शेरशाहबादी महिलाएं 'खेता' कला में हो रहीं आत्मनिर्भर

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 03-07-2024
Kishanganj's Shershahabadi women are becoming self-reliant in 'Kheta' art
Kishanganj's Shershahabadi women are becoming self-reliant in 'Kheta' art

 

किशनगंज. बिहार के सीमांचल इलाके के किशनगंज जिले में लगभग 500 वर्ष पुरानी 'खेता' कला को आगे बढ़ाकर शेरशाहबादी महिलाएं आज आत्मनिर्भर बन रही हैं. यह वह कला है जिसमें कलात्मक अभिव्यक्ति है.

इसमें ज्यामितीय रूपांकनों के साथ कशीदाकारी से चीजें बनाई जाती हैं. किशनगंज जिले की शेरशाहबादी महिलाओं के बीच यह कला काफी प्रचलित है. खेता कला से रजाई और साड़ियां, कुशन कवर, स्टोल आदि बनाई जा रही हैं. सीमांचल के किशनगंज और अन्य जिलों पूर्णिया और कटिहार में इस कला का इतिहास करीब 500 साल पुराना है.

शेरशाहबादी समुदाय शेरशाह सूरी के वंशज माने जाते हैं. इस कला से जुड़ी अधिकांश महिलाएं इसी समाज से आती हैं. इस कला से जुड़ी महिलाओं का कहना है कि पहले निजी उपयोग के लिए पुराने कपड़ों पर कढ़ाई कर कुछ उत्पाद बनाये जाते थे, लेकिन आज बाजार को ध्यान में रखकर नए कपड़ों पर इस कला का उपयोग हो रहा है. इस कला की दर्जनों महिलाओं को प्रशिक्षित कर चुकी अर्राबाड़ी गांव की तजगरा खातून का कहना है कि आज इस गांव मे 100 से अधिक महिलाएं इस कला के जरिये आत्मनिर्भर बन चुकी हैं.

फिलहाल खेता कढ़ाई से बने स्टोल, सुजनी, चादर, फलिया, नोटबुक, तकिया के खोल आदि के ऑर्डर देश के अलावा विदेशों से भी आते हैं. इससे एक कारीगर की हर माह सात हजार से आठ हजार तक की कमाई होती है. उन्होंने हालांकि, यह भी कहा कि यह बहुत बारीक काम है, जिसमें सिर्फ सुई और धागा का प्रयोग होता है.

इस कला को बढ़ावा देने में जुटे अशराफुल हक ने आईएएनएस को बताया कि आज 250 से ज्यादा महिलाएं खेता कला से उत्पाद तैयार कर रही हैं, जबकि 1000 से ज्यादा महिलाएं इस कला से जुड़ी हैं.

सलया देवी ने कहा, "हमारा काम भी चारदीवारी के भीतर ही रह जाता, लेकिन अशराफुल जी ने आजाद इंडिया फाउंडेशन के जरिये इस कला को पुनर्जीवित किया. आज कई सरकारी स्टॉलों पर यहां के उत्पाद पहुंच रहे हैं. कई शहरों में प्रदर्शनी लगाई जाती है."

बताया गया कि वर्ष 2022 में यूनेस्को ने इस कला को अपनी सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल किया. इसके बाद बिहार सरकार के उद्योग विभाग ने भी इसे तरजीह दी है. अब खेता कढ़ाई से बने उत्पादों की मांग बढ़ रही है.

फिलहाल खेता कढ़ाई से बने स्टोल, सुजनी, चादर, नोटबुक, तकिया के खोल आदि के ऑर्डर मिल रहे हैं. अशराफुल ने कहा है कि यह खेता कला बिहार के किशनगंज जिले की खानदानी कला है. इसमें कपड़े के तीन-चार तह पर सूई और खास धागों की मदद से कढ़ाई की जाती है.

धागों की मदद से कशीदाकारी की जाती है, अलग-अलग डिजाइन बनाई जाती है. इस कला की खास बात यह है कि इसमें इस्तेमाल किए जाने वाले धागे सूती और रेशम के होते हैं. यह कढ़ाई फ्रेम को सुरक्षित करने वाले किसी पैटर्न या कपड़े के बिना की जाती है. इसके उत्पादों का इस्तेमाल लोग ठंड, गर्मी और बरसात हर समय कर सकते हैं.

उन्होंने बताया कि उत्पादों को बनाने में न्यूनतम 500 रुपये से लेकर अधिकतम दस हजार रुपये तक का खर्च आता है. इस कला से जुड़ी रजिया खातुन का कहना है कि कढ़ाई ने महिलाओं को उद्देश्य और स्वतंत्रता की भावना दी है. हमें किसी पर निर्भर नहीं रहना है. अब हम आत्मनिर्भर हैं और आत्मविश्वास के साथ अपने घरों से बाहर निकल सकते हैं.

आज हम महिलाएं मिलकर न केवल इस कला को आगे ले जा रही हैं, बल्कि स्वयं आत्मनिर्भर भी हो रही हैं. वैसे, इस कला से जुड़ी महिलाओं को अब वस्त्र उद्योग मंत्री बने बेगूसराय के सांसद गिरिराज सिंह से बड़ी आस है. इस कला से जुड़ी महिलाएं मानती हैं आज हमें उत्पाद के लिए सही बाजार नहीं मिल पाता है. हमें प्रदर्शनी का इंतजार करना पड़ता है. अगर बाजार उपलब्ध हो तो इससे और महिलाएं जुड़ेंगी.

 

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