खां अपने पिता के साथ बनारस आ गए. वहां उन्होंने अपने मामा अली बख्श विलायती से शहनाई बजाना सीखा. उनके उस्ताद मामा विलायती विश्वनाथ मंदिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादन का काम करते थे.
 
उस्ताद का निकाह 16 साल की उम्र में मुग्गन खानम के साथ हुआ जो उनके मामू सादिक अली की दूसरी बेटी थी. उनसे उन्हें 9 संताने हुए. वे हमेशा एक बेहतर पति साबित हुए. वे अपनी बेगम से बेहद प्यार करते थे. लेकिन शहनाई को अपनी दूसरी बेगम कहते थे.
 
66 लोगों का परिवार था जिसका वे भरण पोषण करते थे. अपने घर को कई बार बिस्मिल्लाह होटल भी कहते थे. लगातार 30-35 सालों तक साधना, छह घंटे का रोज रियाज उनकी दिनचर्या में शामिल था. अलीबख्श मामू के निधन के बाद खां साहब ने अकेले ही 60 साल तक इस साज को बुलंदियों तक पहुंचाया.
 
bismillah
 
सांझी संस्कृति के प्रतीक

यद्यपि बिस्मिल्ला खां शिया मुसलमान थे, फिर भी वे अन्य हिन्दुस्तानी संगीतकारों की भांति धार्मिक रीति रिवाजों के प्रबल पक्षधर थे.बाबा विश्वनाथ की नगरी के बिस्मिल्लाह खां एक अजीब किंतु अनुकरणीय अर्थ में धार्मिक थे. वे काशी के बाबा विश्वनाथ मंदिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे.
 
वे गंगा किनारे बैठकर घंटों रियाज भी किया करते थे. वह पांच बार के नमाजी थे. हमेशा त्यौहारों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे, पर रमजान के दौरान रोजा रखते थे. बनारस छोड़ने के ख्याल से ही इस कारण व्यथित होते थे कि गंगाजी और काशी विश्वनाथ से दूर नहीं रह सकते थे.
 
वे जात पात को नहीं मानते थे. उनके लिए संगीत ही उनका धर्म था. वे सही मायने में हमारी साझी संस्कृति के सशक्त प्रतीक थे.