स्मृतिशेषः आजादी के बाद साहित्य की महानायिका मन्नू भंडारी

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 16-11-2021
मन्नू भंडारी
मन्नू भंडारी

 

अरविन्द कुमार

आज़ादी से पहले अगर हिंदी साहित्य की दो मुख्य स्तंभ महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान थीं, तो आजादी के बाद कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी दो महानायिकाएं थीं. दोनों स्वाभिमानी, दोनों साहित्य के सत्ता-विमर्श से दूर रहने वाली. कुछ साल पहले कृष्णा जी नहीं रहीं और कल मन्नू जी भी हमसे विदा हो गईं. दोनों नब्बे पार और दोनों लोकप्रिय. दोनों का विशाल पाठक वर्ग.

हिंदी में प्रभामण्डल वाले चमकदार और हाइप्रोफाइल लेखक तो बहुत हुए हैं, पर ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो मंच पर नजर नहीं आते थे, बल्कि हमेशा नेपथ्य में रहना पसंद करते थे और चुपचाप अपने लेखन में तल्लीन रहते थे. किसी लॉबी या गुट से दूर. निर्विवाद. अजातशत्रु की तरह. मन्नू जी इसी परम्परा की एक जेनुइन लेखक थीं.

साहित्य की निर्मम, चालाक तथा तिकड़मी दुनिया में विनम्र, ईमानदार और पारदर्शी लेखकों की सूची में उनका नाम सबसे ऊपर रहेगा. आजादी के बाद हिंदी की जिन दो लेखिकाओं ने अपनी बड़ी राष्ट्रीय पहचान बनाई और स्त्री स्वर को व्यापक बनाया, उनमें कृष्णा सोबती के बाद मन्नू भंडारी ही थीं. लेकिन उन्हें नई कहानी आंदोलन में वह श्रेय नहीं मिला, जो उनके पति राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की तिकड़ी को  मिला. 

मन्नू जी इन सबसे अधिक प्रतिभाशाली थीं पर उन्होंने कभी अपना आत्मप्रदर्शन नहीं किया, आत्मप्रचार नहीं किया. न बखान किया, न अपना विज्ञापन किया. वह एक संत किस्म की लेखिका थीं. साहित्य की गहमा-गहमी और कोलाहल से दूर एकांत साधना में यकीन करने वाली. उन्होंने न तो अपनी प्रतिबद्धता और न ही अपने स्त्री-विमर्श की ढपली बजाई क्योंकि वह हमेशा अपनी रचनाओं की ताकत पर यकीन करती रहीं और उसकी बदौलत जिंदा रही.

91 वर्ष की अवस्था में जब वह आज नहीं रही तो हिंदी साहित्य में एक सन्नाटा छा गया. सोशल मीडिया पर जिस तरह लोगों ने अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की है उससे पता चलता है कि उनके पीछे एक विशाल प्रशंसक वर्ग था.

वह बेशक राजेन्द्र यादव की पत्नी थीं पर उनकी अलग पहचान थी. एक समय यह कहा जाता था मन्नू जी अपनी प्रतिभा में यादव से कहीं आगे थीं और उन्होंने अपने लेखन से सिद्ध भी किया. यादव के नहीं रहने पर मन्नू जी और अकेली रह गईं थीं. वैसे वह वर्षों से एकाकी जीवन व्यतीत कर रही थीं. उनकी आत्मकथा जिन लोगों ने पढ़ी होगी उन्हें मन्नू जी की बेबाकी और साहस का पता होगा. लेकिन वर्षों से अस्वस्थ होने और स्मृतिलोप के कारण वह हिंदी की दुनिया से कट गईं थीं. वह पिछले दो-तीन दशकों से अलग-थलग ही रहने लगी थीं. एक तरह का संन्यास उन्होंने ले लिया था.

लेकिन पाठकों की स्मृति में वह हमेशा बनी रहीं. जिन लोगों ने "आपका बंटी" उपन्यास धर्मयुग पत्रिका में धारावाहिक पढ़ा होगा, वह मन्नू जी को कभी भूल नहीं सकता. जिन लोगों ने उनकी कहानी "यही सच है" पर अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा की फ़िल्म "रजनीगन्धा" देखी होगी वे भी मन्नू जी को नहीं भूल सकते. उस ज़माने में लोग ‘आपका बंटी’ की किश्त का इंतज़ार करते थे.

बाल मनोविज्ञान पर वह हिंदी का पहला उपन्यास था. इतना संवेदनशील और मार्मिक जिसमें घटनाओं का बहुत सूक्ष्म वर्णन था जो लोगों के दिल का छू गयी थी. हर गृहणी अपने दाम्पत्य को बचाते हुए अपने बंटी को लेकर उसी तरह चिंतित और आशंकित रहती थी लेकिन वह केवल भारतीय निम्न मध्यवर्ग की प्रतिनिधि कथाकार ही नहीं थी बल्कि भारतीय राजनीति की पतनगाथा की पहली कथाकार  भी थीं. ‘राग दरबारी’ के बाद ‘महाभोज’ दूसरा ऐसा उपन्यास था जिसमें समाज के पतन की कहानी लिखी गयी थी पर थोड़े भिन्न कथानक और ट्रीटमेंट के साथ.

जब भारतीय राजनीति में धनबल का बोलबाला बढ़ता गया और चुनावी राजनीति के दांवपेच और गहरे हो गए तो मन्नू जी ने "महाभोज" में उसका पर्दाफ़ाश कर दिया. उस पर  कई बार नाटक हुए और वह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि देश के विभिन्न भागों में वह आज भी खेला जाता है. यह देखकर आश्चर्य होता है कि जिस मन्नू जी ने "आपका बंटी" लिखा, उसने ही महाभोज भी लिखा. दोनों दो शिल्प और दो अंदाज़ के उपन्यास.

उनकी मनोवैज्ञानिक चेतना के साथ उनकी राजनीतिक चेतना भी प्रखर थी. उनकी एक और कहानी "त्रिशंकु" भी काफी लोकप्रिय हुई और उसका मंचन हुआ और फ़िल्म भी बनी. लेकिन जब आपका बंटी पर फ़िल्म बनी तो मन्नू जी निर्माता-निर्देशकों से इस बात पर नाराज हो गईं कि उनकी कहानी में छेड़छाड़ किया गया. जैसाकि ऊपर कहा गया, मन्नू जी समझौते करनेवाली लेखिका नहीं थी. इसलिए जब उसपर फ़िल्म बनी तो उन्होंने देखा कि कहानी को तोड़ा-मरोड़ा गया है तो उन्होंने कॉपीराइट कानून के तहत निर्माता पर मुकदमा कर दिया. निर्माता-निर्देशक को अदालत के बाहर मन्नूजी से समझौता करना पड़ा.

मन्नू जी अपने स्वभाव से भले ही विनम्र और सरल थी लेकिन भीतर से वह बहुत आत्माभिमानी तथा सिद्धांतवादी थीं और इसलिए उनके जीवन में किसी तरह का कोई विचलन दिखाई नहीं देता और न कोई पाखंड या अंतर्विरोध. अपने समकालीन लेखक  निर्मल वर्मा की तरह उनका कोई वैचारिक विचलन भी नही हुआ और न ही सत्ता को लेकर किसी तरह का कोई आकर्षण उनके मन में था.

उन्हें कभी किसी राजनेता के साथ नहीं देखा गया. उन्होंने संस्थानों और प्रतिष्ठानों की सीढ़ियों पर चढ़ने में रुचि नहीं दिखाई जबकि उनके बाद की पीढ़ी की कई लेखिकाओं उसके ऊपर चढ़ते-उतरते देखा गया. शायद यही कारण है कि मन्नू जी न केवल साहित्य अकादमी पुरस्कार से वंचित रहीं बल्कि वह साहित्य अकादमी की फैलो भी नहीं बनाई गई. जबकि वह इसकी हकदार थी और उनकी जगह एक दोयम दर्जे के कवि और आलोचक को साहित्य अकादमी का फेलो बनाया गया जबकि वह अध्यक्ष पद से हटे ही थे.

दरअसल मन्नू जी एक सच्ची रचनाकार थी और उन्होंने भारतीय निम्न मध्यवर्ग की मार्मिक कहानी लिखने में अपना जीवन गुजार दिया. अगर 60 और 70 के दशक के बीच में भारतीय निम्न मध्यवर्ग के इतिहास को जानना हो तो मन्नू भंडारी की कहानियों को पढ़ें. बिना उस इतिहास, उस संघर्ष के उस मनोभाव को नहीं पकड़ा जा सकता है. सबसे बड़ी बात है कि मन्नू भंडारी की कथा साहित्य में शिल्प कोई बहुत आडंबर नहीं था और न ही भाषा की चमक का सहारा था. उनका कथ्य ही इतना मजबूत था कि वह पाठकों पर हावी था और आज भी उनके पाठक उन्हें याद करते हैं हिंदी पट्टी में शिवानी के बाद वह दूसरी लेखिका थी जो घर-घर में जानी जाती थी तथा आम गृहणियों के बीच लोकप्रिय थी.

असल में उन्होंने कस्बों और छोटे शहरों की स्त्रियों का द-ख दर्द करीब से जिया और भोगा था. मन्नू जी का जाना भारतीय भाषा के साहित्य की अपूरणीय क्षति है जिसकी भरपाई मुश्किल लगती है.

मन्नू जी जैसी लेखिकाएं बहुत कम पैदा होती हैं जिनमें लेखन महत्वाकांक्षा नहीं बल्कि एक रचनात्मक जरूरत थी. वह यश-कामना का साधन नहीं था. वह प्रसार भारती या साहित्य अकादेमी की कार्यकारिणी में बने रहने के लिए नहीं लिखती थी और न ही स्त्री विमर्श का झंडा उठाये रहती थीं.