मलिक असगर हाशमी / नई दिल्ली
14 फरवरी 2019 का वो मनहूस दिन, जब पुलवामा में हुए आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 से अधिक जवानों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. उस समय, इस क्षेत्र के पांच गांव ललहार, काकापुरा, करीमाबाद, गुलजारपुरा-अवंतीपुरा और दरबगाम ‘ब्लैक विलेज’ के नाम से जाने जाते थे. ये वो इलाके थे जहाँ आतंकवाद का साया इतना गहरा था कि आम आदमी तो क्या, पुलिस और प्रशासन का कोई भी व्यक्ति वहाँ कदम रखने की हिम्मत नहीं कर पाता था. हर तरफ खौफ और डर का माहौल था. इन गांवों के नाम खूंखार आतंकवादियों के गढ़ के तौर पर कुख्यात थे.
लेकिन, आज करीब पाँच साल की अथक मेहनत और समर्पण के बाद, इन गांवों की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है. जिस जमीन पर कभी आतंक का बीज बोया जाता था, वहाँ अब विकास और उम्मीद की फसल लहलहा रही है.
पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद का दृश्य
जिस खौफ ने लोगों को घरों में कैद कर दिया था, उसी जमीन पर अब खेल और सामाजिक गतिविधियाँ हो रही हैं. पत्थरबाजी करने वाले हाथों में अब बल्ले और गेंद हैं. और न ही अब इन गांवों की गलियों में सैनिकों के बूटों धमक सुनाई देती है. ये बदलाव एक दिन में नहीं आया, बल्कि यह कहानी है एक ऐसे शख्स के जज्बे और हिम्मत की, जिसने इस असंभव को संभव कर दिखाया.
मुदस्सर अहमद डारः बदलाव के सूत्रधार
काली सूची में डाले गए पुलवामा के इन पांच ‘ब्लैक विलेज’ की तस्वीर बदलने का श्रेय एमबीए पास मुदस्सर अहमद डार (30) को जाता है. इलाके के लोग बताते हैं कि तकरीबन दो हजार आबादी वाले ललहार-काकापुरा, ढाई से तीन हजार आबादी वाले करीमाबाद, पांच हजार आबादी वाले गुलजारपुरा-अवंतीपुरा और दरबगाम जैसे गांव कभी खूंखार आतंकवादियों के अड्डे थे.
गुलजारपुरा का आतंकवादी रियाज अहमद, दरबगाम का समीर टाइगर और ललहार का अय्यूब ललहारी का खौफ इतना था कि लोग चाहकर भी ‘भारत’ का नाम अपनी जुबान पर लाने की हिम्मत नहीं कर पाते थे.
15 अगस्त और 26 जनवरी को स्कूली बच्चों को परेड में शामिल होने पर जान से मारने की धमकियां मिलती थीं. इन आतंकवादियों का खुला ऐलान था कि “जो ग्रामीण पुलिस-प्रशासन के पास अपना कोई काम लेकर जाएगा, वह हमारा दुश्मन होगा. और दुश्मन की सजा मौत है.”
इसी खौफ के कारण, गांव में कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न हो, लोग मदद के लिए पुलिस या प्रशासन के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे. ये गांव ‘पत्थरबाजों’ के गढ़ के रूप में भी बदनाम थे. इन गांवों में आतंकवादियों की धरपकड़ के लिए हर दम सेना की छापेमारी अभियान चलता रहता था. इस वजह से विकास में भी यह गांव पिछड़े हुए थे.
युवा पुलिस और सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते थे. खूंखार आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद, गुलजारपुरा का हिज्बुल आतंकी रियाज आतंकवादियों का सरगना बन गया था. वह इतना कुख्यात था कि उस पर कई मुकदमे दर्ज होने के बावजूद वह खुलेआम वारदातों को अंजाम देता था.
वह पुलिसकर्मियों पर हमला करने और उनका अपहरण करने के लिए बदनाम था. सुरक्षा बलों का मानना था कि बुरहान वानी के मारे जाने के बाद वही युवाओं को भड़काकर आतंकवादी संगठनों में भर्ती करता था.
हालांकि, दो साल पहले वह खुद एक मुठभेड़ में मारा गया. आज एक या दो छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दें तो ‘ब्लैक विलेज’ चर्चित इन गांवों में अब कोई आतंकवादी नहीं है. न ही ये अब भर्ती के अड्डे रहे हैं.
एक वादा जो बदल गया मिशन में
मुदस्सर अहमद डार खुद आतंवादियों से पीड़ित रहे हैं और अभी एक गैर-सरकारी संस्था से जुड़े हैं. वह लगातार घाटी में बदलाव लाने के लिए काम कर रहे हैं. ‘आवाज द वॉयस’ से बातचीत में बताते हैं, “पुलवामा में आतंकवादी घटना होने के बाद मैं इतना विचलित हो गया कि कश्मीर छोड़कर दिल्ली चला आया.”
वह बताते हैं कि दिल्ली में एक होटल में उन्हें सिर्फ पुलवामा का होने के कारण रूम नहीं दिया गया. उक्त घटना ने इनके दिल पर ऐसा प्रभाव डाला कि वक्त उन्होंने ठान लिया कि वह पुलवामा के माथे पर लगे इस कलंक को मिटाकर रहेंगे.
कुछ समय दिल्ली में रहने के बाद जब वह कश्मीर लौटे, तो उन्होंने अपने जैसे विचारों वाले युवाओं की एक टोली बनाई. उसके बाद, उन्होंने इन गांवों में सामाजिक और खेल गतिविधियों की शुरुआत की. उन्होंने आम कश्मीरियों में देशभक्ति की भावना जगाने का काम शुरू किया
तिरंगा यात्राएँ निकाली गईं, ड्रग्स और आतंकवादी घटनाओं के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाए गए. युवाओं को आतंकवाद से दूर करने के लिए खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया. उनके इस जज्बे को देखकर प्रशासन और पुलिस ने भी उन पर भरोसा करना शुरू कर दिया. उनके आयोजनों में मदद की. पहले ग्रामीण इन्हें शक की नजरों से देखते थे, अब इनके प्रति उनका नजरिया बदल गया है.
शुरुआती चुनौतियां और विरोध का सामना
मुदस्सर डार प्रारंभिक दौर को याद करते हुए बताते हैं कि जब उन्होंने इन गतिविधियों की शुरुआत की, तो लोग उन्हें ‘भारत का एजेंट’ और ‘मुखबिर’ कहकर पुकारते थे. इन शब्दों का मतलब था कि वे भारत-विरोधियों के दुश्मन हैं और उनकी सजा मौत है.
मुदस्सर बताते हैं कि 2020 में जब उन्होंने ललहारपुरा में एक क्रिकेट मैच का आयोजन किया, तो उन्हें पता चला कि पास के गांव के एक आतंकवादी ने उनकी हत्या की योजना बना ली थी. इस दौरान उन्हें धमकियां भी खूब मिलीं.
मगर उनके प्रयासों से हालात ऐसे बदले हैं कि अब मुदस्सर अहमद डार पांचों ‘ब्लैक विलेज’ के ग्रामीणों के मसीहा बन गए हैं. बुजुर्ग हो या बच्चा, अब हर कोई उन्हें ‘मुदस्सर भैया’ कहकर बुलाता है.
कोई भी समस्या हो, सबसे पहले वे मुदस्सर से संपर्क करते हैं. मुदस्सर के प्रयासों से ही अब ग्रामीण अपनी समस्याओं को लेकर सरकारी दफ्तरों और थानों में जाने लगे हैं. पत्थरबाजी की घटनाएं पिछले कई सालों से पूरी तरह बंद हैं.
एक मैदान जो बदल गया प्रतीक में
इन ‘ब्लैक विलेज’ के बदलाव की इससे बड़ी तस्वीर क्या हो सकती है कि ललहारपुरा का वह मैदान, जहाँ आतंकवादियों के मारे जाने के बाद उनके महिमामंडन के लिए जनाजे की नमाज में हजारों लोग इकट्ठा होते थे और पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते थे, आज उसी मैदान में शान से भारत का राष्ट्रध्वज लहराता है.
इस मैदान के पास एक ‘शहीदों का कब्रिस्तान’ है, जिसमें मारे गए आतंकवादी दफनाए जाते थे. 1990 के दशक में मारे गए एक बड़े आतंकवादी की कब्र आज भी वहाँ मौजूद हैं, पर अब उस पर अगरबत्ती जलाने वाला कोई नहीं. यह दृश्य बताता है कि डर की जगह अब सम्मान और देशभक्ति ने ले ली है.
मुदस्सर आवाज द वॉयस से बातचीत में कहते हैं, ‘‘इन गांवों के लोगों के पूरी तरह प्रशासन के संपर्क में आने के बाद अब इन गांवों में विकास के कार्य भी तेजी से हो रहे हैं.’’ यहाँ एक मेडिसिटी बन रही है.
इसके अलावा, ग्रामीणों की मांग पर स्पोर्ट काउंसिल की मदद से सरकार ने ललहारपुरा में एक क्रिकेट ग्राउंड का विकास कराया है. जब इस मैदान पर क्रिकेट मैच आयोजित किए गए थे, तो जिन हाथों में कभी पत्थर थे, उन्हीं हाथों ने पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों पर फूल बरसाए. क्रिकेट मैच देखने लोगों का हुजूम जुटा था. ग्रामीण खुद को आजादी पाने जैसा महसूस कर रहे थे. हर चेहरे पर खुशी झलक रही थी.
मुदस्सर बताते हैं कि स्थानीय जिलाधिकारी ने पांचों ‘ब्लैक विलेज’ के ग्रामीणों को हर संभव मदद पहुंचाने का वादा किया है.पुलवामा के इन गांवों का बदलाव सिर्फ एक क्षेत्र का बदलाव नहीं, बल्कि यह पूरे कश्मीर में बदलाव की एक उम्मीद है.
यह कहानी बताती है कि जब लोग नफरत को छोड़कर विकास और भाईचारे को अपनाते हैं, तो कैसा अभूतपूर्व परिवर्तन आता है. मुदस्सर अहमद डार और उनके साथियों ने यह साबित कर दिया कि आतंकवाद को बंदूकों से नहीं, बल्कि इंसानियत, साहस और विश्वास के साथ हराया जा सकता है.
यह एक ऐसा उदाहरण है जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा कि अगर इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काली स्याही वाली तस्वीर को उज्ज्वल भविष्य के रंग से बदला जा सकता है.