हजरत इमाम हुसैन की अविस्मरणीय कुर्बानी

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 07-08-2022
इमाम हुसैन (रजि.) की अविस्मरणीय कुर्बानी
इमाम हुसैन (रजि.) की अविस्मरणीय कुर्बानी

 

wasayप्रो. अख्तरुल वासे

सैयदना इमाम हुसैन (रह.) मानव इतिहास के महान व्यक्ति हैं जिनकी प्रतिष्ठा स्वयं ‎प्रतिष्ठा के लिए एक निशानी है. वह हर तरह से महान हैं. कोई भी इंसानी पैमाना उनकी ‎महानता के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता. अगर हम उनके परिवार और वंश को ‎देखें तो उनसे बेहतर नाम और वंश किसी का नहीं हो सकता.

वह हजरत मुहम्मद सल्ल. ‎के नवासे (नाती), हजरत सैयदा फातिमा व हजरत अली (रजि.) के बेटे, पांचवे ‎‎खलीफा-ए-राशिद हजरत इमाम हसन (रजि.) के छोटे भाई थे. वह एक ऐसे व्यक्ति थे कि ‎सभी को उन पर फख्र था. वे इतने निडर थे कि उनकी बहादुरी और युवावस्था की ‎कहानियां हर समय गाई जाती हैं और इसी तरह गाई जाती रहेंगी.
 
हजरत इमाम हुसैन की जिन्दगी निस्संदेह प्रकाश की किरण थी. इस प्रकार उनका ‎संपूर्ण जीवन अद्वितीय है. उनका बचपन अल्लाह के रसूलुल्लाह (सल्ल.) की गोद में बीता. ‎उनकी युवावस्था पवित्र पैगंबर (सल्ल.) की देखरेख में गुजरी थी और वह हजरत अली ‎‎(रजि.) के पुत्र थे, इसलिए वे पूरे इस्लामी जगत के शहजादे भी थे.
 
एक तरफ वो धर्म के ‎इमाम थे तो दूसरी तरफ उनकी महानता दुनिया में भी बुलंदियों को छू रही थी. इस प्रकार ‎वे धर्म और संसार दोनों की दृष्टि से अनुकरणीय और आदर्श थे.हजरत इमाम हुसैन (रजि.) सिर्फ पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) और ‎इस्लाम के चैथे खलीफा के बेटे होने की वजह से ही महान नहीं थे बल्कि उनकी महानता ‎का एक पहलू यह भी था कि वह अपनी धार्मिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह वाकिफ थे.

‎वास्तव में यही एहसास था जिसके कारण कर्बला की हृदय विदारक घटना हुई. जब इमाम ‎हुसैन ने देखा कि सरकारी दमन और हिंसा आम होती जा रही है, लोगों के अधिकार छीने ‎जा रहे हैं. इस्लाम द्वारा सिखाई गई मानवता को भुलाया जा रहा है.
 
लोग, विशेष रूप से ‎‎शासक वर्ग हिंसा और क्रूरता के उसी रास्ते पर हैं, जिसे मिटाने के लिए इस्लाम आया था. ‎जन अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की बर्बादी को देखकर ही इमाम हुसैन ने वह यात्रा ‎की जो कर्बला में समाप्त हुई, लेकिन मानव इतिहास में महानता और बलिदान की मिसाल ‎बनकर एक चमकता अध्याय बन गये.
 
उस समय की सरकार ने इमाम हुसैन की यात्रा को अपने लिए खतरा बताया. उसने ‎अपनी सैन्य शक्ति के बल पर उसे कुचलने का प्रयास किया और अपने दंभ के साथ उसने ‎उसे कुचल भी दिया, परन्तुः‎
 
कत्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यजीद है

इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद

इतिहास ने अपनी आंखों से देखा कि मिटाने वाले खुद ही हमेशा के लिए मिट गए ‎और इमाम हुसैन का नाम आज इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में अंकित है. इमाम ‎हुसैन की कूफा की यात्रा कोई युद्ध-यात्रा नहीं थी.
 
इमाम हुसैन कोई युद्ध करने नहीं ‎निकले थे क्योंकि कोई इंसान जब युद्ध करने जाता है तो अपने परिवार को सुरक्षित स्थान ‎पर छोड़ कर ही युद्ध के मैदान में जाता है, अपने छोटे बच्चों और बीमारों को साथ लेकर ‎‎युद्ध क्षेत्र में नहीं जाता.
 
इमाम हुसैन की यह यात्रा अगर युद्ध के लिए होती तो उनके साथ ‎उनकी पत्नी न होती, बहनें न होतीं, बच्चे न होते और बीमार जै़नुल-आबिदीन भी साथ न ‎होते.सच तो यह है कि इमाम हुसैन की यह यात्रा शांति का संदेश थी.
 
यह यात्रा उन ‎सिद्धांतों के पुनर्निर्माण का आह्वान थी जिन पर इस्लाम की नींव बनी है उसे दोबारा जिन्दा ‎किया जाए. अगर उन्होंने युद्ध या मुकाबले के लिए यात्रा की होती तो उनके साथ परिवार ‎और मित्र नहीं होते, बल्कि उनके साथ फौज होती और यह तो निश्चित है कि इमाम हुसैन ‎‎(रजि.) की एक आवाज पर एक बड़ी फौज का इकट्ठा हो जाना कोई मुश्किल काम नहीं ‎था.

लेकिन हजरत इमाम का मकसद खून-खराबा और जंग था ही नहीं. वह तो शांति का ‎पैगाम लेकर निकले थे और यह यात्रा कूफा की तरफ इसलिए थी क्योंकि कूफा उनके ‎वालिद (पिता) हजरत अली (रजि.) की राजधानी रह चुकी थी.
 
वहां लोग हजरत हुसैन ‎‎(रजि.) को भी बहुत अच्छी तरह से जानते थे और उम्मीद थी कि वह हजरत इमाम हुसैन ‎के संदेश को भी ज्यादा बेहतर ढ़ंग से समझ सकते थे.कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन (रजि.) की घेराबंदी हो गई तब भी उन्होंने युद्ध ‎करना पसंद नहीं किया बल्कि उन्होंने शांति के लिए कई फॉर्मूले प्रस्तुत किए. जैसे हजरत ‎इमाम हुसैन (रजि.) का एक फरमान था कि मुझे वापस मक्का जाने दो, लेकिन इस पर वह ‎लोग तैयार नहीं हुए.
 
इसके बाद उन्होंने यह इच्छा जाहिर की कि उनके लिए दमिश्क का ‎रास्ता खोल दें ताकि वह खुद यजीद से बात करके यह मसला सुलझा सकें लेकिन दुश्मन ‎इस पर भी तैयार नहीं हुए. इसके बाद हजरत इमाम हुसैन (रजि.) ने शांति का आखिरी ‎फॉर्मूला पेश किया कि मुझे सरहद की तरफ निकल जाने दें, कई जगह यह भी आता है ‎कि सरहद का मतलब हिंदुस्तान की सरहद थी और हजरत इमाम (रजि.) हिंदुस्तान में ‎आकर रहना चाहते थे.
 
यह दृष्टिकोण इसलिए भी उचित लगती है क्योंकि उस समय ‎केवल पूर्वी सीमा यानी भारत बनू-उम्मिया (उम्मिया राजवंश) के प्रभाव में नहीं था बाकी हर ‎जगह उन्हीं की हुकूमत थी. ‎
 
हजरत इमाम हुसैन के भारत आने की इच्छा को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन ‎इसमें कोई दो राय नहीं है कि हजरत इमाम ने इस पूरे मामले को अंत तक शांतिपूर्ण ढंग ‎से सुलझाने की पूरी कोशिश की.
 
उनका हर प्रयास युद्ध से बचने का था. वे शांति के लिए ‎निकले थे, इसलिए वे चाहते थे कि शांति बनी रहे, लेकिन जब सभी रास्ते बंद कर दिए गए ‎और दुश्मनों ने हजरत इमाम को मजबूर कर दिया कि कोई शांतिपूर्ण समाधान नहीं हो ‎सकता है और उन्होंने हजरत इमाम का अपमान किया, उन्हें अपने साथ ले जाने की ‎कोशिश की, तब हजरत इमाम ने अपने हाथ के बजाय अपना सिर देना पसंद किया। ‎हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने क्या खूब कहा हैः‎
 
सर दाद नदाद दस्त दर दस्त-ए-यजीद‎

हक़्का कि बिनाए ला इला-हा अस्त हुसैन

‎(सर दे दिया लेकिन यजीद के हाथ में अपना हाथ नहीं दिया. सच तो यह है कि (जमीनी ‎‎खुदा का इंकार करके) हजरत इमाम हुसैन (रजि.) ने ला-इलाह की सोच अर्थात् अपने ‎ईमान को स्पष्ट कर दिया.)‎
 
इमाम हुसैन की शहादत मानवता के लिए एक बड़ी त्रासदी है. जब यह हादसा हुआ ‎तो इस भीषण हादसे पर पूरी इस्लामी दुनिया चीख उठी, पूरे इस्लामिक क्षेत्र में ‎बनू-उम्मिया (उम्मिया राजवंश) के खिलाफ आवाजें उठने लगीं.
 
लोगों ने हजरत इमाम ‎‎(रजि.) के नाम पर अपनी जान कुर्बान कर दी और धीरे-धीरे हजरत हुसैन (रजि.) से ‎मुहब्बत करने वालों की संख्या इस हद तक बढ़ गई कि उनके सामने बन-उम्मिया राजवंश ‎‎घास फूस की तरह बह गया.‎
 
आज इस महान बलिदान को लगभग चैदह शताब्दियां बीत चुकी हैं, लेकिन यह ‎‎ऐसा बलिदान था कि समय की धूल ने कर्बला के मैदानों को कभी धुंधला नहीं किया बल्कि ‎आज भी इस भूमि पर 72 पवित्र लोगों की कुर्बानी जिन्दा हैं और जब तक दुनिया में जुल्म ‎व सितम है उस वक्त तक जुल्म के खिलाफ शांति की ताकत के तौर पर इमाम हुसैन ‎‎(रजि.) और उनके 72साथी याद किए जाते रहेंगे.
 
‎(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) ‎हैं.)‎