जयपुर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने शनिवार को कहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सनातन विचार को समय, परिस्थिति और समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप “एकात्म मानव दर्शन” का नया रूप देकर देश के सामने रखा। उन्होंने कहा कि यह विचार भले नया नाम लेकर प्रस्तुत हुआ, लेकिन इसकी जड़ें सनातन परंपरा में सदियों से मौजूद हैं और आज भी यह दर्शन वैश्विक स्तर पर उतना ही प्रासंगिक है।
दीनदयाल स्मृति व्याख्यान कार्यक्रम में बोलते हुए डॉ. भागवत ने कहा कि यदि एकात्म मानव दर्शन को एक शब्द में समझाना हो तो वह है—“धर्म”। उन्होंने स्पष्ट किया कि यहां धर्म का अर्थ केवल मजहब, पंथ या संप्रदाय नहीं, बल्कि ऐसा मार्ग है जो सभी के कल्याण और समग्र गंतव्य को समझे।
उन्होंने कहा कि भारत में रहन-सहन और जीवन शैली वर्षों में बदल गई है, लेकिन सनातन विचार नहीं बदला, और यही सनातन भावना एकात्म मानव दर्शन का केंद्र है। इस दर्शन के अनुसार सुख बाहर नहीं, बल्कि मन और आत्मा के भीतर है। जब मनुष्य भीतर के सुख को पहचानता है, तब उसे विश्व की एकात्मता का बोध होता है। यह दर्शन अतिवाद को स्थान नहीं देता।
भागवत ने कहा कि विश्व में आर्थिक अस्थिरता कई बार देखी गई, लेकिन भारत पर इसका प्रभाव कम रहा क्योंकि यहां की आर्थिक संरचना परिवार-व्यवस्था पर आधारित है। उन्होंने विज्ञान की प्रगति पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि भौतिक सुविधाएँ तो बढ़ी हैं, लेकिन क्या मनुष्य की शांति और संतोष भी बढ़ा है—यह चिंतन का विषय है।
उन्होंने कहा कि दुनिया के केवल चार प्रतिशत लोग विश्व के 80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करते हैं, जिससे असमानता बढ़ रही है। इसके विपरीत भारत की विविधता उसका बल रही है—यहां अनेक देवी-देवता, मत और विचारधाराएँ होते हुए भी समाज में संघर्ष नहीं, उत्सव की भावना रही है।
भागवत ने कहा कि दुनिया शरीर, मन और बुद्धि के सुख को जानती है, लेकिन इन्हें आत्मा के सुख के साथ संतुलित करने की कला केवल भारत की परंपरा जानती है।
कार्यक्रम की प्रस्तावना एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष डॉ. महेश शर्मा ने प्रस्तुत की।