मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली
करीब सवा सौ साल पहले, बंगाल की मुस्लिम लेखिका रुकैय्या हुसैन ने एक कहानी लिखी थी, जिसमें दुनिया का शासन महिलाओं के हाथ में था और जो सौर ऊर्जा से चलती थी.
सौर ऊर्जा, युद्ध की समाप्ति और कमान महिलाओं के हाथों में. आज से एक सवा सौ साल पहले ही रुकैया हुसैन ने सुल्ताना’ज ड्रीम नाम की साइंस फिक्शन लिखी थी जो 1905 में प्रकाशित हुई थी. बेशक, यह कहानी अपने समय के हिसाब से बहुत आगे थी और इसमें पितृसत्ता की आलोचना करते हुए उसको चुनौती दी गई थी. इसके साथ ही, संघर्ष, पारंपरिक खानदानी उत्तराधिकार, औद्योगीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की आलोचना भी थी.
खास बात यह है कि हमारी आज की दुनिया की चिंताओं के बारे में बात करते हुए, यह एक मुस्लिम महिलाओं में मौजूद पर्दा प्रथा का भी मखौल उड़ाती है और उस पर चोट करती है. वह ऐसा वक्त था जब ब्रिटिश उपनिवेशवादी लोग भारत में महिलाओं के साथ व्यवहार को यहा पर औपनिवेशिक शासन के औचित्य के रूप में पेश कर रहे थे, और आज भी पश्चिम ऐसे बहाने बनाता है, रुकैय्या हुसैन की कहानी में एक ऐसी दुनिया की कल्पना थी जिसमें महिलाओं के बजाय पुरुषों को घर के अंदर परदे में रखा गया था.
इस प्रकार देखा जाए तो इस कहानी के जरिए रुकैय्या हुसैन एक बड़े नारीवादी दृष्टिकोण को समाने रखा जिसके निशाने पर भारतीय किस्म की पितृसत्ता तो थी ही, उसमें पश्चिम के पुरुषप्रधान समाज को भी चुनौती दी.
सुल्तानाज ड्रीम को एक भारतीय महिला, वह भी मुस्लिम महिला की कलम से लिखा गया पहला साइंस फिक्शन या विज्ञान गल्प मानना इसको कमतर आंकना होगा. बल्कि यह विज्ञान गल्प होने के साथ-साथ उस कथा प्रणाली का हिस्सा है जो उन्नीसवीं सदी में विकसित हो रही थी और अमूमन पश्चिमी पुरुष लेखक ही लिख रहे थे. इन लेखकों में एच.जी. वेल्स, जूल्स वर्ने और आर्थर कानन डायल काफी मशहूर हैं.
इसके साथ ही, यह कहानी आधुनिक साहित्य में पहला फेमिनिस्ट यूटोपियन लेखन भी है जो शार्लेट पर्किन्स गिलमैन के हरलैंड के प्रकाशन से एक दशक पहले ही प्रकाशित हो चुका था. इसके साथ ही सुल्तानाज ड्रीम दक्षिण एशिया में किसी भी मुस्लिम लेखक द्वारा लिखा गया पहला साहित्यक लेखन था. हालांकि, इस कहानी पर भारतीय लेखन समुदाय ने ज्यादा चर्चा नहीं की है.
यहां गौरतलब बात है कि यह कहानी लेखक ने उस भाषा में लिखी थी जो उनकी शिक्षा की भाषा नहीं थी. रुकैय्या कभी औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई नहीं कर पाई थीं, हालांकि उन्हें अंग्रेजी के अलावा उर्दू, फारसी, अरबी और बांग्ला आती थी.
भारत में मुस्लिम समुदाय उस दौर में महिलाओं की शिक्षा को ज्यादा प्रोत्साहित नहीं करता था और औपनिवेशिक शासन ने भी मुस्लिम महिलाओं के लिए कोई कॉलेज शुरू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. गौरतलब है कि पहला मुस्लिम महिला कॉलेज 1939 में खोला गया जबकि उस वक्त तक भारत में अंग्रेजी राज की जड़े उखड़ने लगी थी.
महिलाओं के शिक्षा का प्रसार हुसैन का जनुनू था और यह उनकी कहानियों और लेखो में साफ दिखता है.
रुकैया हुसैन को अमूमन बेगम रुकैय्या के नाम से जाना जाता है और आज दक्षिण एशिया में उनको शिक्षाविद, फेमिनिस्ट, लेखक और कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है. उनका जन्मस्थान आज के बांग्लादेश में पड़ता है और वहां हर साल 9 दिसंबर को रुकैय्या दिवस मनाया जाता है.
रुकैय्या हुसैन मुस्लिमों के अंगरेजी शिक्षा के पक्ष में थीं और इसकी जोरदार पैरोकारी करती थीं. उनका कहना था कि जो लोग अंग्रेजी जानते हैं उनको नौकरियों में फायदा होगा. लेकिन इसके साथ ही वह ब्रिटिश शासन की जोरदार मुखालफत भी करती थीं. खासतौर पर वह भारत पर विदेशी सांस्कृतिक परंपराओं के लादे जाने की घोर विरोधी थीं.
तरिणी भवन में एक महिलाओं का स्कूल, कार्यशाला, बेघरों के लिए घर, अस्पताल था जहां भारत आधारित शिक्षा दी जाती थी और छात्रों में हिंदुस्तानी तहजीब के बीज डाले जाते थे.
हुसैन एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में पली-बढ़ीं. उनके पिता की चार पत्नियां थीं, उन्होंने अपने बेटों के लिए शिक्षा का समर्थन किया, लेकिन उनकी बेटियों को नहीं, और वह महिलाओं को पर्दा में रखते थे. नतीजतन, हुसैन ने स्वाध्याय के जरिए खुद को शिक्षित किया, हालांकि उनके भाई ने पढ़ाई में उनकी मदद की, जिसने उसे अंग्रेजी पढ़ाया.
सोलह साल में रुकैय्या की शादी हो गई थी लेकिन उनके भाई ने उनके लिए सखावत हुसैन के रूप में ऐसा शौहर खोजा जो खुद प्रगतिशील विचारों के थे. और सुल्तानाज ड्रीम प्रकाशित करने में उनके शौहर का बहुत बड़ा हाथ था. इसके साथ ही उनके पति ने लड़कियो के लिए स्कूल खोलने के लिए पूरी रकम उन्हें दी.
सुल्तानाज ड्रीम 1905 में इंडिया लेडीज मैगजीन में प्रकाशित हुई थी. इसकी संपादक कमला सत्तियानादन थीं और यह भारत में महिलाओं द्वारा और महिलाओं के लिए प्रकाशित पहली मैगजीन थी.
आज ऐसी रचनाओं के जरिए हमें उस अतीत पर गर्व करना चाहिए कि किस तरह महिलाओं ने अपनी आवाद सवा सौ साल पहले से उठानी शुरू कर दी थी.