सआदत हसन मंटो : बंटवारे से आख़िर, उन्हें क्या हासिल हुआ ?

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 11-05-2022
सआदत हसन मंटो
सआदत हसन मंटो

 

संदर्भ : 11 मई, अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो की जयंती

ज़ाहिद ख़ान

सआदत हसन मंटो, हिंद उपमहाद्वीप के बेमिसाल अफ़साना निगार थे.प्रेमचंद के बाद मंटोऐसे दूसरे रचनाकार हैं, जिनकी रचनाएं आज भी पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं.क्या आम, क्या ख़ास वे सबके हर—दिल—अज़ीज़ हैं.सच बात तो यह है कि मंटो की मौत के आधी सदी से ज़्यादा गुज़र जाने के बाद भी, उर्दू में उन जैसा कोई दूसरा अफ़साना निगार पैदा नहीं हुआ.

तेतालिस साल की छोटी सी ज़िंदगानी में उन्होंने जी भरकर लिखा.गोया कि अपनी उम्र के बीस-बाईस साल उन्होंने लिखने में ही गुज़ार दिए.लिखना उनका जुनून था. जीने का सहारा भी.मंटो एक जगह ख़ुद लिखते हैं,‘‘मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है.’’

इसके बिना वे ज़िंदा रह भी नहीं सकते थे.उन्होंने जो भी लिखा, वह आज उर्दू अदब का नायाब सरमाया है.मंटो का लिखा उनकी मौत के इतने साल बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के ज़ेहन में ज़िंदा है.अफ़सोस ! उन्हें लंबी ज़िंदगी नहीं मिली.लंबी ज़िंदगी मिलती, तो उनकी कलम से न जाने कितने और शाहकार अफ़साने निकलते.

अपनी छोटी सी ज़िंदगानी में सआदत हसन मंटो ने डेढ़ सौ से ज़्यादा कहानियां लिखीं.व्यक्ति चित्र, संस्मरण, फ़िल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे.पत्रकारिता की.मंटो के कई अफ़साने आज भी मील का पत्थर हैं.

उनकी कलम से कई शाहकार अफ़साने निकले.मसलन-'ठंडा गोश्त', 'खोल दो', 'यज़ीद', 'शाहदोले का चूहा', 'बापू गोपीनाथ', 'नया कानून', 'टिटवाल का कुत्ता' और 'टोबा टेकसिंह'.हिंदोस्तान के बंटवारे पर मंटो ने कई यादगार कहानियां, लघु कथाएं लिखीं,लेकिन उनकी कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ का कोई दूसरा जवाब नहीं.‘

टोबा टेकसिंह’ में मंटो ने बंटवारे की जो त्रासदी दिखाई है, वह अकल्पनीय है.विभाजन का ऐसा रूपक, हिंदी-उर्दू के किसी दूसरे अफ़साने में बमुश्किल ही हमें देखने को मिलता है.‘टोबा टेकसिंह’ मंटो का मास्टरपीस है.

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मंटो ने यदि इतना साहित्य न लिखा होता, सिर्फ़ ‘टोबा टेकसिंह’ ही लिखा होता, तो वे इस अफ़साने के बिना पर ही हिंदी-उर्दू अदब में हमेशा के लिए ज़िंदा रहते.उन्हें ‘टोबा टेकसिंह’ के लिए ही याद किया जाता.

‘टोबा टेकसिंह’ किरदार को मंटो ने अपने ख़ून-ए-जिगर से लिखा है.बंटवारे से मंटो ख़ुद भी मुतअस्सिर हुए थे.वे भारत छोड़कर, पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे,लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ा.वे पाकिस्तान चले गए, पर उनका दिल हिन्दुस्तान में ही रहा.

अमरीकी राष्ट्रपति ‘चचा साम’ के नाम लिखे, अपने पहले ख़त में मंटो अपने दिल का दर्द कुछ इस तरह बयां करते हैं,‘‘मेरा मुल्क कटकर आज़ाद हुआ, उसी तरह मैं कटकर आज़ाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे हमादान आलिम (सर्वगुण संपन्न) से छिपी हुई नहीं होना चाहिए कि जिस परिंदे को पर काटकर आज़ाद किया जाएगा, उसकी आज़ादी कैसी होगी ?’’ (पेज-319, पहला ख़त, सआदत हसन मंटो-दस्तावेज 4)

पाकिस्तान जाने के बाद, मंटो सिर्फ़ सात साल और ज़िंदा रहे.18 जनवरी, 1955 को लाहौर में उनका इंतकाल हो गया.मंटो जिस्मानी तौर पर भले ही पाकिस्तान चले गए, मगर उनकी रूह हिंदोस्तान के ही फ़िल्मी और अदबी हल्के में भटकती रही.

मंटो ने कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ का कालक्रम बंटवारे के दो-तीन साल बाद यानी, 1949-50 का बतलाया है.कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह होती है, ‘‘बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख़याल आया कि साधारण क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए.यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए.’’

कहानी का ये प्रस्थान बिंदु है और यहीं से कथानक विस्तार लेता है.मंटो लाहौर के एक पागलखाने और उसमें बंद पागलों की मानसिक दशा का वर्णन करते हुए, अपनी कहानी के अहम किरदार बिशन सिंह उर्फ टोबा टेकसिंह पर पहुंचते हैं.

टोबा टेकसिंह बीते पन्द्रह साल से इस पागलखाने में कैद है.उसकी मानसिक अवस्था अजब है.वह ज़्यादा कुछ बोलता नहीं.‘‘हर समय उसकी ज़बान से अजीब—ओ—ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे, ‘‘ओ पड़ दी गिड़-गिड़ दी एक्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी लालटेन.’’

बिशन सिंह उर्फ टोबा टेकसिंह की ज़ेहनी हालत भले ही ठीक न हो, लेकिन जब उसे ये मालूम चलता है कि उसे अपने मुल्क यानी टोबा टेकसिंह, जिस जगह वह पला-बढ़ा से दूर कर दिया जाएगा.

तो वह जाने से इंकार कर देता है.बंटवारे का यह ख़याल उसे अजीब लगता है.टोबा टेकसिंह को ही नहीं, पागलखाने में क़ैद दीगर पागलों को भी यह बात जरा भी समझ में नहीं आती कि ‘‘वे पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में.अगर हिन्दुस्तान में हैं, तो पाकिस्तान कहां है ? और अगर वे पाकिस्तान में हैं, तो यह कैसे हो सकता है कि वे कुछ अर्सा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे-’’

‘‘किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में.जो बताने की कोशिश करते थे, ख़ुद इस उलझन में फंस जाते थे कि सियालकोट पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है.क्या पता कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है, कल हिन्दुस्तान में चला जाएगा या सारा हिन्दुस्तान ही पाकिस्तान बन जाएगा और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता है कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब न हो जाएंगे.’’

पागलखाने में यह ऊहापोह की स्थिति सिर्फ पागलों के दिमाग में ही नहीं चल रही थी, बल्कि उस वक्त यह मानसिक दशा उन लाखों-लाख लोगों की थी, जो देखते-देखते अपनी जड़ों से दूर कर दिए गए थे.

मज़हब की बुनियाद पर कुछ लोग जबरन पाकिस्तान खदेड़ दिए गए, तो कुछ लोग हिन्दुस्तान.बंटवारे का दर्द कुछ ऐसा कि अपने ही मुल्क में पराए हो गए.पागलखाने में बंद पागल भी यह बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं कि उनके मुल्क का बंटवारा हो गया है.

मंटो ने बंटवारे का दर्द ख़ुद सहा था.वे जानते थे कि बंटवारे के जख़्म कैसे होते हैं ? लिहाज़ा उनकी इस कहानी में बंटवारे का दर्द पूरी शिद्दत के साथ आया है.मंटो मुल्क के बंटवारे से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते थे.

वे इसके ख़िलाफ़ थे, लेकिन किस्मत के आगे मजबूर.मंटो और उनके जैसे करोड़ों-करोड़ लोगों की नियति का फ़ैसला, चंद लोगों ने मिलकर रातों-रात कर दिया था.वे इस फ़ैसले को मानने को मजबूर थे.बंटवारे के ख़िलाफ़ उनका गुस्सा कहानी के कई प्रसंगों में देखा जा सकता है.

कई मार्मिक प्रसंगो और छोटे-छोटे संवादों के ज़रिए मंटो कहानी में बंटवारे और उसके बाद की परिस्थितियों का पूरा ख़ाका खींच कर रख देते हैं.कहानी में घट रही, हर बात और संवादों का एक अलग ही अर्थ है.बंटवारे से सारी इंसानियत लहू-लुहान है.लेकिन दोनों ही हुक़ूमतों को इसकी जरा सी भी परवाह नहीं.

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वे संवेदनहीन बनी हुई हैं.इस हद तक कि साधारण क़ैदियों की तरह वे पागलों का भी तबादला करना चाहती हैं.सत्ता का अमानवीय चेहरा, जो पागलों का भी बंटवारा करना चाहती है.हिंदू पागल हिन्दुस्तान जाएं और मुसलमान पागल पाकिस्तान.हुक़ूमतों के इस तुगलकी फ़रमान को पागलों को भी मानना होगा.

टोबा टेकसिंह को यह बात मंज़ूर नहीं.वह नहीं चाहता कि उसे अपने मुल्क टोबा टेकसिंह से दूर कर दिया जाए.उसके लिए हिंदुस्तान-पाकिस्तान का कोई मायने नहीं.उसकी जन्मभूमि और कर्मभूमि ही उसका मुल्क है.वह ऐसे किसी भी बंटवारे के ख़िलाफ़ है, जिसमें उसे अपनी ज़मीन से बेदख़ल होना पड़े.टोबा टेकसिंह को जब यह मालूम चलता है कि उसे ज़बर्दस्ती उसके गांव टोबा टेकसिंह से दूर हिन्दुस्तान भेजा जा रहा है, तो वह जाने से इंकार कर देता है.

मंटो ने कहानी का जो अंत किया, वह अविस्मरणीय है.एक दम क्लासिक. अपने अंत से कहानी ऐसे कई सवाल छोड़ जाती है, जो अब भी अनुत्तरित हैं.टोबा टेकसिंह आज भी हमारे नीति नियंताओं, हुक्मरानों से यह सवाल पूछ रहा है कि बंटवारे से आख़िर उन्हें क्या हासिल हुआ ?

सत्ता की हवस में उन्होंने जो फ़ैसला किया, वह सही था या ग़लत ? ‘‘देखो, टोबा टेकसिंह अब हिन्दुस्तान में चला गया है-यदि नहीं गया है तो उसे तुरन्त ही भेज दिया जाएगा’’ किन्तु वह न माना.जब जबरदस्ती दूसरी ओर ले जाने की कोशिश की गई तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया,

जैसे अब कोई ताकत उसे वहां से नहीं हटा सकेगी.क्योंकि आदमी बेज़ार था, इसलिए उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं की गई, उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा.सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशन सिंह के गले से एक गगनभेदी चीख़ निकली.

इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी, जो पन्द्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधें मुंह लेटा था.इधर कांटेदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-उधर वैसे कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान.बीच में जमीन के उस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था.’’