जमीयत उलेमा-ए-हिंद और धर्मनिरपेक्ष संविधान की स्थापना की कहानी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 02-08-2024
The story of Jamiat Ulema-e-Hind and the establishment of a secular constitution
The story of Jamiat Ulema-e-Hind and the establishment of a secular constitution

 

arshadमौलाना अरशद मदनी

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन विद्वानों और मुसलमानों द्वारा शुरू किया गया था. यहां के लोगों को गुलामी का एहसास कराया गया था. जब कोई इसके बारे में सोच भी नहीं रहा था. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल  फूंका, जिसके उल्लेख के बिना देश का कोई भी इतिहास पूरा नहीं हो सकता.

भारत के विद्वानों में से, चाहे वह राष्ट्रीय नेतृत्व हो या देश की आजादी के लिए युद्ध का मैदान हो, किसी आंदोलन का नेतृत्व करना हो या संकट और दुख के समय में लोगों की मदद करना हो, विद्वानों ने हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं और डटकर खड़े हुए हैं. तत्कालीन सरकार के सामने सच्चाई बताई.

एक महान ऐतिहासिक सत्य यह है कि भारत का स्वतंत्रता आंदोलन विद्वानों और मुसलमानों द्वारा शुरू किया गया था और यहां के लोगों को गुलामी का एहसास कराया गया था.   भारत में विद्रोह का विचार विद्वानों ने उठाया और स्वाधीनता संग्राम का बिगुल भी फूंक दिया.

भारत के कई लोगों का मानना है कि देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में लड़ा गया था, लेकिन यह इसके इतिहास की अनदेखी और अपने बुजुर्गों के बलिदान पर आधारित है.आज़ादी का इतिहास 1857 से नहीं बल्कि 1799 में शुरू हुआ जब सेरिंगपट्टम में ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ते हुए सुल्तान टीपू शहीद हुए.

"आज से भारत हमारा है" उसके बाद ही उनमें अंग्रेजी में यह कहने का साहस आया कि "कोई ताकत नहीं है." अब हम  लड़ने जा रहे हैं, कोई भी हमारे पंजे में पंजा नहीं डालेगा" और फिर उन्होंने व्यावहारिक रूप से नवाबों और राजाओं को हराया और उन्हें समर्पण करने के लिए मजबूर किया.

देश के स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका

टीपू सुल्तान की शहादत और अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के बाद विद्वानों को गुलामी की आहट महसूस हुई. तभी से आज़ादी का जिहाद शुरू हुआ, जब अंग्रेज़ों ने 1803 में दिल्ली में घोषणा की कि "ख़ल्क़ ख़ुदा का, इस देश का राजा" लेकिन आज से आदेश हमारा है.

इस दिन इस देश के सबसे बड़े धार्मिक विद्वान और ईश्वरवादी बुजुर्ग हजरत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी के सबसे बड़े बेटे हजरत शाह अब्दुल अजीज  मुहद्दिस देहलवी ने दिल्ली में यह फतवा दिया था. आज हमारा देश गुलाम हो गया है. इस देश की आजादी के लिए लड़ना हर मुसलमान का कर्तव्य है. 

इस फतवे के परिणामस्वरूप उन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा. उन्हें जहर दिया गया. उनकी संपत्ति जब्त कर ली गयी, जहर के कारण उनकी आंखों की रोशनी चली गयी. इन सबसे कठिन परिस्थितियों में भी उन्हें दिल्ली शहर से निष्कासित कर दिया गया.

मृत्यु के बाद उन्होंने दो आध्यात्मिक शिष्य पैदा किये, एक हज़रत सैयद अहमद शहीद राय बरेलवी और दूसरे शाह इस्माइल शहीद. उन्होंने कहा कि वे देश की आज़ादी के लिए हमारे साथ अपने प्राणों की आहुति देंगे.

उसके बाद आजादी की पहली लड़ाई में बालाकोट के मैदान में इन दोनों आकाओं के साथ हजारों मुसलमान शहीद हो गए. यह देश की आजादी के लिए पहला जिहाद था. दूसरा जिहाद आजादी (1857) का मामला था.

समय असफल होने पर वे वापस आये और टुकड़ियां एकत्र कर लोगों को तैयार किया और छब्बीस वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद 1857 में देश की आजादी के लिए जिहाद फिर से शुरू हुआ, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों ने भाग लिया. मुसलमान अधिक थे. हिंदू कम थे.

देश की आजादी के लिए किया गया यह दूसरा जिहाद भी असफल हो गया. इस जिहाद के परिणामस्वरूप विद्वानों को भी गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ इस्लामिक विद्वानों ने खुद को कैद कर लिया.

जब ये  तीन या चार साल बाद जेल से बाहर आए और माफी की घोषणा की. अजीब बात है कि जिन अनाथों के पिता ने अंग्रेजों की दुश्मनी के कारण शहादत का जाम पिया, उनके अनाथ बच्चे सड़कों पर हैं. उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं. इन परिस्थितियों का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने भी अपना कदम बढ़ा दिया. बौद्धिक मोर्चे पर लड़ें.

 इसलिए ईसाई स्कूल, ईसाई पोप और चर्च...

लोग बाहर आते और इन अनाथों का हाथ पकड़कर कहते कि हमारे साथ आओ, हम तुम्हें मुफ्त भोजन, आवास और शिक्षा देंगे. उद्देश्य उन्हें मानसिक रूप से अंग्रेज बनाना था.ये वे बच्चे थे जिनके पिता  अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शहीद हो गए थे, लेकिन अब उनके बच्चे अंग्रेजों के हाथ में थे.

वे उन्हें अपना बौद्धिक गुलाम बनाना चाहते थे . उन्होंने तय किया कि मुजाहिदीन दो जिहादों में शहीद हो गए. अब हमें देश की आजादी के लिए एक फैक्ट्री की जरूरत है जहां मुजाहिदीन हमारे देश भारत को आजाद कराने और गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए तैयार हैं, इसलिए पूरे सात साल बाद उन्होंने 1866 में दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की.

नारा दिया कि हम बच्चों को मुफ्त भोजन और आवास के साथ धार्मिक शिक्षा से भी सुसज्जित करेंगे . इन बच्चों को उनके पूर्वजों की तरह आजादी के जिहाद के लिए मुजाहिद बनाएंगे. वे गरीब  थे.

अमीर लोगों ने मुफ्त भोजन के साथ मुफ्त शिक्षा की योजना कैसे तैयार की ? यह आश्चर्य की बात थी कि इन लोगों ने एक मदरसा बनाया .राष्ट्र को संदेश दिया कि "यदि आप गुलामी के अभिशाप को तोड़ना चाहते हैं और स्वतंत्र होना चाहते हैं, तो इस मदरसे को जीवित रखें."

तब लोगों ने उदारतापूर्वक उनकी मदद की. परिणाम यह हुआ कि कुछ वर्षों में, बुखारा, समरकंद, ताशकंद और भारत के शहरों से लड़के, जिन्हें मुफ्त शिक्षा दी जाती थी, इकट्ठा होने लगे. देश को बताने लगे कि यदि यह मदरसा जीवित है, तो आप जीवित हैं. आपके बच्चे जीवित हैं. 

स्वतंत्रता संग्राम,  मातृभूमि की रक्षा, इस्लाम का दुश्मन

दारुल उलूम देवबंद की स्थापना मुजाहिदीन आजादी को सत्ता से लोहा लेने के आंदोलन के रूप में खड़ा करने के लिए की गई थी. फिर दारुल उलूम देवबंद ने ऐसे वंशजों को जन्म दिया जिन्होंने इस देश में  आजादी की अलख जगाई.

पूछा जाए कि इनमें से उन सभी से पहले स्तूप और दारुल उलूम देवबंद की सबसे कीमती राजधानी कौन है? तो जवाब होगा - "हजरत शेख अल-हिंद". कौन हैं मौलाना महमूद हसन ?  देवबंद के रहने वाले, पिस्ता लम्बे, पतले आदमी, लेकिन इनके दिल में देश की आज़ादी के लिए कैसी आग थी, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती. 

ब्रिटिश गवर्नर मुस्टन कहा करते थे: "अगर शेख अल हिंद को जलाकर राख कर दिया जाए, तो उनकी राख से भी ब्रिटिश दुश्मनी की गंध आएगी."शेख अल-हिंद दारुल उलूम के सबसे महान शिक्षक बने.

साथ ही उन्होंने भारत की आजादी के लिए अपने छात्रों की एक टीम और मण्डली तैयार की. एक औपचारिक स्वतंत्रता आंदोलन शुरू किया. इतिहास में इस आंदोलन को "सिल्क हैंड आंदोलन" के नाम से जाना जाता है ." 

 ज्ञात है कि शेख अल-हिंद ने इस आंदोलन में रंग भरने के लिए हजरत मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी को काबुल भेजा था. दूसरी ओर, शेख अल-हिंद ने इस्लामी खलीफा से सहयोग प्राप्त करने के लिए पवित्र हिजाज़ का दौरा किया.  

यदि ऐसा होता तो भारत कब तक आजाद हो जाता, लेकिन कुदरत को और बलिदान चाहिए था. मक्का के शरीफ़ की गद्दारी के कारण रेशमी पत्र (रेशम रुमाल आन्दोलन के पत्र) पकड़ लिये गये और उन्हें पवित्र हिजाज़ से गिरफ्तार कर लिया गया.

आपको माल्टा भेज दिया गया. जब शेख उल हिंद माल्टा से वापस आए, तो सामान्य परिदृश्य बदल गया था. उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए दूसरा रास्ता अपनाया .जमीयत उलेमा हिंद को भारतीय राष्ट्रीय में शामिल होने की सलाह दी. 

अहिंसा का समर्थन और आह्वान

शेख अल-हिंद की मृत्यु के बाद उनके शिष्य खास रफीक हजरत मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी और शेख अल-हिंद के शिष्य हजरत मुफ्ती किफायतुल्ला  आदि ने उनके नक्शेकदम पर चलते हुए स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाया.

सवाल यह है कि जमीयत उलेमा हिंद की जरूरत क्यों पड़ी और शेख उल हिंद ने उसे कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने की सलाह क्यों दी? इसका कारण यह है कि आजादी की लड़ाई में ऐसा कोई संयुक्त आंदोलन नहीं था, जिसके बैनर तले यह लड़ाई धर्म और मजहब की कैद से मुक्त होकर भारतीय होने के आधार पर लड़ी जाती.

23 नवंबर, 1919 को दिल्ली में कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई, जिसमें देश के कोने-कोने से विद्वान आए. एक साथ बैठे .इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि  एक मंच होना चाहिए जिस पर हज़रत शेख उल हिंद भारत आ सकें और देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए आंदोलन का नेतृत्व कर सकें.

इसलिए उस समय  निर्णय लिया गया और भारत के प्रमुख विद्वान अमृतसर में एकत्र हुए. जमीयत की स्थापना की. 1919 में उलेमा और शेख उल हिंद हजरत मुफ्ती किफायतुल्लाह  के शिष्य को अस्थायी अध्यक्ष बनाया गया.

हजरत शेख उल हिंद 1920 में माल्टा से भारत आए. उसी वर्ष जमीयत उलेमा हिंद की दूसरी वार्षिक बैठक दिल्ली में हुई जिसमें उन्हें जमीयत उलेमा हिंद का स्थायी अध्यक्ष बनाया गया.

अपने अध्यक्षीय उपदेश में उन्होंने विशेष रूप से विद्वानों को डांटा . कहा कि इस्लाम एक पूर्ण और आदर्श धर्म है. इसने सभी सामूहिक और व्यक्तिगत क्षेत्रों को अपने पैरों तले ले लिया है, जिसका खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ रहा है.

मदरसों में पाठ पढ़ाने के बाद अपने कमरे में बैठने का अधिकार उन्हें लगता है कि यह उन लोगों के लिए पर्याप्त है जो इस्लाम के शुद्ध गुणों पर दाग लगा रहे हैं. इस बैठक के 12 दिन बाद हजरत शेख अल-हिंद का निधन हो गया.

साम्प्रदायिक मानसिकता के विषैले प्रभाव को फैलने से रोकने के लिए एक रणनीति पर आधारित भाई-बहनों के संगठन कांग्रेस के साथ गठबंधन करके देश को सम्प्रदाय और धर्म की कैद से मुक्त कर पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना शुरू किया.

उन्होंने "रेशमी रूमाल" आंदोलन शुरू करके अंग्रेजों को आश्चर्यचकित कर दिया. उन्हें अंत तक पता नहीं चला कि इस आंदोलन को कौन चला रहा. उन्होंने सैकड़ों ऐसे बुद्धिजीवी और उत्साही विद्वान पैदा किए जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था.

ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अल-हिंद के विशेष शिष्य और विशेष सेवक का दर्जा प्राप्त था. उन्होंने शेख अल-हिंद की खातिर जेल जाना और शेख अल-हिंद की सेवा करने के लिए जेल की कठिनाइयों को काटना आवश्यक समझा.

देश की आज़ादी के लिए जेल की कठिनाइयाँ

हज़रत शेखुल-इस्लाम, हज़रत मौलाना सैयद हुसैन अहमद मदनी ने आज़ादी को लेकर अपने गुरु के तनाव और चिंता को आत्मसात कर लिया था, इसलिए उनके सीने में हज़रत गंगोही, हज़रत नान्तोवी और हज़रत शेख अल-हिंद की आग छिपी हुई थी.

औपनिवेशिक ताकतों के ख़िलाफ़ दिल तेज़ हो गया और आज़ादी के लिए जिहाद सीने पर चढ़ गया. उस्ताज़ के विचार को आगे बढ़ाना हज़रत मदनी की एक उपलब्धि रही है.  जिसका उदाहरण मिलना मुश्किल है.

इस तथ्य का परिणाम है कि उन्होंने अपने 80 वर्ष के जीवन में कमोबेश 9 वर्ष ब्रिटिश जेल में बिताए  और प्रत्येक आठ दिनों में से एक दिन उन्होंने जेल में बिताया . उसमें वे एकान्त कारावास में रहे. कष्ट और कठिनाइयाँ  झेलनी पड़ी.

धर्मनिरपेक्ष संविधान के निर्माण में जमीयत उलेमा-ए-हिंद की भूमिका

उनके नेतृत्व में, जैसे-जैसे देश की आज़ादी नज़दीक आई, उन्होंने मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख लोगों की तरह ही प्रतिज्ञा ली कि आज़ादी के बाद देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए.

यह भी वादा किया कि मुस्लिम मस्जिदों, मुस्लिम मदरसों, मुस्लिम इमामों, मुस्लिम कब्रिस्तानों, मुस्लिम भाषा, मुस्लिम संस्कृति, मुस्लिम सभ्यता की रक्षा की जाएगी. देश का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान बन जाएगा.

उन लोगों की निश्चितता और बुद्धिमत्ता को देखें कि देश का बहुसंख्यक हिंदू है, और यह आज से नहीं है. मुसलमानों ने इस देश पर आठ सौ वर्षों तक शासन किया है. बहुसंख्यक हिंदू था. यह नहीं बदला है; लेकिन भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए.

अल्लाह ने उन्हें अजीब बुद्धि और ज्ञान से नवाजा था.  संयोग की बात है कि देश स्वतंत्र हुआ . इस देश के गठन के बाद इस्लाम के नाम पर दूसरे देश में विभाजित हो गया . स्वाभाविक रूप से यह मुद्दा उठाया गया कि जब मुसलमानों ने इस्लाम के नाम पर अपना एक हिस्सा ले लिया , तो इस देश को हिंदू राज्य बनना चाहिए.

समान स्वतंत्रता में भाग लेने वाले प्रमुख हिंदुओं ने आवाज उठाई कि अब देश का संविधान इसे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के बजाय एक हिंदू राज्य होना चाहिए. हमने ऐसा नहीं किया, इसलिए इस देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष हो जाएगा.जमीयत उलेमा हिंद की मांग इतनी प्रबल थी कि उसे इस मांग के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा. देश का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान बन गया.

( मौलाना सैयद अरशद मदनी   दारुल उलूम देवबंद के प्रोफेसर और जमीयत उलेमा के अध्यक्ष )



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