बसंत पंचमी मनाने के पीछे क्या कारण है , कैसे मनाते हैं त्योहार ?

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 12-02-2024
Basant Patangbazi in Lahore
Basant Patangbazi in Lahore

 

राकेश चौरासिया

बसंत पंचमी को उर्दू में जश्ने-बहारां कहते हैं. ऋतु परिवर्तन का यह पर्व हिंदुस्तान में जितनी धूमधाम से मनाया जाता है, उतनी ही शिद्दत से पाकिस्तान के मुस्लिम भाईयों में भी लोकप्रिय है. इस त्योहार को मनाने के कई, और अपने-अपने कारण हो सकते हैं. मगर सबसे खुशगवार बात यह है कि इस उत्सव की मस्ती में मजहब की दीवारें गिर जाती हैं और हिंदू और मुस्लिम एक अंग-रंग होकर इसके खुमार में डूब जाते हैं.

रंगों का त्योहार होली पूरी दुनिया में मशहूर है, जो अगले महीने फाल्गुन मास में आने को उतावला है. आप बसंत पंचमी को, होली नाम के मदनोत्सव का स्टार्टर भी कह सकते हैं. हिंदू धर्मावलंबी बसंत पंचमी को माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाते हैं, जो वर्ष 2024 में 14 फरवरी को मनाया जाएगा. पौराणिक मान्यता है कि इस दिन ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माता सरस्वती का अवतरण हुआ था. सो, इस दिन मां सरस्वती का चंदन, वंदन, पूजन और अर्चन किया जाता है.

अराकान से खुरासान तक पूरे भारतीय उप महाद्वीप के हिंदुओं और मुसलमानों का शिजरा, कुर्सीनामा, वंशबेल एक ही है और इन दोनों मजहबों के क्षेत्रीय मतावलंबियों का डीएनए भी एक ही है. इसलिए मुस्लिम भाई भी बड़े उत्साह से जश्ने-बहारां सदियों से मनाते आ रहे हैं, क्योंकि हमारा डीएनए के साथ-साथ, परंपराएं भी सांझी हैं.

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सूफीवाद और बसंत पंचमी

इस्लाम की आध्यात्मिक एवं रहस्यमयी शाखा ‘सूफीवाद’ के अनुयायी तो दरगाहों और खानकाहों में जब बसंत पंचमी मनाते हैं, तो वहां होने वाली रोशनाई, खुशियों की बारिश और जज्बों का गंगा-जमुनी बहाव देखने और देखते रह जाने का मन करता है. दिल्ली की हजरत निजामुद्दीन दरगाह, अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह और पाकिस्तानी पंजाब के पाकपट्टन में बाबा फरीद की दरगाह में होने वाली जश्ने-बहारां की रंगानियां सबसे खास मानी जाती हैं. इन दरगाहों और उनसे जुड़ी शाखाओं और खानकाहों में बहुत पहले से जश्ने-बहारां मनाने की तैयारियां शुरू हो जाताी हैं. वहां दिन में सरसों के फूलों से बनी खास चादरें चढ़ाई जाती हैं, तो रात को रोशन चिराग होते हैं.

लाहौर में बसंत पंचमी

पाकिस्तान में कई जगह, लेकिन लाहौर में खास तौर पर यह त्योहार सदियों से मनता आ रहा है. लाहौर में, बसंत पंचमी को ‘बसंत’ के नाम से जाना जाता है. लाहौर में बसंत पंचमी का त्योहार ‘मेला चिमन’ के नाम से भी मकबूल है. यह त्योहार इस कदीमी शहर के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि यह वीर हकीकत राय की याद में मनाया जाता है, जिन्होंने 1719में मुगल शासक के खिलाफ लड़ाई में अपना बलिदान दे दिया था.

लाहौर में बसंत पंचमी का इतिहास

बसंत पंचमी, लाहौर में एक अनोखी छटा बिखेरती है, जिसमें मुस्लिम समुदाय बसंत पंचमी में सक्रिय रूप से भाग लेता है. लाहौर के मुस्लिम इस दिन के लिए पीले रंग के वस्त्रों का चुनाव करते हैं. अधिकांश मुस्लिम समुदाय भी बसंत पंचमी में पीले कपड़ों में नजर आते हैं. पीला रंग वसंत ऋतु, खुशी और उल्लास का प्रतीक है. यह रंग सूर्य की ऊर्जा और जीवनदायिनी शक्ति का भी प्रतीक है. वे मिठाइयां बांटते हैं और पतंगबाजी का आनंद लेते हैं. बसंत पंचमी पर लाहौर पर पतंगों के पेचे लड़ते हैं और शहर का पूरा आसमान पंतगों से भरा हुआ होता है. क्या तो बच्चे, बूढ़े और जवान, सभी पतंग के हुड़दंग में सरोबोर नजर आते हैं.

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आधुनिक युग में बसंत पंचमी

हालांकि सुरक्षा कारणों से पाकिस्तान की सरकार ने 2023 में लाहौर की पतंगबाजी पर अंकुश लगा दिया था. अब 2024 में सरकार का पतंगबाजी को लेकर क्या नजरिया रहा है, यह देखने वाली बात होगी.

मुगल काल में बसंत पंचमी

मुगल काल में, लाहौर कला और संस्कृति का केंद्र था. इस दौरान, बसंत पंचमी का त्योहार और भी भव्यता से मनाया जाने लगा. मुगल शासक न केवल इस त्योहार में भाग लेते थे, बल्कि इसे प्रोत्साहित भी करते थे.

वीर हकीकत राय की कहानी

पाकिस्तान में, हिंदू और मुस्लिम बराबरी से वीर हकीकत राय की समाधि पर लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. बसंत पंचमी का त्योहार वीर हकीकत राय की याद में भी मनाया जाता है, जिन्होंने 1719 में मुगल शासक के खिलाफ लड़ाई में अपना बलिदान दे दिया था. वीर हकीकत राय लाहौर के एक प्रसिद्ध सूफी संत थे, जिन्हें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों द्वारा समान रूप से सम्मान दिया जाता है.

वीर हकीकत राय का मुस्लिमों से रिश्ता क्या?

वीर हकीकत राय का जन्म 1720 में लाहौर के एक हिंदू परिवार में हुआ था. उनके पिता चंदू लाल एक व्यापारी थे. वीर हकीकत राय बचपन से ही बुद्धिमान और साहसी थे. लाहौर के मुगल शासक ने एक फरमान जारी किया, जिसमें सभी हिंदुओं को मुसलमान बनने का आदेश दिया गया था. वीर हकीकत राय, जो उस समय केवल 11 वर्ष के थे, इस फरमान का विरोध करने के लिए आगे आए.

वीर हकीकत राय ने मुगल शासक को चुनौती दी और कहा कि वे कभी भी अपना धर्म नहीं बदलेंगे. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया गया. वीर हकीकत राय ने मना कर दिया और कहा कि वे मृत्यु को स्वीकार करेंगे.

वीर हकीकत राय को लाहौर के शाही किले के सामने 1734 में सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गई थी. उनकी वीरता और बलिदान ने लाहौर के लोगों को प्रेरित किया और मुगल शासक के खिलाफ विद्रोह की भावना पैदा हुई.

इसलिए, वीर हकीकत राय आज भी लाहौर में हिंदुओं ही नहीं, मुस्लिमों के लिए भी प्रेरणा स्रोत हैं. उनका नाम हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों द्वारा सम्मान के साथ लिया जाता है, क्योंकि लाहौर में आज जो मुस्लिम हैं, वे भी कभी हिंदू थे और इन मुस्लिमों के पुरखों ने भी मुगलिया फरमान की मुखालिफत की थी. इसलिए बसंत पंचमी का त्योहार वीर हकीकत राय की वीरता और बलिदान का प्रतीक बन गया है.

सिख धर्म और बसंत पंचमी

लाहौर में बसंत पंचमी मनाने का इतिहास सिख धर्म से भी जुड़ा हुआ है. सिखों के प्रथम गुरू बाबा नानक का जन्म 1469 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाहौर से 64किलोमीटर दूर गांव तलवंडी में हुआ था. उनके जन्म के बाद से, लाहौर में बसंत पंचमी का त्योहार सिखों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो गया.

हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक

बसंत पंचमी का उत्सव पाकिस्तान में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक है. यह त्योहार दोनों समुदायों को एक साथ लाता है और सांस्कृतिक मिश्रण का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है.