आवाज द वाॅयस /नई दिल्ली
भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जो सिर्फ कलाकार नहीं, बल्कि एक युग बन जाते हैं। दुर्गा खोटे उन्हीं दुर्लभ नामों में से एक थीं। जब भारतीय समाज में महिलाओं का फिल्मों में काम करना वर्जित माना जाता था, तब उन्होंने न केवल इस रूढ़ि को तोड़ा, बल्कि अपने अभिनय और आत्मसम्मान से आने वाली पीढ़ियों को एक नई दिशा दी। आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करना केवल श्रद्धांजलि देना नहीं, बल्कि उस साहस, दृष्टि और प्रतिभा को सलाम करना है, जो उन्होंने भारतीय सिनेमा को दी।
एक शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्री की शुरुआत
14 जनवरी 1905को मुंबई (तत्कालीन बॉम्बे) में जन्मी दुर्गा खोटे एक आधुनिक और शिक्षित परिवार से थीं। उन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की—जो उस समय महिलाओं के लिए दुर्लभ था। एक गृहिणी के रूप में उनका जीवन सामान्य गति से चल रहा था, लेकिन पति के असमय निधन के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं। अपने बच्चों की परवरिश के लिए उन्हें आत्मनिर्भर बनना पड़ा और यहीं से शुरू हुआ उनका वह सफर जो उन्हें भारतीय सिनेमा की पहली "स्वतंत्र" महिला कलाकार बना गया।
जब फिल्मों में कदम रखना विद्रोह था
20 वीं सदी के तीसरे दशक में फिल्मों में काम करना महिलाओं के लिए लगभग असंभव था। अधिकांश महिला किरदार भी पुरुष कलाकारों द्वारा निभाए जाते थे। लेकिन दुर्गा खोटे ने इस सामाजिक निषेध को चुनौती दी।
उन्होंने 1931 में अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की, और 1932की “माया मच्छिंद्र” तथा “अयोध्या का राजा” जैसी शुरुआती टॉकी फिल्मों से ही उन्होंने इतिहास रच दिया। उस दौर में जब महिलाएँ परदे पर आने से कतराती थीं, दुर्गा खोटे ने अभिनय को एक गरिमामयी पेशे में बदलने की दिशा में पहला कदम बढ़ाया।
करियर: अभिनय नहीं, एक मिशन था
अपने करियर में उन्होंने हिंदी और मराठी की 200से अधिक फिल्मों में काम किया। चाहे “संत तुकाराम” हो, “मोगल-ए-आज़म” का जोधाबाई का किरदार हो, या सामाजिक-पारिवारिक फिल्में — हर भूमिका में वे मानो स्वयं उस किरदार में ढल जाती थीं।
मुगल-ए-आज़म में जोधाबाई के रूप में उनका सौम्य yet सशक्त अभिनय आज भी भारतीय सिनेप्रेमियों के हृदय में जीवित है। उनकी शैली सहज, स्वाभाविक और गहराई से भरी हुई थी — बिना अतिनाटकीयता के भी वह दर्शकों के मन को छू जाती थीं।
दुर्गा खोटे: सिर्फ अभिनेत्री नहीं, विचारधारा थीं
दुर्गा खोटे को "भारतीय सिनेमा की पहली स्वतंत्र महिला कलाकार" कहना अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि उनके साहसी निर्णयों और सामाजिक बाधाओं को पार करने की कहानी का सार है। उन्होंने केवल अभिनय ही नहीं किया, बल्कि पूरे समाज को यह संदेश दिया कि स्त्री की प्रतिभा और आत्मनिर्भरता का सम्मान होना चाहिए। उनके लिए अभिनय केवल पेशा नहीं था, बल्कि आत्मसम्मान और स्वावलंबन की राह थी।
थिएटर और संस्कृति में भी उतना ही सक्रिय योगदान
फिल्मों के अलावा दुर्गा खोटे ने मराठी रंगमंच में भी विशेष योगदान दिया। उन्होंने थिएटर को उसी गंभीरता और समर्पण से लिया, जैसे फिल्मों को। साथ ही, उन्होंने नवोदित कलाकारों को प्रोत्साहित किया, उन्हें मंच दिया और एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अभिनय को सँवारा। वे अभिनय को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज-परिवर्तन का माध्यम मानती थीं।
सम्मान, जो उनके योगदान की गवाही देते हैं
दुर्गा खोटे को भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मानों से नवाज़ा गया। उन्हें 1983में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया—यह केवल पुरस्कार नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की ओर से उनके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी। उन्हें पद्मश्री, फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड जैसे अन्य सम्मान भी मिले। परंतु उनका सबसे बड़ा सम्मान वह विरासत है जिसे वे पीछे छोड़ गईं—एक ऐसी प्रेरणा, जो आज भी हर महिला कलाकार के आत्मविश्वास का स्तंभ है।
5 सितंबर 1991: एक युग का अवसान
86 वर्ष की उम्र में, 5 सितंबर 1991 को, दुर्गा खोटे ने इस दुनिया को अलविदा कहा। उनके जाने से भारतीय फिल्म उद्योग ने एक ऐसा सितारा खो दिया, जिसने सिर्फ परदे पर किरदार नहीं निभाए, बल्कि समाज में स्त्री की भूमिका को फिर से परिभाषित किया। वे गईं नहीं हैं—हर उस महिला कलाकार में जीवित हैं जो आत्मनिर्भरता के साथ अपने हुनर को समाज के सामने रखती है।
आज की पीढ़ी के लिए संदेश
आज जब डिजिटल युग में फिल्में मोबाइल और लैपटॉप तक सिमट गई हैं, दुर्गा खोटे का जीवन हमें सिखाता है कि सिनेमा केवल माध्यम नहीं, एक आंदोलन भी हो सकता है। उनकी यात्रा हमें बताती है कि अगर नीयत सच्ची हो, तो परिस्थितियाँ भी राह देने लगती हैं। वे नारी शक्ति, गरिमा और रचनात्मकता की प्रतीक थीं, हैं और रहेंगी।