राजेन्द्र शर्मा
जिसके नृत्य से भावाभिभूत होकर महज सोलह साल में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उन्हें नृत्य सम्राज्ञी की उपाधि दे दी हो उसे भला भारत सरकार का पद्म विभूषण सम्मान क्योंकर स्वीकार्य होता!यही कारण था जब उनहें पद्म विभूषण से नवाजने की बात आई तो उन्होंने स्वाभिमान के साथ इंकार कर दिया. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहा उनके जीवन में फलीभूत हुआ. वह वाकई बाद में नृत्य साम्राज्ञी बनीं और एक युग की तरह संगीत में झिलमिलाती रहीं.
जितना उनके कला की कद्र हुई उतना ही ईश्वर ने उन्हें दुख भी दिया. किसी व्यक्ति के जीवन में इस से ज्यादा अभागापन क्या हो सकता थ कि उसके पैदा होते ही मां-बाप उसे त्याग दें, ऐसा अभागापन पाया था, 'नृत्य सम्राज्ञी' सितारा देवी ने. 8 नवम्बर, 1920 को कलकत्ता में धनतेरस के दिन मूल रूप से वाराणसी निवासी कथक नृत्यकार और संस्कृंत के विद्वान सुखदेव महाराज के यहां सितारा देवी का जन्म हुआ. पैदा होने क बाद मां-बाप ने देखा कि नवजात बच्ची का मुंह टेढ़ा है. नवजात बच्ची के मुंह के टेढ़ेपन से भयभीत मां-बाप ने उसे एक दाई को सौंप दिया. जिसने उस बच्ची को पाला.
चूंकि बच्ची धनतेरस के दिन पैदा हुई थी लिहाजा दाई इस बच्ची को धन्नो कहकर पुकारती. ममत्व से भरी दाई ने रात दिन मालिश कर उस बच्ची के मुंह के टेढ़ेपन को काफी हद तक दूर किया.
आठ वर्ष बाद जब मां-बाप को जानकारी मिली कि उनकी बेटी के मुंह का टेढ़ापन काफी हद तक खत्म हो गया है,तब वह उसे अपने घर ले आये और अपने घर आने पर वह बच्ची जिसे नाम से धन्नो पुकारा जाता था, धन्नो से धनलक्ष्मी हो गयी. उस समय की परम्परा के अनुसार धनलक्ष्मी का विवाह आठ वर्ष की उम्र में हो गया. उनके ससुराल वाले चाहते थे कि वह घर-बार संभालें लेकिन धनलक्ष्मी के भाग्य में तो इतिहास रचना लिखा था. उसने स्पष्ट कहा कि वह स्कूल में पढना चाहती है.
स्कूल जाने के लिए जिद पकड़ लेने पर उनका विवाह टूट गया और वह वापिस अपने पिता के घर आ गयी.
पिता सुखदेव महाराज तब तक अपने पुत्री में कुछ कर गुजरने की क्षमता जान चुके थे. धनलक्ष्मी का स्कूल में दाखिला कराया गया और वह स्कूल जाने लगी. धनलक्ष्मी के पिता कथक नृत्यकार थे, स्वाभाविक है कि नृत्य पुत्री की रगो में था. स्कूल में उन्होंने एक मौके पर नृत्य का उत्कृष्ट प्रदर्शन करके सत्यवान और सावित्री की पौराणिक कहानी पर आधारित एक नृत्य नाटिका में अपनी बेहतरीन भूमिका निभाई.
इस कार्यक्रम की रिर्पोटिग एक अखबार ने करते हुए धनलक्ष्मी के नृत्य प्रदर्शन के बारे में लिखा था- एक बालिका धन्नो ने अपने नृत्य प्रदर्शन से दर्शकों को चमत्कृत किया. इस खबर को उनके पिता ने भी पढ़ा और बेटी के बारे में उनकी राय बदल गई. इसके बाद धन्नो का नाम सितारा देवी रख दिया गया और उनकी बड़ी बहन तारा को उन्हें नृत्य सिखाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई.
सितारा देवी ने शंभू महाराज और पंडित बिरजू महाराज के पिता अच्छन महाराज से भी नृत्य की शिक्षा ग्रहण की. 10 वर्ष की उम्र होने तक वह एकल नृत्य का प्रदर्शन करने लगीं. अधिकतर वह अपने पिता के एक मित्र के सिनेमाहाल में फिल्म के बीच में पंद्रह मिनट के मध्यान्तर के दौरान अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया करती थीं.
गौरतलब यह है कि उस समय किसी स्त्री द्वारा स्टेज पर नृत्य करने को बुरा माना जाता था. सितारा देवी के मंच पर नृत्य करने का खामियाजा उनके परिवार को बिरादरी के बहिष्कार के रूप में मिला. समाज से बहिष्कृत होने के बाद भी सितारा देवी के पिता बिना विचलित हुए सितारा देवी को प्रोत्साहित करते रहे.
संयोग है कि उन्हीं दिनों फ़िल्म निर्माता निरंजन शर्मा को अपनी फ़िल्म के लिए एक कम उम्र की नृत्यांगना लड़की चाहिए थी. किसी परिचित की सलाह पर वे बनारस आए और सितारा देवी का नृत्य देखकर उन्हें फ़िल्म में भूमिका दे दी. सितारा देवी के पिता इस प्रस्ताव पर राजी नहीं थे, क्योंकि तब वे छोटी थीं और सीख ही रही थीं. परंतु निरंजन शर्मा ने आग्रह किया और इस तरह ग्यारह वर्ष की आयु में वे अपनी मां और बुआ के साथ मुम्बई आ गईं.
फिल्म निर्माता और नृत्य निर्देशक निरंजन शर्मा ने फिल्म ‘ऊषा हरण’के लिए उन्हें तीन माह के अनुबंध पर चुना और वह 12 वर्ष की उम्र में ही सागर स्टूडियोज के लिए नृत्यांगना के रूप में काम करने लगीं. शुरुआती फिल्मों में उन्होंने मुख्यतया छोटी भूमिकाएं निभाईं और नृत्य प्रस्तुत किए.
उनकी फिल्मों में शहर का जादू (1934), जजमेंट ऑफ अल्लाह (1935), नगीना, बागबान, वतन (1938), मेरी आंखें (1939) होली, पागल, स्वामी (1941), रोटी (1942), चांद (1944), लेख (1949), हलचल (1950) और मदर इंडिया (1957) प्रमुख हैं. सवाक फिल्मों के युग में इन फिल्मों में काम करके उस दौर में उन्हें सुपर स्टार का दर्जा हासिल था लेकिन नृत्य की खातिर आगे चलकर उन्होंने फिल्मों से किनारा कर लिया.
मुंबई में उन्होंने जहांगीर हाल में अपना पहला सार्वजनिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, जब वे मात्र 16 वर्ष की थीं, तब उनके नृत्य को देखकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्हें 'नृत्य साम्राज्ञी' कहकर सम्बोधित किया था. उसके बाद कथक को लोकप्रिय बनाने की दिशा में वह आगे बढ़ती चली गईं और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
देश-विदेश में अपने कार्यक्रमों से लोगों को मंत्रमुग्ध करने लगीं और देखते ही देखते अपने नाम की पहचान बनाने में न केवल कामयाब रहीं अपितु कथक के विकास और उसे लोकप्रिय बनाने की दिशा में उनके साठ साल लंबे नृत्य व्यवसाय का आरंभ किया.
अपने सुदीर्घ नृत्य कार्यकाल के दौरान सितारा देवी ने देश-विदेश में कई कार्यक्रमों और महोत्सवों में चकित कर देने वाले लयात्मक ऊर्जस्वित नृत्य प्रदर्शनों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया है. वह लंदन में प्रतिष्ठित रॉयल अल्बर्ट और विक्टोरिया हाल तथा न्यूयॉर्क में कार्नेगी हाल में अपने नृत्य का जादू बिखेर चुकी हैं.
यह भी उल्लेखनीय है कि सितारा देवी न सिर्फ कथक बल्कि भारतनाट्यम सहित कई भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों और लोकनृत्यों में पारंगत थीं. उन्होंने रूसी बैले और पश्चिम के कुछ और नृत्य भी सीखें हैं. सितारा देवी के कथक में बनारस और लखनऊ घराने की तत्वों का सम्मिश्रण दिखाई देता है.
'धन्नो' से 'कथक क्वीन' का खिताब हासिल करने वालीं विख्यात नृत्यांगना सितारा देवी ने मधुबाला, रेखा, माधुरी दीक्षित और काजोल जैसी बॉलीवुड की टॉप हीरोइनों को अपने इशारे पर नचाया है.
सितारा देवी का वैवाहिक जीवन भी सुखमय नहीं रहा. पांचवें दशक में के. आसिफ़ और सितारा को एक-दूसरे से बेइंतिहा प्यार हो गया. वर्ष 1950 में दोनों ने शादी कर ली. के. आसिफ़ के ज़िंदगी से असीम प्यार और सितारा की ज़िंदादिली के चलते उनके रिश्ते में बहार आई, पर दोनों की स्वभावगत बेचैनी और मूड में लगातार आने वाले बदलावों ने उस रिश्ते में दरार पैदा करने का काम भी किया. उनके वैवाहिक जीवन की यह दरार तब और चौड़ी हो गई, जब आसिफ़ को अदाकारा निगार सुल्ताना से प्यार हो गया.
हालांकि सितारा देवी इस घटना से बहुत दुखी हुईं और टूट-सी गईं पर उन्होंने अपने मन में किसी तरह की दुर्भावना को नहीं पनपने दिया. गौरतलब है कि निगार से सितारा देवी की मित्रता थी. के आसिफ की बेवफाई का असर उन्होंनें मित्रता पर पड़ने नहीं दिया और निगार से उनके संबंध खराब नहीं हुए, परन्तु पति की बेवफाई से उपजे दर्द और क्रोध को उन्होंने अपने अंदर समेटा और उस तड़प को नृत्य के माध्यम से ज़ाहिर किया.
के. आसिफ़ से अलगाव के बाद सितारा देवी को एक बार फिर प्यार हुआ. उनके नए प्रेमी का नाम था प्रताप बारोट, जो दक्षिण अफ्रीका में रह रहे एक इंजीनियर और व्यवसायी थे. वे दोनों बहुत जल्द ही एक-दूसरे के प्यार में गिऱफ्तार हुए, उनकी शादी भी हुई. हालांकि यह संबंध बहुत लंबा नहीं चल सका. बेटे रंजीत बारोट (संगीतकार) के जन्म के कुछ समय बाद उनमें अलगाव हो गया.
रिश्तों के बार-बार टूटने से सितारा देवी व्यथित हो गई थीं, पर मानो उनके नृत्य ने दर्द में और निखरना सीख लिया था. ज़िंदगी की तमाम विसंगतियों बीच भी सितारा देवी ने कभी ग़म की चादर ओढ़ना गवारा नहीं समझा.
सितारा देवी को अपने घर में गाने, नृत्य और शेरो-शायरी की महफ़िलों की मेज़बानी पसंद थी. शाम को उनके घर पर फ़िल्मी कलाकारों, निर्देशकों और संगीतकारों का जमघट लगता था. वे देर रात या कहें भोर तक वहीं जमे रहते. ऐसा लगता कि कोई कला महोत्सव चल रहा है,इन शामों में सितारा देवी सौंदर्य की मूर्ति की तरह लगती थीं, पर वे उतनी ही सरल मेज़बान भी होती थीं. डांस करने के बाद वे पैरों में घुंघरू पहने ही मेहमानों के लिए खाना बनाने किचन में चली जाती थीं.
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अब कोई दूसरी सितारा देवी नहीं हो सकती. उन जैसा बनने के लिए आपको अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने से कहीं ज़्यादा की ज़रूरत होगी. आपको अपना पूरा जीवन एक सपने को समर्पित करना होगा. आख़िर उन्हें दिग्गज उर्दू लेखक मंटो ने तूफ़ान यूं ही तो नहीं कहा था.
अपनी ज़िंदगी अपने तईं जीने की क़ामयाब कोशिश की. उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि दुनिया उनसे किस उम्र में किस तरह रहने की उम्मीद करती है. उन्होंने बनी-बनाई मान्यताओं को अपनाने से हमेशा इनकार किया. शायद यही वजह रही कि 94 की उम्र में भी उन्हें कभी मेकअप के बिना नहीं देखा गया. वे जब सार्वजनिक जगहों पर दिखीं, अपनी चिरपरिचित कजरारी आंखों, लिपस्टिक लगे होंठों, करीने से थपथपाए फ़ाउंडेशन के साथ नज़र आईं. उनके बाल जेट-ब्लैक कलर से रंगे होते थे.
कत्थक नृत्यांगना सास्वती सेन याद करती हैं, कैसे सितारा देवी ने तीन घंटे की एक कत्थक प्रस्तुति के दौरान तीन बार कॉस्ट्यूम बदला था. सितारा देवी कहा करती थी कि ‘‘यह डांसर की ज़िम्मेदारी होती है कि वो अपने परफ़ॉर्मेंस के दौरान दर्शकों को पूरे समय तक बांधे रखे. यह काम अपने हावभाव और मुद्राओं के साथ-साथ पहनावे में बदलाव लाकर भी किया जा सकता है.’’
सितारा के माथे पर शोभा देती बड़ी-सी बिंदी और उनके खुले हुए बाल ऐसा महसूस कराते, मानो वे एक वीरांगना हों. जब उन्हें ज़रूरत से अधिक सजने-संवरने से जुड़े ताने सुनने पड़े तो उन्होंने उनका सामना साहस के साथ किया. आखिर यह साहस उन्हें विरासत में मिला था.
सितारा देवी को जीवन में बहुतेरे सम्मान मिले. संगीत नाटक अकादमी सम्मान 1969 में मिला. इसके बाद इन्हें पद्मश्री 1975 में मिला. 1994 में कालिदास सम्मान से सम्मानित किया गया. बाद में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण दिये जाने की घोषणा की गयी जिसे सितारा देवी ने यह कहकर लेने से इंकार कर दिया कि क्या सरकार मेरे योगदान को नहीं जानती है? ये मेरे लिये सम्मान नहीं अपमान है. मैं भारत रत्न से कम नहीं लूंगी.
कुछ लोग इसे उनका अहंकार मान सकते हैं, पर यह तो उनका स्वभाव ही था कि वे जीवन से हमेशा सर्वश्रेष्ठ की मांग करती थीं, क्योंकि वे ख़ुद जीवन को हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देती थीं. सितारा देवी ने 25 नवंबर, 2014 को मुंबई के जसलोक अस्पताल में इस संसार से विदा ली पर वे वाकई कलाकारों संगीतकारों के की गैलेक्सी में एक सितारे की तरह थीं जिसने संगीत के प्रशस्त मंच पर में अपनी कलाकारिता का भव्य प्रदर्शन कर ओझल हो गयीं. कहा जाता है कामयाब लोग मर कर भी अमर हो जाते हैं. नास्तियेषां यश:काये जरामरणंभयम्. उनकी यशोकाया आज भी संगीत की अनुगूंजों में जीवित है और सदियों तक जीवित रहेगी.
(लेखक राजेन्द्र शर्मा उत्तर प्रदेश वाणिज्य कर विभाग में वाणिज्य कर अधिकारी के पद पर नोएडा में कार्यरत है. नौकरी में आने से पूर्व वर्ष 1984 से 1986 तक नवभारत टाईम्स, जनसत्ता, दिनमान के लिए पत्रकारिता. कला और संगीत में रुचि. कला और संगीत विषयक लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित.)