शहनाई और काशी उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए ‘ जन्नत ’ के समान थे

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 22-02-2024
Shehnai and Kashi were more than 'Jannat' for Ustad Bismillah Khan.
Shehnai and Kashi were more than 'Jannat' for Ustad Bismillah Khan.

 

-ज़ाहिद ख़ान

संगीत की दुनिया में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ को शहनाई के पर्याय के तौर पर देखा जाता है.उनके बिना शहनाई का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता.वह बिस्मिल्लाह ख़ाँ ही थे, जिन्होंने शहनाई को नौबतख़ानों से बाहर निकालकर, वैश्विक पटल पर प्रतिष्ठित किया.

शहनाई वादन को सम्मान दिलाया.आलम यह कि ख़ास और आम दोनों ही तबक़े इसे अब पसंद करने लगे हैं.बिस्मिल्लाह ख़ाँ के शहनाई वादन से पहले शहनाई परंपरागत उत्सव, मांगलिक कार्य विधानों, विवाह मंडपों और जुलूस आदि में ही बजाई जाती थी, पर उन्होंने इस साज़ और उसके वादन को शास्त्रीय संगीत समारोहों में इज़्ज़त और ऊंचा मर्तबा दिलाया.

एक दौर था जब शहनाई वादक कजरी, चैती, ठुमरी और दादरा वगैरह को ही बनारस शैली में बजाते थे,लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने अपने लगातार रियाज़ से शहनाई पर रागों को भी बख़ू़बी साध लिया.

इस हद तक कि लोग उसे क्लासिकल म्यूजिक के तौर पर सुनने लगे.बिस्मिल्लाह ख़ाँ के बजाने में तान-टान, गमक इतनी बेहतरीन निकलकर आती थी कि उसका कोई जवाब नहीं.यही नहीं राग-रागनियों पर भी उनका अच्छा क़ाबू था

शहनाई नवाज़ भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ाँ को अपने जीते जी वह इज़्ज़त और एहतिराम हासिल हुआ, जो बहुत कम लोगों को नसीब होता है.

उस घड़ी को भला कौन भूल सकता है, जब देश के पहले राष्ट्रीय महोत्सव में राजधानी दिल्ली स्थित लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के तिरंगा फहराने के बाद, बिस्मिल्लाह ख़ाँ और उनके साथियों ने ‘राग काफ़ी’ बजाकर आज़ादी की उस सुनहरी सुबह का संगीतमय स्वागत किया था.

इस यादगार समारोह के अलावा उन्होंने देश के पहले गणतंत्र दिवस 26 जनवरी, 1950 को भी लालकिले की प्राचीर से शहनाई वादन किया.इसके बाद तो यह सिलसिला शुरू हो गया.उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई, हर साल देश के स्वतंत्रता दिवस पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा बन गई.

 प्रधानमंत्री के भाषण के बाद, दूरदर्शन पर उनकी शहनाई का प्रसारण एक दस्तूर हो गया.साल 1997 में जब देश ने आज़ादी की ‘पचासवीं सालगिरह’ मनाई, तो उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ को एक बार फिर लाल किले की प्राचीर से शहनाई बजाने के लिए आमंत्रित किया गया.देश में ऐसा सम्मान बिरले ही कलाकारों को मिला है.

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ का शहनाई वादन, सांझी संस्कृति की बेहतरीन मिसाल था.शिव विवाह के समय वे जहां खु़श होकर मुबारकबंदी या सेहरा बजाते, वहीं मुहर्रम पर उतनी ही शिद्दत से नौहा और मातमी धुन बजाते थे.उनके शहनाई वादन का अंदाज़ कुछ ऐसा होता कि लोगों की आंखों के सामने कर्बला का पूरा मंज़र आ जाता.

 यही नहीं  गंगा पुजैया में वे जब अपनी शहनाई से ‘‘गंगा दुआरे बधइया बाजे’’ की धुन निकालते, तो लोग झूम-झूम जाते.तमाम धार्मिक बंदिशों से परे उनकी सोच थी.धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता जो आज हर जगह दिखलाई देती है. वह उनमें बिल्कुल न थी.

 बिस्मिल्लाह ख़ाँ की इब्तिदाई तालीम और पारिवारिक संस्कार ही ऐसे थे कि वे कभी किसी बंधनों में नहीं बंधे.अपने घर के दरवाज़े या बारजे पर जब भी वे शहनाई का रियाज़ करते, तो शहनाई का प्याला बालाजी के मंदिर और बाबा विश्वनाथ मंदिर की ओर कर ही बजाते.बिस्मिल्लाह ख़ाँ, संगीत को ईश्वर की साधना मानते थे.

 वे अगर बनारस में हैं, तो उन्हीं की शहनाई की गूंज के साथ बाबा विश्वनाथ मंदिर के कपाट खुलते थे.वे बड़े ही श्रद्धा और ख़ु़शी से शहनाई बजाते थे.बिस्मिल्लाह ख़ाँ हमेशा कहते थे, ‘‘संगीत वह चीज़ है, जिसमें जात-पांत कुछ नहीं.संगीत किसी मज़हब का बुरा नहीं चाहता.’’ हमारे मुल्क की सदियों की संगीत परंपरा को यदि देखें, तो इसमें कहीं कोई भेद नहीं दिखाई देता.

धार्मिक भेदभाव और सभी तरह की जात-पांत को तोड़कर संगीत आगे बढ़ा है.कलाकारों ने संगीत को कभी किसी धार्मिक खाने में नहीं बांटा.शास्त्रीय संगीत के घराने हुए, लेकिन संगीत किसी एक मज़हब का नहीं रहा.

हमारे यहां ऐसी कई मिसाल हैं, जहां मुस्लिम उस्ताद से तालीम पाकर हिंदू शार्गिदों ने, तो हिंदू गुरु से शिक्षा पाकर मुस्लिम विद्यार्थियों ने संगीत के क्षेत्र में बड़ा नाम किया.आज भी यह परंपरा ख़त्म नहीं हुई है.

अप्रैल, 1938 में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने लखनऊ रेडियो में अपना पहला प्रोग्राम रिकॉर्ड किया.उसके बाद यह सिलसिला चल निकला.मींड़ यानी एक सुर से दूसरे सुर तक बिना टूटे हुए जाने के हुनर में उनका कोई सानी नहीं था.

उन्होंने अपनी राग अदायगी में इस पर सबसे ज़्यादा मेहनत की.उनके उस्ताद अलीबख़्श ने इस बात पर हमेशा ज़ोर दिया कि ‘‘सुर कंट्रोल करो.यदि एक सुर का कोई कण सही पकड़ में आ गया, तो समझो कि सारा संगीत तुम्हारी फूंक में उतर जाएगा.’’

बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने इस सबक की गांठ बांध ली.इस तरह रियाज़ किया कि सा और रे का फ़र्क करने की तमीज़ उन्हें बचपन में ही आ गई.मीड़ को बरतने का हुनर आ गया.उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ के शहनाई वादन में एक ज़िंदादिली थी.

अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक उन्होंने बेहतरीन प्रस्तुतियां दीं.उन्होंने फै़याज ख़ान, अब्दुल करीम ख़ान जैसे महानतम गायकों और बड़ी मोतीबाई, सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई, बेगम अख़्तर, गिरिजा देवी एवं पंडित रविशंकर, उस्ताद अमजद अली ख़ान, उस्ताद विलायत ख़ान, अल्ला रक्खा, भीमसेन जोशी, वी.जी. जोग, एन. राजम, एल. सुब्रह्मण्यम जैसे महान कलाकारों के साथ शहनाई बजाई.

 ये महाजुगलबंदियाँ खू़ब पसंद की गईं और आज भी इन्हें लोग पसंद करते हैं.उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने अपनी पूरी ज़िंदगी संगीत की साधना में गुज़ार दी.कई पीढ़ियों को शहनाई वादन की तालीम दी.बावजूद इसके उनका मानना था कि ‘‘मेरा काम अभी कच्चा है, सच्चे सुर की तलाश में हूं.परवरदिगार से इसी सुर की नेमत मांगता हूं.’’

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ को यूं तो सभी रागों को बजाने में महारथ हासिल थी, लेकिन उनके पसंदीदा राग मालकौंस, मारू बिहाग, बागेश्री, जयजयवंती, भूप, ललित, केदार, पूरिया धनाश्री, रागेश्वरी, गोरख कल्याण आदि थे.

भारतीय शास्त्रीय संगीत और उपशास्त्रीय संगीत में जो लोग अपना भविष्य बनाना चाहते हैं, उनके लिए उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ की सीख थी, ‘‘नए कलाकार जो सीख रहे हैं, खू़़ब रियाज़ और सब्र करें.सब्र से षडज और ऋषभ में फ़र्क करना आएगा और जब सुर पहचानना आ गया, तो पूरी दुनिया तुम्हारी है.’’

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ के दिल में काशी बसता था.काशी के अलावा उनका दिल कहीं नहीं लगता था.उन्हें विदेश में बसने की कई बार पेशकश की गई.वे बड़े ही विनम्रता से उन्हें यह कहकर लाजवाब कर देते ‘‘क्या करें मियां, ई काशी छोड़कर कहा जाएं.गंगा मइया यहां, बालाजी का मंदिर यहां, यहां हमारे ख़ानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है.

मरते दम तक न यह शहनाई छूटेगी, न काशी.जिस ज़मीन ने हमें तालीम दी, जहां से अदब पाई, वो कहां मिलेगी ? शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं, इस धरती पर हमारे लिए.’’

बिस्मिल्लाह ख़ाँ सीधे-सच्चे और ख़ुदा एवं ईश्वर में अक़ीदत रखने वाले ऐसे इंसान थे, जिनकी नज़र में किसी भी मज़हब में कोई फ़र्क नहीं था.इंसानियत को वे सबसे बड़ा मज़हब समझते थे.मज़हबी तंग—नज़री का वे कभी शिकार नहीं हुए.

 अपनी कला से वे लोगों में इंसानियत, साम्प्रदायिक सौहार्द और भाईचारे का पैग़ाम फैलाते रहे.यही वजह है कि मुल्क का हर वर्ग उनकी इज़्ज़त-ओ-एहतिराम और उनसे दिली मुहब्बत करता था.21 अगस्त, 2006 को बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने इस फ़ानी दुनिया से अपनी रुख़्सती ली.जब इसकी ख़बर लोगों तक पहुंची, तो उनके घर हुजूम उमड़ पड़ा.

 उनके घर का ये मंज़र था कि एक तरफ़ शहनाई की धुनों के बीच मुस्लिम भाई फ़ातिहा पढ़ रहे थे, दूसरी ओर हिंदू भाईयों ने सुंदरकांड का पाठ किया.यही नहीं भारतीय सेना की ओर से बिस्मिल्लाह ख़ाँ को इक्कीस तोपों की सलामी दी गई.

अपने जीते जी और मौत के बाद इतना प्यार एवं सम्मान बहुत कम कलाकारों को हासिल होता है.मुल्क में आज भी नये-नये शहनाई नवाज़ आ रहे हैं, लेकिन उनके शहनाई वादन में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ जैसी बात नहीं.