जानिए, फतेहपुरी मस्जिद क्यों है हिंदू-मुस्लिम की एकता का प्रतीक?

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 08-11-2021
फतेहपुरी मस्जिद और लाला चुन्ना मल
फतेहपुरी मस्जिद और लाला चुन्ना मल

 

मंसूरुद्दीन फरीदी / नई दिल्ली

राजधानी का दूसरा सबसे बड़ा और ऐतिहासिक उपासना स्थल फतेहपुरी मस्जिद आज अपनी जर्जर हालत के कारण सुर्खियों में है. यह जीर्ण-शीर्ण अवस्था इसकी नींव से लेकर मीनारों तक दिखाई देती है, लेकिन इस जीर्ण-शीर्ण पूजास्थल की स्मृति में कुछ खजाने हैं जो आज भी देश की सुंदरता को उजागर कर रहे हैं.

दरअसल, लाल पत्थरों वाली इस मस्जिद का इतिहास सांप्रदायिक सौहार्द की कहानी है, जो आज के परिवेश और सोच को प्रतिबिम्बित करती है. सांप्रदायिक भाईचारा और धार्मिक सहिष्णुता इस देश की सबसे बड़ी ताकत है, जिनकी बुनियाद कभी नहीं हिल सकती.

दरअसल, फतेहपुरी मस्जिद समेत दिल्ली की सैकड़ों अन्य मस्जिदें 1857 के राजद्रोह के बाद वीरान पड़ी थीं. अंग्रेजों के अत्यधिक अत्याचारों ने मुसलमानों को शहर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया और बचे लोगों को उनके घरों तक सीमित कर दिया गया. भय और दहशत का माहौल था. पूजास्थल बंद कर दिए गए. अजान और नमाज की इजाजत नहीं थी.

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फतेहपुरी मस्जिद और वर्तमान इमाम मौलाना मुफ्ती मुहम्मद मुकर्रम अहमद

हद तब हो गई कि 1857 के राजद्रोह में सरकारी संपत्ति को भारी नुकसान होने के कारण अंग्रेजों ने कई संपत्तियों को नीलाम कर दिया था, जिसमें फतेहपुरी मस्जिद भी शामिल थी. असली कहानी इस नीलामी के बाद शुरू होती है. देश में हिंदू-मुस्लिम एकता और भाईचारे की मजबूत नींव के कारण, फतेहपुरी मस्जिद को एक महत्वपूर्ण समय में संरक्षित किया गया और आज भी बरकरार है.

नीलामी और लाला चुन्ना मल 

1870 में जब अंग्रेजों ने नीलामी घर को सजाया, तो फतेहपुरी मस्जिद खरीदने वाला कोई और नहीं, चांदनी चौक का सबसे बड़ा नाम लाला चुन्ना मल थे, जो उस समय एक बड़े कपड़ा व्यापारी थे. उनकी ऐतिहासिक चुन्ना मल हवेली आज भी चांदनी चौक में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है. इसे 1864 में बनाया गया था.

एक शुद्ध व्यवसायी होने के कारण उन्होंने उस समय मस्जिद के आसपास की अनेक दुकानों को देखते हुए यह सौदा किया. इसके लिए उन्नीस हजार रुपये का भुगतान किया गया था.

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लाला चुन्ना मल हवेली का बैठकखाना 

अंग्रेजों ने नीलामी यह सोचकर की थी कि मस्जिद को गिरा दिया जाएगा और नई दुकानें और घर बनाए जाएंगे. खास बात यह है कि लाला चुल्ना मल ने मस्जिद को हासिल करने के बाद उसे गिराया नहीं.

उल्लेखनीय है कि उस समय मुसलमानों के दिल्ली में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और सभी पूजा स्थलों पर ताला लगा दिया गया था. फतेहपुरी मस्जिद में फौजी तंबू थे और अंग्रेजों के घोड़े बंधे हुए थे. इसलिए लाला चुन्ना मल ने फतेहपुरी मस्जिद को बंद कर दिया था, वे समय बदलने का इंतजार कर रहे थे.

शाही दरबार में मस्जिद का मामला

फिर ऐसा ही हुआ और 1877 में, अंग्रेजों ने दिल्ली में मुसलमानों के प्रवेश (या रहने) पर प्रतिबंध हटा दिया. यह 1877 के दिल्ली दरबार के दौरान किया गया था, जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत का सम्राट घोषित किया गया था. इसके बाद ही फतेहपुरी मस्जिद को मुसलमानों को लौटाने का फैसला किया गया.

फतेहपुरी मस्जिद के वर्तमान इमाम मौलाना मुफ्ती मुहम्मद मुकर्रम अहमद का कहना है कि उस समय दिल्ली के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व और रईस लाल किला के शाही दरबार में शामिल हुए थे. मस्जिद में नमाज पूरी तरह बंद थी, मुसलमानों ने मस्जिद खोलने की गुजारिश की. विश्वासघात का असर खत्म हो गया था, जिसके बाद मस्जिद में नमाज अदा करने की इजाजत दे दी गई. तब मस्जिद को अंग्रेजों द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया था और मुसलमानों को नमाज के लिए उपलब्ध कराया गया था.

मस्जिद में छावनी और अस्तबल  

गौरतलब है कि नीलामी में फतेहपुरी मस्जिद जीतने वाले व्यापारी लाला चुन्ना मल ने अपने व्यापारिक हितों की अनदेखी करते हुए मस्जिद को मुसलमानों को सौंप दिया. उनके पोते सुनील मोहन के अनुसार, अंग्रेजों ने लाला चुन्ना मिल को फतेहपुरी मस्जिद वापस करने के बदले मेवात में दो गांव दिए थे.

उस समय दिल्ली के मुसलमानों में बड़ी बेचौनी थी, क्योंकि नीलामी से पहले अंग्रेजों ने फतेहपुरी मस्जिद को छावनी और अस्तबल बना दिया था. इससे मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची थी. लाला चुन्ना मल ने सहर्ष दो गांवों को स्वीकार कर लिया और मस्जिद को मुसलमानों को वापस कर दिया.

चुन्ना मल परिवार सहिष्णुता का प्रतीक हैः मुफ्ती मुकर्रम

फतेहपुरी मस्जिद वर्तमान में अपनी जर्जर स्थिति के लिए बहस का विषय है, लेकिन तथ्य यह है कि यह देश की एकता और सांप्रदायिक भाईचारे की महान और अनूठी कहानियों की गवाह और खड़ी है. फतेहपुरी मस्जिद के इमाम मौलाना मुफ्ती मुहम्मद मुकर्रम अहमद कहते हैं, ‘चुन्ना मल परिवार बहुत प्रबुद्ध और सहनशील रहा है. बगावत और उसके बाद जो हुआ वह इतिहास का हिस्सा है, लेकिन हम जिन पीढ़ियों से जुड़े हैं, वे एक व्यक्तिगत अनुभव हैं. मैं कह सकता हूं कि चुन्ना मल परिवार धार्मिक सहिष्णुता की मिसाल है, साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रणेता है. भाईचारे में विश्वास रखता है. परिवार धन और अभिमान के नशे से मुक्त था. एक व्यापारी होने के बावजूद यह परिवार मानवीय भावनाओं और धार्मिक कर्तव्यों को महत्व देता रहा. उनके दादा स्वर्गीय मुफ्ती आजम मुहम्मद मजहरुल्लाह का इस परिवार से बहुत करीबी रिश्ता था. लाला चुन्ना मल परिवार उनके प्रति बहुत समर्पित था.’

पीढ़ी दर पीढ़ी दोस्ती रही

मौलाना मुफ्ती मुकर्रम का कहना है कि मेरे पिता स्वर्गीय मौलाना मुफ्ती मुहम्मद अहमद एक दंत चिकित्सक थे. वह ब्लिमरन में प्रसिद्ध डॉ यूसुफ के सहायक थे. वह फतेहपुरी मस्जिद के डिप्टी इमाम भी थे. जब उन्होंने अपना काम शुरू किया, तो डॉ यूसुफ के कई पुराने रोगी उनके पिता के क्लिनिक में आने लगे, जिनमें उनके पोते लाला द्वारका नाथ और लाला राजनाथ शामिल थे.

मौलाना मुफ्ती मुकर्रम उनयादों के बारे में बताते हैं कि हर त्योहार खास होता था. क्या ईद और क्या होली. हर त्योहार पर प्यार को व्यंजन के रूप में बांटा जाता था. सब एक साथ बैठते थे. अच्छी पार्टियां थीं.’

कोर्ट में गवाही भी दी

उनके दो पोते लाला राजनाथ और लाला चुन्ना मल के दो वारिस लाला द्वारका नाथ भी फतेहपुरी मस्जिद से जुड़े हुए थे. मौलाना मुफ्ती के मुताबिक, ‘मैंने उन्हें बचपन में देखा था, वह फतेहपुरी मस्जिद में आया करते थे. मैं अपने दिवंगत पिता के बहुत करीब था. त्योहार बहुत जीवंत थे. वे बहुत मिलनसार और सहनशील व्यक्ति थे.’

मौलाना मुफ्ती मुकर्रम का कहना है कि एक समय हमारे परिवार में कुछ विवाद था, मेरे पिता के बड़े भाई ने मुकदमा दायर किया था. समस्या उस मस्जिद के कमरे की थी, जिसमें हम रहते थे. उस समय मेरे पिता के मामले में लाला द्वारका नाथ गवाह के रूप में सामने आए और गवाही दी कि हमारा परिवार शुरू से ही इस कमरे में रहा है, जिसके बाद मामला हमारे पक्ष में तय हुआ.

मौलाना मुफ्ती मुकर्रम के मुताबिक चुन्ना मल परिवार उनके पिता से दांतों का इलाज कराने क्लिनिक आया करता था. उनके पिता मस्जिद के निवास में प्रेक्टिस करते थे, जहां वे इमाम भी थे.

हवेली और वारिस

चांदनी चौक में आज चुन्ना मल हवेली है, जो अतीत की महानता का वर्णन करती है. बेशक यह जीर्ण-शीर्ण है, लेकिन यादों के खजाने के कारण अमूल्य है. इतिहास में रुचि रखने वाले यहां अब भी आते हैं. इसमें उनकी छठी पीढ़ी रहती है, जिसे आज भी लालाजी के फैसले पर गर्व है. जिसे वे साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल के तौर पर देखते हैं.

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लाला चुन्ना मल के वंशज

सुनील मोहन लाला चुन्ना मिल के परपोते हैं, जो संपत्ति के सबसे बड़े हिस्से का दावा करते हैं. वे नियमित रूप से इंटरनेट पर इस हवेली का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं और पुरानी घटनाओं का जिक्र भी कर रहे हैं.

सुनील मोहन के प्रवक्ता अमित वाही ने आवाज-द वॉयस को बताया कि इतिहास बताता है कि लालाजी ने फतेहपुरी मस्जिद को मुसलमानों को सौंपने में अहम भूमिका निभाई थी. मुसलमानों ने बदले में दोगुना भुगतान किया था. यह परिवार की धार्मिक सहिष्णुता का एक प्रमाण है. लाला चुन्ना मिल एक सफल व्यवसायी थे, जिन्होंने मस्जिद को व्यापार के लिए नीलामी में खरीदा था, लेकिन मुसलमानों के भावनात्मक लगाव को महसूस करने पर उन्होंने यह कदम उठाया.

लाला चुन्ना मल के एक और प्रपौत्र अनिल प्रसाद का कहना है कि वह इस हवेली से कभी दूर नहीं हो सकते. यह हमारी विरासत की शान है. वे कहते हैं, ‘पुरानी यादें हमारे लिए एक खजाना हैं. जो आज भी हमें एक सकारात्मक संदेश दे रही है.’

इमारत सांप्रदायिक एकता का कमजोर लेकिन मजबूत प्रतीक है

निस्संदेह, पुरातत्वविदों द्वारा फतेहपुरी मस्जिद को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा नहीं दिया गया है, लेकिन इसकी ऐतिहासिक स्थिति इसे ध्यान का केंद्र बनाती है, जिसे शाहजहाँ की एक बेगम फतेहपुरी ने बनवाया था.

इसकी लोकेशन चांदनी चौक में है और चांदनी चौक का अपना एक इतिहास है. दूसरी ओर लाल किला है, जिस पर तिरंगा लहराता है.

बेशक यह मस्जिद आज अपनी कमजोर बुनियाद की वजह से सुर्खियों में है, लेकिन इसके मद्देनजर ऐसी कहानियां हैं, जो देश में सांप्रदायिक सौहार्द को मजबूती और स्थिरता देती हैं.

जिस तरह चुन्ना मल परिवार ने अपनी विरासत को संरक्षित रखा है, उसी तरह फतेहपुरी मस्जिद को संरक्षित करने के प्रयास किए जाने की जरूरत है, क्योंकि यह न केवल पूजा स्थल है, बल्कि भारत में धार्मिक सहिष्णुता, भाईचारे और सांप्रदायिक सद्भाव का एक जीवंत उदाहरण है.