वो मेरी उम्मीदों से कहीं आगे जाकर 'उमराव' बन गईं : बोले मुजफ्फर अली

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 17-06-2025
She went beyond my expectations and became 'Umrao': said Muzaffar Ali
She went beyond my expectations and became 'Umrao': said Muzaffar Ali

 

मुंबई (महाराष्ट्र)

प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मुजफ्फर अली ने हाल ही में अपनी कालजयी फिल्म 'उमराव जान' के थिएटर में फिर से रिलीज होने को लेकर बात की.अपनी काव्यात्मक कहानी, भावपूर्ण संगीत और सांस्कृतिक गहराई के लिए मशहूर यह फिल्म आज भी दर्शकों को उतनी ही मोहक लगती है जितनी अपने पहले प्रदर्शन के समय.

बातचीत में जब अली से पूछा गया कि क्या आज की तेज़ रफ्तार दुनिया में भी कविता, संगीत और इतिहास से जुड़ी फिल्मों की कोई जगह है, तो उन्होंने एक दार्शनिक अंदाज़ में जवाब दिया:"कला को दिल की गति पर चलना होता है.

अगर वह दूर तक असर डालने वाली है, तो वह वक्त लेगी, उसमें गहराई होगी.आप दुनिया को दोष नहीं दे सकते.फिर कमजोर कला बना सकते हैं.सच्ची कला की अपनी लय होती है, और वो हमेशा उन्हें छूती है जो उसे खोजते हैं."

रेखा के साथ उनके सहयोग को मुजफ्फर अली ने “एक सपने के साथ काम करने” जैसा बताया.“रेखा उस सपने को मेरे साथ देख रही थीं.मैं कुछ सोचूं, उससे पहले ही वो उस भावना में उतर चुकी होती थीं.

उन्होंने सिर्फ अभिनय नहीं किया — उन्होंने खुद को उमराव बना लिया.दर्द, तहज़ीब, और उस दौर की आत्मा को उन्होंने आत्मसात कर लिया था.यह सिर्फ किरदार निभाना नहीं था, यह एक रूपांतरण था.”

जब पूछा गया कि रेखा की 'उमराव' को इतना अविस्मरणीय किसने बनाया, तो अली ने जवाब दिया:“सबसे बड़ी चुनौती थी उमराव के दर्द को समझना — यह जानना कि उस दौर में एक औरत होना क्या मायने रखता था.रेखा ने सिर्फ उमराव को निभाया नहीं, उन्होंने उसे जिया.उनका दर्द, उनकी कला, और उनका जज़्बा – ये सब स्वाभाविक रूप से उनमें समा गए थे.”

क्लासिक स्टोरीटेलिंग की प्रासंगिकता पर अली ने ज़ोर देते हुए कहा कि एक फिल्म को महसूस करना ज़रूरी है, सिर्फ शूट करना काफी नहीं:“थोड़ी देर के लिए आपको भूलना होगा कि आप सिनेमा बना रहे हैं.

कहानी को छूना पड़ेगा, उसके दृश्य और अदृश्य पहलुओं को महसूस करना होगा.जब आप ऐसा करते हैं, तो कहानी खुद-ब-खुद सिनेमा का रूप ले लेती है.फिल्म की आत्मा लोगों से आती है, और यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलती है.यही वजह है कि ‘उमराव जान’ फिर से जन्म लेती महसूस होती है.”

फिल्म की दोबारा रिलीज को लेकर अली को उम्मीद है कि नया दर्शक वर्ग इसकी गहराई से जुड़ पाएगा:“यह एक व्यक्ति से व्यक्ति तक पहुंचने वाली फिल्म है.हर दृश्य की तीव्रता तब और बढ़ेगी जब लोग इससे खुद को जोड़ेंगे.सामूहिक अनुभव वहीं से शुरू होगा – पहले सुना, फिर खुद देखने की चाह.”

फिल्म की यात्रा पर एक कॉफी टेबल बुक भी रिलीज की जा रही है। इसके बारे में अली ने बताया:“यह एक मील का पत्थर है.'कमाथ फोटो फ्लैश' के साथ काम करने का अवसर मिला, और उनके संग्रह से बहुत कुछ मिला.हमने फिल्म के पुनर्स्थापन (restoration) की प्रक्रिया से भी दुर्लभ फ्रेम्स लिए, जो एक अनोखा अनुभव था.”

“यह किताब एक दृश्यात्मक सौगात है – सिनेमा प्रेमियों, छात्रों और कलेक्टर्स के लिए.इसमें फिल्म की कहानी, समय और कला की परतें बड़ी खूबसूरती से समेटी गई हैं.”हाउस ऑफ कोटवारा और ‘उमराव जान’ के बीच संबंध पर उन्होंने कहा:“'उमराव जान' वस्त्रों के माध्यम से कही गई कहानी है.ये कपड़े खरीदे नहीं जाते – ये विरासत से आते हैं, घरों से, संस्कृति से.एक चित्रकार होने के नाते, मैंने इन कपड़ों के रंगों में भावनाएं देखीं, कहानियां देखीं.”

“हाउस ऑफ कोटवारा का दर्शन महिलाओं को हुनर और परंपरा के ज़रिए सशक्त बनाना है, और यही भावना फिल्म में भी झलकती है.”इतिहास, कला और भावना के अद्भुत संगम से सजी ‘उमराव जान’ भारतीय सिनेमा की एक अमर कृति बन चुकी है.फिल्म का पहला संस्करण 1981में रेखा के साथ आया था, जिसे चार राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे और यह एक संस्कृतिक क्लासिक बन गई.

वहीं 2006 का संस्करण, जिसमें ऐश्वर्या राय बच्चन थीं, दर्शकों से खास जुड़ाव नहीं बना पाया.दोनों ही फिल्में मिर्जा हादी रुस्वा के उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ पर आधारित हैं.