गालिब की मजार का हाल, ‘’अर्श से परे होता काश के अपना मकां...”

Story by  मोहम्मद अकरम | Published by  [email protected] | Date 27-12-2022
गालिब की मजार का हाल, ‘’अर्श से परे होता काश के अपना मकां...”
गालिब की मजार का हाल, ‘’अर्श से परे होता काश के अपना मकां...”

 

मोहम्मद अकरम नई दिल्ली

अपने वक्त के और शायद अब तक के बड़े शायरों में से एक मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब को जो लोकप्रियता मिली वह दूसरे साहित्यकरों के हिस्से में नहीं आई. दिल्ली के भीड़भाड़ वाले इलाके हजरत निजामुद्दीन में फूल बेचने वालों, बिरयानी के ठेले लगाने वालों के बीच उनका मजार मौजूद है. उनकी कब्र पर रस्मी तौर पर कुछ फूल हैं, पर मुरझाए हुए. जिससे प्रतीत होता है कि फूल भी गालिब पर रहम खा रहा होगा. अगर गालिब जिंदा होते तो अपने उपर हो रहे इस सुलूक को देख कर कहते ‘’अर्श से परे होता काश के अपना मकां...”

हालांकि गालिब अकादमी के सेक्रेटरी डॉ अकील अहमद इन बातों को दरकिनार संवाददाता से ही सवाल कर बैठते हैं, ‘’मिर्जा गालिब के अलावा आपने किसकी कब्र देखी है, जो इतनी साफ रहती है. जौक (जौक अहमद जौक) के मजार को आपने देखा है ? ’’
 
ghalib
 
जिंदगी भर किराए के मकान में रह कर अमर हो गए

मिर्जा असदुल्लाह खान गालिब उर्दू भाषा-साहित्य का एक बड़ा नाम है. उनका जन्म मुगल साम्राज्य के दौरान आगरा (अकबरअबाद) में 27 दिसंबर 1797 को हुआ. 13 साल की उम्र में वह दिल्ली आ गए जहां उन्होंने उर्दू और फारसी में कविताएं कहीं और अपने जीवनकाल में ही शोहरत की बुलंदी पर पहुंच गए. 
 
शाही दरबार से लेकर आम लोगों और रईसों को अपना फैन बनाया. अरसे बाद भी मिर्जा गालिब अपने चाहने वालों के दिल व दिमाग में ताजा हैं. वह जिंदगी भर किराए के मकान में रहे. उनका अपना कोई मकान नहीं था. नहीं और कुछ. मगर वह अपने पीछे जो चीज छोड़ कर गए उसने उन्हें अमर कर दिया.
 
ghalib
 
गालिब की हेवली और मजार

गालिब की हवेली के ठीक सामने कई दुकानें लगी हैं. शाम ढलते ही यहां लोगों की भीड़ बढ़ जाती हैं. मगर मजार को नजदीक से देखने पर पता लगता है कि आसपास कभी सफाई नहीं होती. जालियां टूटी हुई हैं.
 
“’नहीं मालूम कि गालिब कौन है”

ठीक गालिब के मजार से कुछ कदम की दूरी पर हजरत निजामुद्दीन की दरगाह है, जहां प्रतिदिन हजारों लोग अकीदत के फूल निछावर करने आते हैं, लेकिन मजार के आस पास के रहने वाले, हवेली की हिफाजत करने वाले गार्ड चंद्र प्रकाश को गालिब के बारे में कुछ भी पता नहीं.
 
यहीं नहीं कई सालों से मजार के करीब दुकान लगाने वाले मोहम्मद कहते हैं कि हमें नहीं मालूम कि गालिब कौन हैं ? जब उनसे पूछा गया कि अभी आप किसकी दरगाह के करीब खड़े हैं तो वह कहता हैं कि गालिब का नाम सिर्फ सुना है. 
 
ghalib
 
बड़ा शायर थे, शराब पीते थे

मुंबई से निजामुद्दीन घूमने आए मोहम्मद साजिद ने जब होटल की खिड़की से बाहर देखा तो वह भी गालिब की मजार को अपने साथियों के साथ देखने पहुंच गए. वह गालिब के बारे में कहते हैं कि गालिब उर्दू और फारसी के बड़े शायर थे.
 
जब हम लोगों ने अपने रूम से बाहर देखे तो पता चला कि यहां पर गालिब का मजार है, इसलिए देखने आ गए. बातचीत के दौरान उनके साथ मौजूद एक बुर्जुग शख्स कहते हैं, गालिब एक बड़ा शायर था. वह शराब बहुत पीते थे. इससे ज्यादा वे लोग गालिब के बारे में कुछ नहीं बता पाए. 
 
dr akeelगालिब ने अलग रंग अपनाया

गालिब अकादमी के सेक्रेटरी डॉ अकील अहमद ने मिर्जा गालिब के बारे में बताया कि गालिब अपनी फारसी जुबानी पर फख्र करते थे. गालिब की शायरी दूसरे शायरों से बिलकुल अलग थी. उन्होंने अपना अलग रंग अपनाया. गालिब ने खुद कहा था कि हमारी शायरी आज के लिए और आने वाले दौर के लिए है.
 
कहा जाता है कि जब कोई दुनिया के कुछ बड़े शायरों का लेखांकन करता है तो उसमें गालिब का नाम भी लिया जाता है. गालिब के  औलाद का बचपन में ही निधन हो गया था. इंसानी दर्द को गालिब ने बहुत अच्छे से पेश किया है. 
 
ghalib
 
उर्दू नहीं जानते गालिब दूर की बात

जब हमने ने उनसे पूछा कि मजार के आसपास के रहने वालों को गालिब के बारे में कुछ भी नहीं पता. इस बारे में वह कहते हैं कि बहुत लोग उर्दू नहीं जानते हैं, गालिब तो दूर की बात है. बहुत कम लोग उर्दू को जानने वाले हैं.
 
गालिब के बारे में आसपास के लोगों को कभी बताया गया ? इसपर डॉ अकील अहमद  कहते हैं कि गालिब के जन्मदिन के मौके पर, समय समय पर ऐसे प्रोग्राम किए जाते हैं कि आम लोग भी फायदा उठाएं. गजल गायकी का प्रोग्राम होता है. गालिब ने खुद ही कहा है कि अगर हमारी शायरी देखनी हो तो फारसी की देखिए. 
 
हर साल आंखें बंद करके फातिहा पढ़ी जाती

बहरहाल, मिर्जा असदुल्लाह खा गालिब के जर्जर दरगाह पर हर साल जन्मदिन के मौके पर कुछ फूल चढ़ाए जाते हैं और आंखें बंद करके फातिहा पढ़ी जाती है.लेकिन इस महान कवि के मजार की जर्जर हालत को न तो कोई देखता है और न ही मरम्मत होती है.
 
हर साल लाखों रुपये उर्दू के नाम पर खर्च किए जाते हैं, पर गालिब के हवाले से युवा पीढ़ी को कुछ नहीं बताया जाता. बस महफिल में गालिब के एक दो शेर पढ़ कर वाह वाह लूटी जाती है. रोजाना हजारों लोग गुजरते हैं, लेकिन किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाता.
 
हुई मुद्दत के गालिब मर गया पर याद आता है !

वह हर एक बात पे कहता था कि यूं होता तो किया होता!!