मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारूक शाह : कभी नहीं भूलेगा कश्मीर

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 21-05-2021
मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारूक शाह
मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारूक शाह

 

आशा खोसा / नई दिल्ली

मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारूक शाह कश्मीर की सियासत का जाना-पहचाना चेहरा रहे हैं. वह हरे झंडे वाली अपनी राजनीतिक पार्टी अवामी एक्शन कमेटी के वरिष्ठ लीडर थे और आज ही के दिन 31 साल पहले उन्हें आतंकवादियों ने गोलियों का निशाना बनाया था.
 
उनकी श्रीनगर में खासी पकड़ती थी. समर्थक हर तरफ मौजूद थे. उनकी पार्टी को कश्मीर की सियासत की धुरी रहे नेशनल कांफ्रेंस के खिलाफ खड़ा किया गया था, जो तीन पीढ़ियों से पूरे कश्मीर पर पकड़ बनाए हुए है. 
 
अपने खिलाफ एक पार्टी को उभरता देख नेशनल कान्फ्रेंस वाले खुद को शेर और एएसी समर्थकों को अपमानित करने के लिए बकरा कहा करते थे.बकरा शब्द से घृणास्पद प्रतिद्वंद्विता की बू आती थी. फिर भी कश्मीर में उपनामों की लोकप्रिय संस्कृति को देखते हुए, यह मीरवाइज के समर्थकों के साथ चिपक गया.
 
चुनाव के समय शेर-बकरा का मजाक अक्सर गंभीर हो जाता था. बाद में यह अहानिकर हो गया. दोनों पार्टियों के समर्थकों के बीच गलियों, सड़कों पर अक्सर टकराव होने लगे.इससे पहले घाटी में आतंकवाद और हिंसा आम बात थी.
 
हर तरफ हिंसात्मक माहौल था. मीरवाइज इलाके के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. उनकी धार्मिक छवि होने के कारण उन्हें सम्मानित नजरों से देखा जाता था. वह एक सम्मानित और प्रतिष्ठित परिवार के वंशज थे. उनके चाचा यूसुफ शाह असली मीरवाइज थे. दारुल-उलूम, देवबंद से शिक्षित मौलवी, मीरवाइज यूसुफ शाह, बाद में राजनीति में आ गए.

मगर कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला के सामने उनकी सियासत कामयाब नहीं रही. वह पाकिस्तान चले गए और पाकिस्तान के कब्जा वाले कश्मीर के हिस्से पीओके के प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए.
maoulvi
19 वर्षीय फारूक शाह 24 दिसंबर, 1963 को हजरतबल दरगाह से पैगंबर मोहम्मद के पवित्र अवशेष के रहस्यमय ढंग से गायब होने के खिलाफ आंदोलन के दौरान एक नेता के रूप में उभरे थे. इस घटना ने कश्मीर को संघर्ष की आग में झोंक दिया. राजनेताओं पर हमले हुए. आगजनी की घटनाएं दर्ज की गईं.
 
फारूक शाह, जो जामा मस्जिद के मुख्य इमाम थे. आंदोलन की रहनुमाई कर रहे थे. वे मुए-मुबारक की बरामदगी की मांग कर रहे थे. उस वक्त वह अवामी एक्शन कमेटी का भी नेतृत्व कर रहे थे. लेकिन मुए-मुबारक 4 जनवरी, 1963 को बरामद कर लिया गया, जिसे लेकर खुफिया ब्यूरो के प्रमुख बी एन मलिक श्रीनगर पहुचे.

बताया गया कि जो लोग इसी रक्षा में तैनात थे. उन्होंने ही इसे गायब किया. इसके बाद किसी तरह हिंसा शांत हुई. इसके बावजूद लोगों को यह संदेह था कि इसके पीछे एक राजनीतिक साजिश थी,जिसमें दिल्ली ने भूमिका निभाई थी.
 
मुए-मुबारक आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए फारूक शाह की सराहना की गई. उनका इलाके में सियासी कद बढ़ा. 1968 में रावलपिंडी में चाचा की मृत्यु के बाद मीरवाइज का ओहदा उन्हें मिल गया. जिससे उनकी छवि और निखर आई.
 
युवा मीरवाइज घर में पढ़े-लिखे थ. उन्हें इस्लाम पर खासी पकड़ थी. मजहबी किताबों का खूब अध्ययन किया था. लेकिन वह अंग्रेजी नहीं जानते थे. उन्होंने श्रीनगर के जामा मस्जिद की इमामत के साथ कभी राजनीति नहीं की. वह हमेशा अपने धार्मिक उपदेशों पर टिके रहे. सभी धर्मों का वह सम्मान करते थे.
 
एक कश्मीरी पंडित ने वहां के चर्चित समाचार-पत्र ‘ कश्मीर टाइम्स ’  के  एक लेख लिखा था जिसमें बताया गया था कि कैसे शहर में रहने वाले उनके समुदाय ने मीरवाइज परिवार के प्रति सम्मान दिखाया. लेखक राज कुमार खुशु बताते हैं कि उनके परिवार ने उन सैकड़ों कश्मीरियों की मदद की थी, जिन्होंने श्रीनगर में लगाई गई नफरत की आग में अपना सब कुछ खो दिया था.
 
लेखक ने अपनी दादी और मीरवाइज की कार को लेकर भी एक किस्सा बयान किया है, जो काफी चर्चित रहा.एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक, एक बार पंजाब के एक प्रतिनिधिमंडल ने उन्हें कश्मीर का दौरान कराने के लिए कहा था, तब आतंकवाद चरम पर था. वहां पहुंचने पर उन्होंने प्रतिनिधिमंडल से न केवल अच्छा व्यवहार किया, चाय-नाश्ते से उनका स्वागत भी किया.मीरवाइज ने उनके साथ काफी देर तक बातचीत 
करते रहे.
 
उनके जाने के बाद पत्रकार ने जब मीरवाइज से पूछा कि वह कब पंजाब जाने वाले हैं. मौलवी ने जवाब दिया, ‘‘मैं कश्मीर में एक मीरवाइज के रूप में अपनी जिम्मेदारियों में इतना व्यस्त हूं कि मेरे पास न तो समय है और न ही अन्य चीजों के लिए झुकाव.‘‘ इसी तरह, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं सीमित रहीं,क्योंकि वह कश्मीर के मीरवाइज के रूप में और इस्लामी दुनिया से मिले सम्मान और प्यार से शायद खुश थे.