धर्म संसद को लेकर रिएक्ट न करें मुसलमान, वे लोग मोहन भागवत और पीएम को भी देते हैं गालीः जफर सरेशवाला

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] • 2 Years ago
जफर सरेशवाला
जफर सरेशवाला

 

मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर और मदरसों में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने को सक्रिय जफर सरेशवाला से बातचीत के इस हिस्से में आवाज-द वॉयस (हिंदी)के संपादक मलिक असगर हाशमी ने मदरसे की तालीम, मस्जिद में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल और धर्मसंसद जैसे कई अहम मुद्दों पर चर्चा की. उन्होंने तमाम सवालों का बड़ी बेबाकी से जवाब दिया है. पेश हैं उसके अंश.

प्रश्नः मुसलमान सोचता है हमारे लिए जो कुछ करेगी सरकार करेगी. हम अधिकार की बात तो करते हैंपर कर्तव्य की बात नहीं करतेइसकी क्या वजह है?

जफर सरेशवालाः सरकार चाहे किसी की भी हो, सिर्फ फेसिलेट ही कर सकती है. सरकार उससे ज्यादा नहीं कर सकती. चाहे कोई भी गवर्नमेंट हो, करना तो आपको ही पड़ेगा. हिंदुस्तान कोई सोशल सिक्योरिटी स्टेट नहीं है कि कोई ‘डोल’ आएगा. गवर्नमेंट की स्कीमें ओपन होती है. प्रॉब्लम यह है कि मुसमलानों के बहुत बड़े तबके को इसके बारे में मालूम ही नहीं है.

मुसलमानों का जो दानिश्वर तबका है, पढ़ा-लिखा वर्ग, उसे अपनी कौम को एजुकेट करना पड़ेगा. कोई सरकारी अफसर घरों में जाकर सुविधा नहीं देगा. इसके लिए आपकी जो तैयारी होनी चाहिए, वह आपको करनी पड़ेगी.

प्रश्नः कई मामलों में हम खुद को बदलना नहीं चाहते. खासकर मदरसे और लाउस्पीकर से अजान को लेकर. इस पुरातनपंथी सोच को कैसे बदला जाए?

जफर सरेशवालाः मदरसों में चार प्रतिशत से ज्यादा बच्चे नहीं हैं. मदरसों में पिछले कई सालों से बहुत चेंज आ रहा है. बहुत सारे मदरसों में इंग्लिश, मैथ, साइंसस कंप्यूटर वगैरह पढ़ाया जाता है. बल्कि बहुत सारे मदरसों के बच्चे नेशनल ओपन स्कूल के जरिए दसवीं, बारहवीं के एग्जाम देते हैं.

मुझे बहुत सारे मदरसे के बच्चे क्लेट यानी लॉ के लिए जो एग्जाम होते हैं, उसकी तैयारी करते मिले. यानी धीमे-धीमे एक चेंज हो रहा है और वह गुजरात में अधिक दिखता है. बिहार, बंगाल, असम और यूपी के बहुत सारे इलाकों में मुसलमानों में तालीम को लेकर बेदारी पैदा हो रही है. चेंज बहुत थोड़ा है, लेकिन आ रहा है.

जहां तक अजान की बात है. अजान देना फर्ज है, लेकिन लाउडस्पीकर से अजान देना फर्ज नहीं है. यह इतना बड़ा इशू नहीं है. मेरा मानना है कि नमाज पढ़नेवाला, अजान की आवाज आए या न आए, नमाज पढ़ने चला जाता है और नहीं पढ़नेवाला मस्जिद के पड़ोस में रहकर भी नहीं पढ़ता.

अगर मस्जिद के आसपास गैर-मुस्लिम हैं तो उन्हें इससे परेशानी होती है. तो ठीक है लाउडस्पीकर में न दें अजान. यह कोई इतना बड़ा मसला नहीं है.

प्रश्नः क्या मदरसों के आधुनिकीकरण मात्र से मुसलमानों के बीच शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा?

जफर सरेशवालाः मैंने तो पहले भी कहा कि मदरसे में तो सिर्फ चार फीसद बच्चे हैं, बाकी तो मदरसे के बाहर हैं. मदरसे के बाहर जो तबका है मुसलमानों का उसमें भी चेंज आ रहा है अभी.

यानी जिस तरह से स्कूल में एडमिशन हो रहे हैं, पहले के मुकाबले में बहुत बेहतर है. मुसलमानों का जो ड्रॉप आउट रेट था, आठवीं और बारहवीं में, धीमे-धीमे वह भी कम हो रहा है.

आप किसी भी मेडिकल, इंजीनियरिंग या प्रोफेशनल कॉलेज में चले जाएंगे आपको काफी तादाद में पहले के मुकाबले में मुसलमान बच्चे दिखते हैं. यूपीएससी के लिए जो एग्जाम होते हैं, उसमें पहले जितने मुसलमान बच्चे बैठते थे, उसके मुकाबले में हर साल ज्यादा बच्चे बैठ रहे हैं.

यह एक चेंज है. मैने देखा, मदरसे के बड़ी तादाद में बच्चे दसवीं, बारहवीं के इम्तिहान दे रहे हैं. कॉलेज में जा रहे हैं. मेरी कोशिश यही है. मैं मदरसों वालों को कुछ नहीं कहता.

उनसे कहता हूं आप जो पढ़ाते हैं पढ़ाइए, जो-जो तालीम देते हैं, दें. बस इतना करें कि आपके बच्चे नेशनल ओपन स्कूल में एनरोल हों और मदरसे से दसवीं और बारहवीं के एग्जाम देकर निकलें. जब वो आलिम बनकर निकलें, तो बारहवीं कर के निकलें.

पहले मुझे नहीं मालूम था. बाद में पता चला कि हिंदुस्तान में बहुत सारी यूनिवर्सिटी हैं, उन्होंने सालों से, 200-250मदरसे हैं जिनकी डिग्री को बीए, बीकॉम फर्स्ट इयर के बराबर का दर्जा दे रखा है. यानी मदरसे से जो बच्चा निकले वह बीए, बीकॉम में जा सकता है.

मैं जब मौलाना आजाद यूनिवर्सिटी से निकला, मैं समझता हूं कि मेरा कोई काम याद रहेगा पूरी जिंदगी में, वह था कि हमने 2015में ढाई सौ मदरसे आइडेंटिफाई किए. जो बच्चा उन मदरसों से आएगा उसे मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी में एडमिशन देंगे. इसके लिए हमने यूनिवर्सिटी में ब्रिज कोर्स बनाया. मदरसे से निकाला हुआ बच्चा ब्रिज कोर्स में आए, फिर वह वहां से इंजीनियरिंग में जाए, फार्मेसी में जाए. इकोनॉमिक्स पढ़े.

इस तरह की बहुत सारी चीजें अब डेवलप हो रही हैं. जरूरी है कि हमारे बच्चे उसका फायदा उठाएं.

प्रश्नः खेल को बढ़ावा देकर मुसलमानों की तस्वीर बदली जा सकती हैपर मुस्लिम तंजीमें इस दिशा में काम नहीं करतींइसकी क्या वजह है?

जफर सरेशवालाः जिस कौम के बारे में हदीस-ए-पाक में आता है कि खुदा के रसूल ने यह फरमाया कि जो आदमी रोजी के लिए इशराक की नमाज के बाद निकल जाता है, उसकी रोजी में अल्लाह बरकत देता है.

इशराक कहते हैं सूर्योदय के फौरन बाद की नमाज को. अब मुसलमान मोहल्ले में चले जाएं सन्नाटा होता है उस समय. यानी जो कौम सुबह नमाज से अपना काम शुरू करती थी वह 10-11बजे उठती है.

किसी भी शहर में चले जाएं. हमारे मोहल्ले में रात के बारह बजे टिक्के और कबाब की दुकानें सजी मिलेंगी. जो कौम रात के बारह-एक बजे तक घूमेगी, फिर वह कब सुबह उठेगी और कब वर्जिश करेगी?

वर्जिश और एक्सरसाइज तो हमारे दीन का हिस्सा है. मैं समझता हूं कि यह हमें भी इस तरफ तवज्जो करने की जरूरत है. मेडल कमाएं या न कमाएं. वेस्ट में देखिए. आपको हैवी ट्रैफिक सुबह में मिलेगी.

इंग्लैंड, अमेरिका जैसे देशों में सुबह में भारी ट्रैफिक होता है. नौ बजे ऑफिस सबकी शुरू हो जाती है. जो लोग जल्दी उठते हैं, वह वर्जिश भी करते हैं. वह अपना काम भी जल्द खत्म कर देते हैं. इसकी तरफ मुसलमानों को तवज्जो देने की जरूरत है. सीरियसली. आपकी बात सही है कि इस तरफ हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया.

प्रश्नः क्या मस्जिदों को नमाज के अलावा सूचना केंद्र में और मदरसों को पढ़ाई के अलावा खेल के केंद्र के रूप में बदला जा सकता है?

जफर सरेशवालाः बहुत सारे मदरसों में खेल का इंतजाम है. शाम में मदरसे के बच्चे वॉलीबॉल और फुटबॉल खेलते हैं. मैं जब मौलाना आजाद यूनिवर्सिटी में था तो स्पोर्ट्स शुरू किया था. यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम बनाई थी.

मोहम्मद अजहरुद्दीन, हैदराबाद के मशहूर क्रिकेटर, जो भारत के कप्तान रह चुके हैं. उनको मैंने बुलाया था. उनसे आग्रह किया था कि यहां क्रिकेट अकेडमी बनाएं.

पुराने जमाने में मस्जिदें सिर्फ नमाज के लिए नहीं होती थीं. इसमें सीखना-सिखाना होता था. लोगों के मसले हल होते थे. अब मस्जिद ट्वेंटी फोर सेवन वाली होनी चाहिए. वहां सारी बातें होनी चाहिए. करंट टॉपिक पर चर्चा होनी चाहिए. लोगों के मसले-मसाइल पर भी तवज्जो देनी चाहिए. इसके लिए मस्जिद बहुत अच्छा सूचना केंद्र हो सकता है.

एक मस्जिद जो मैंने देखी थी मद्रास में. मक्का मस्जिद. शहर के मेन सड़क पर है. मस्जिद वालों ने मस्जिद में यूपीएससी के एग्जाम की तैयारी का सेंटर खोल रखा है. नीचे नमाजियों की जमात लगती है.

पहले माले पर लड़कों का हॉस्टल है. दूसरे पर लड़कियों का हॉस्टल है. उसके ऊपर के माले पर लाइब्रेरी है. वहां बच्चों के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम चलते हैं. हर साल वहां से तीन-चार बच्चे यूपीएससी क्रैक करते हैं. हालांकि वह मस्जिद है, पर उन्होंने इसका बेहतरीन मॉडल बनाया है. हमें इस दिशा में सोचना चाहिए और इसमें कोई गलत नहीं है.

प्रश्नः अगले 20वर्षों में मुसलमानों में बदलाव दिखे. इसके लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए?

जफर सरेशवालाः मेरा जो सब्जेक्ट है, मैं उसकी ही बात करूंगा. तालीम में पूरी तरह लगाए मुसलमान अपने-आपको. लिटरेसी की बात नहीं है. आईएएस लेवल का एजुकेशन हो. मुसलमान जिस फील्ड में जाए, चाहे भूगोल पढ़े. लेकिन आखिरी दर्जे पर पहुंचे. संस्कृत पढ़े तो पंडित बनकर निकले.

अरबी पढ़े. मदरसे में जाए. कुरान की तशख्खुस करे. या फिका में जाए. इंजीनियरिंग में जाए तो आखिरी तक पढ़ाई करे. यानी इसे फोकस कर मुसलमान यह तय करे कि हमें तालीमयाफ्ता बना है, तो बोलते हैं न एवरीथिंग एल्स फिल फाल इन प्लेस. जब यह होगा तब सारी चीजें अपने आप हो जाएंगी.

यह हम सब कर सकते हैं. हमें इसमें किसी की मदद की जरूरत नहीं. सरकार की इतनी सारी स्कीमें हैं तालीम को लेकर, आराम से सबको मिलती है स्कॉलरशिप. बहुत सारी सोसाइटियां हैं, बहुत सारे आदरे हैं. हमारे जैसे कारोबारी हैं, तालीमयाफ्ता हैं उन्हें कौम के नौजवानों को रास्ता दिखाने की जरूरत है. लोगों को इसके लिए आगे आना चाहिए.

प्रश्नः आजकल धर्म-संसद को लेकर मुसलमानों में बेचैनी देखी जा रही है. मुसलमान क्या ऐसे इवेंट को इग्नोर कर दे या कानून का सहारा ले,आपका क्या सुझाव है?

जफर सरेशवाला: यह जिम्मेदारी हुकूमतों की है. अब तो बहुत सारे हिंदू रहनुमाओं ने लिखा है धर्म संसद के खिलाफ कि यह धार्मिक लोग नहीं हैं. इनका धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है. अब धीमे-धीमे कार्रवाई शुरू हो गई है. यह हुकूमत को ही करना पड़ेगा. यह जहां भी हुआ, हरिद्वार में हुआ या जहां भी हुआ, अगर वहां की गवर्मेंट ऐसे लोगों के खिलाफ एक्शन नहीं लेती तो नुक्सान उनका ही होगा

मुसलमानों को मैं कहता हूं कि देखिए उनकी बातों पर बहुत रिएक्ट करने की जरूरत नहीं. यह नुक्सान अपने-आप को पहुंचा रहे हैं. यह लोग धर्म का लिबादा ओढ़कर बैठे हैं.

जैसे हमारे यहां आईएसआईएस के लोग, या अलकायदा के लोग या दाइश के लोग. कहने को तो आपने आप को इस्लामिक कहते हैं, पर न वह इस्लामिक हैं और न ही इस्लाम से उनका कोई ताल्लुक है. इस्लाम का लिबादा ओढ़ लिया है उन्होंने. इसी तरह यह लोग हैं. इनका हिंदू मजहब से कोई लेना-देना नहीं है. इससे मुसलमानों को घराबने की जरूरत नहीं है. मुसलमानों को उन्हें जवाब देने की भी जरूरत नहीं है.

यह करते ही इसलिए हैं कि आप इश्तिेयाल में आ जाएं. आप रिएक्ट करो. मैं समझता हूं कि मुसलमान खामोशी से अपना काम करे जो करना है उसे. बिल्कुल रिएक्ट न करें. ये नुकसान पहुंचा रहे हैं हिंदू मजहब को.

जैसे 9-11को हवाई जहाज हाईजैक नहीं हुआ था, उस दिन इस्लाम हाईजैक हुआ था. हम जैसे लोगों की जिम्मेदारी थी कि जिन लोगों ने हाईजैक किया था उनकी खिलाफ कार्रवाई में मदद करते. ऐसे ही हिंदू समाज है. उसकी जिम्मेदारी है कि जिन गलत लोगों ने धर्म का लिबादा ओढ़ रखा है उसे उनसे वापस लेने की जरूरत है.

प्रश्नः एक छवि-सी बन गई है कि संघ इस तरह के काम में रहता हैजबकि संघ मुसलमानों को करीब लाने का प्रयास कर रहा है. हिंदू-मुसलमानों के एक डीएनए की बात कर रहा हैफिर नरसंहार की बात करने वाले कौन हैंउनकी पहचान भी तो होनी जरूरी है.?

जफर सरेशवालाः नरसंहार की बातें करने वाले जो लोग हैं वह सबसे ज्यादा गाली किसको देते हैं?भागवत जी को देते हैं. आपने सुना होगा कि हमारे प्रधानमंत्री के लिए या भाजपा के मंत्रियों के लिए किस तरह की जुबान इस्तेमाल की गई. भद्र समाज इस तरह की जुबान इस्तेमाल भी नहीं कर सकता.

भागवत साहब ने जब कहा कि हमारा डीएनए एक है तो यह उन्हें गाली देने लगे. ये वो लोग हैं जिन्हें भागवत जी भी बर्दाश्त नहीं हैं. नरेंद्र मोदी बर्दाश्त नहीं. मैं भी संघ के लोगों से मिलता हूं.

बातचीत होती है और जब यह बात हुई, खासतौर से यह जो नरसंहार की बात हुई हरिद्वार में, तो वो भी डिस्टर्ब थे. वो कहने लगे हिंदू मजहब यह नहीं है. हिंदू समाज के और जो आरएसएस के ग हैं, उनकी जिम्मेदारी यह है कि ऐसे लोगों को उनकी वास्तविक जगह पर बैठाएं. यह उनकी जिम्मेदारी है. मुसलमानों को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं.

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